सतयुग की लाली-संवत् 1981 में आली

May 1971

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बंगाल में मछलियाँ पकड़ने का एक विचित्र उपाय प्रचलित है। गाँवों के लोग नाले के किनारे अथवा अपने खेत में एक विशेष प्रकार का गड्ढा बनाते हैं और उसका सम्बन्ध नाले से जोड़ देते हैं। गड्ढा नाले से भी नीचा रखा जाता है। छोटी-बड़ी मूर्ख मछलियाँ पानी के उस प्रवाह को देखकर नई धारा की ओर आकर्षित होकर चल निकलती हैं और उस छोटे-से गड्ढे में जा पहुँचती हैं। फिर वे नाले में नहीं जा सकतीं। अब गड्ढे का मालिक जब चाहता है, जिस मछली को चाहता है, पकड़ कर खाता रहता है। समझदार मछलियाँ इस दिग्भ्रांति से सदैव दूर ही रहती हैं और वे मछली-मार की पकड़ में नहीं आतीं।

ऐसा ही एक गड्ढा भारतीय धर्म और संस्कृति की वैदिक धारा में बहते हुये भारतीय जीवन प्रवाह को मोड़कर तब बनाया गया जब इस देश में विदेशी शासक आये। उन्होंने देखा ज्ञान-विज्ञान-व्यापार वाणिज्य, कला-कौशल, भाषा-भेषज आदि की दृष्टि से अत्यन्त समर्थ यह समाज धर्म के साथ सीमेन्ट चूने की तरह मजबूती से जुड़ी हुई है। इस देश और महान जाति की वैदिक परम्पराओं को नष्ट किये बिना इसे कैद नहीं रखा जा सकता था। इसलिये विदेशी शासकों ने सबसे पहले हमारे धार्मिक आचारों पर चोट की और कुछ स्वार्थी पण्डितों के द्वारा इस तरह का साहित्य निर्माण कराया जिसे अविच्छिन्न सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रवाह से अलग ले जाने वाला गड्ढा ही कहना चाहिए। भोली-भाली भारतीय जनता धर्म के नाम पर उधर ही बहती चली गई और विदेशियों द्वारा तैयार किये गये बौद्धिक परावलंबन के जाल में फँस गई। देश स्वतन्त्र हो गया, पर आज भी यह देश उसी जाल में उलझा हुआ है - वही संकीर्ण मान्यतायें बनाये उस अंधेरी दुनिया में ही अपने जीवन का सुख सार समझे बैठा है।

कलियुग समाप्त हो गया, अब उसकी पूँछ पर कपड़ा बाँधकर लम्बा किया जा रहा है। वह कोई कब तक कर सकता है। विदेशी शासकों ने धूर्त पण्डितों को बुलाकर उन्हें धन दिया, सम्मान दिया, जागीरें दीं, राजपद दिये। बीरबल और टोडरमल से विद्वानों ने भी अकबर का आश्रय ले लिया तो बेचारी साधारण प्रजा क्या करती। उससे कहा गया-

  यस्तु कार्तयुगो, धर्मो न कर्त्तव्यः कलौयुगे।

पापप्रमुक्ताश्च सदा कलौ नार्यो नरास्तथा॥

 विहितान्यपि कर्माणि धर्मलोप भयाद्बुधैः।

                     समापने निवृत्तानि साध्वभावा कलौयुगे॥   -निर्णय सिन्धु

अर्थात्- कलियुग में लोग पापरहित है इसलिए किसी को सतयुग के धर्म-कर्म नहीं करने चाहिये।

इसी प्रकार के स्वार्थी पण्डितों के माध्यम से विदेशी शासकों ने एक कलिवर्ज्य प्रकरण तैयार कराया। महाभारत काल के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि उस समय भारतवर्ष विश्वसंघ था, सारी दुनिया के लोगों से हमारे राजनयिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। जलावतरण विज्ञान, जहाज और नौकाएँ भारतवर्ष की ही देन है। व्यापार उन्मुक्त रहने तक यह देश गरीब नहीं हो सकता था। जाति-पाँति के साथ ऊँच-नीच का भेद न होता तो सम्पूर्ण हिन्दू जाति संगठित बनी रहती, विधवाओं को विधुरों की तरह समान न्याय दिया जाता तो आज का चारित्रिक खोखलापन दूर रहता। वर्णाश्रम धर्म के रहने तक लोगों के स्वास्थ्य मेधा बुद्धि पर कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं था। गुरु शिष्य परम्परा के आदर्शों को अन्ध भक्ति नहीं बौद्धिक प्रखरता और तर्क व निष्ठा के रूप में रहने दिया जाता तो इस देश की विचारणा कुण्ठित न होती। ब्राह्मण अपने धर्म का पालन करते रहते तो राष्ट्रीय परम्पराएँ और जातीय तेजस्विता नष्ट न होतीं। साधु-संन्यासी भेद-भाव बन्द कर अद्वैत आत्मा का प्रवचन मन, वचन, कर्म से निर्वाह कर सकने में समर्थ बना रहता तो इस देश की पारिवारिक, सामाजिक और जातीय आदर्श परम्पराएँ नष्ट न होतीं। शुद्धि संस्कार का क्रम बना रहता तो सारी दुनिया को प्रभावित करने वाला भारतीय धर्म घटते-घटते मरणोन्मुख स्थिति में न पहुँचता। विदेशी शासकों ने देखा जब तक इस देश की यह आदर्श परम्परायें नष्ट नहीं होतीं, हिन्दू-जाति समर्थ बनी रहेगी और आये दिन संघर्ष करती रहेगी। इसलिये उन्होंने इन आदर्शों को नष्ट करने का विधिवत् कुचक्र रचा। पंडितों द्वारा तैयार किया गया “कलिवर्ज्य प्रकरण” उसी का प्रतिफल था, जिसके द्वारा ये प्रतिबन्ध लगाये गये :-

(1) समुद्री यात्रा अधार्मिक कृत्य है।

(2) दूर देश की यात्रायें नहीं करनी चाहिए।

(3) एक जाति दूसरी जाति से विवाह न करें ।

(4) विवाह छोटी आयु में हों।

(5) गुरु जो कहे वह स्वीकार किया जाये।

(6) शोध कार्य नहीं करना चाहिए।

(7) विधवा विवाह न किये जाये।

(8) अपहृत स्त्रियों को शुद्ध न किया जाये।

(9) स्त्रियों के यज्ञोपवीत संस्कार न कराये जायें, उन्हें वेद न पढ़ने दिये जायें।

(10) सम्पत्ति का स्वामित्व केवल पुत्र को ही र,हे पुत्री को नहीं।

(11) ब्राह्मण जो कभी शास्त्र द्वारा सामाजिक व्यवस्था और तेजस्विता को बनाये रखता था, उसे खाना-पकाने का साधारण काम दिया गया और इस काम को करने वाले सेवकों को शुद्र कहकर चौके से बाहर किया गया।

(12) संन्यासी भी शूद्रों से भिक्षा न लें।

(13) शुद्धि संस्करण में ऐसे प्रतिबन्ध - जो कोई न कर सके या करे तो मृतक भोज की तरह आर्थिक व्यवस्था को चरमरा कर रख दे।

(14) अन्य जाति वालों द्वारा यज्ञ बन्द।

(15) प्रायश्चित प्रक्रिया का बहिष्कार। आदि।

यह सभी नियन्त्रण कलियुग के नाम पर किये गये। उसका एक ही उद्देश्य था - भारतीय जनता को सामर्थ्यहीन बना देना। लोग आपस में ही लड़ने झगड़ने लगे, संगठन शक्ति नष्ट हो गई। अरब, जर्मनी और हालैण्ड तक अपहरण कर भारतीय स्त्रियाँ बाहर ले जाई गईं, पर किसी भी भारतीय का स्वाभिमान जागृत न हुआ। अपहृत स्त्रियों को पाकर विधर्मियों ने अपनी संख्या बढ़ा ली। यहाँ के लोग उस पाखण्ड को समझ न सके जो तथाकथित पण्डितों ने विदेशी शासकों के इशारे पर बनाया था। यह प्रतिबन्ध आचार्य चार्वाक के नास्तिक दर्शन से भी भयंकर थे और उन्हीं का प्रतिफल है कि यह देश अभी तक भी सँभल नहीं पा रहा है।

लाख वर्ष का कलियुग और वर्तमान समय कलियुग का प्रथम चरण ही है यह प्रतिपादन भी इन पण्डितों का ही एक सुनियोजित षड़यंत्र था अन्यथा कलियुग कभी का समाप्त हो चुका। अब तो विदेशी शासन भी नहीं रहा इसलिए कलियुग सम्बन्धी “कलिवर्ज्य प्रकरण” को नष्ट कर दिया जाना चाहिए और उसके स्थान पर शुद्ध वेद विहित संस्कारों एवं आदर्श परम्पराओं को प्रतिष्ठा दी जानी चाहिये।

कलियुग वास्तव में कोई ऐसा युग नहीं है जिसके लिये ऋषियों ने अलग से आचार संहिता निश्चित की हों। यह मास, पक्ष, दिन, तिथि की तरह एक सामान्य काल गणना मात्र है। इसके साथ मनुष्यों के आचार दर्शन की संगति जोड़ने का कोई क्रम नहीं है। बुधवार को चोरी न कि जाय और शुक्रवार को करने में कोई दोष नहीं। इस प्रकार की मान्यतायें उपहासास्पद ही मानी जायेंगी।

5 सितम्बर 1926 में प्रातःकाल की बात है। सुप्रसिद्ध विद्वान एवं ज्योतिषाचार्य ज्योतिर्भूषण श्री गोपीनाथ शास्त्री चुलैट के अन्तःकरण में एक ध्वनि प्रस्फुटित हुई-”देखो मैं धरती पर आ गया हूँ, मुझे दुष्कृत्यों का, पापपूर्ण विचारणाओं का अन्त करके धर्म को प्रतिष्ठा देनी है। कलियुग समाप्त हुआ, सतयुग की ऊषा आ गई। तुम्हारी जैसी पवित्र आत्माओं को अब इस महान् कार्य में जुट जाना चाहिए।”

स्वप्न की बात थी, इसलिये शास्त्री जी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। पर दिन में उन्हें दिवास्वप्न की भाँति फिर वही शब्द सुनाई दिये - ”सतयुग का सूर्य उगना चाहता है। उठो और कलियुग के सम्बन्ध में फैली भ्रामक मान्यताओं को समाप्त करने में हमारी मदद करो। मैं धर्म की स्थापनार्थ जन्म ले चुका हूँ। क्या तुम मेरी मदद नहीं करोगे?” इस बार के शब्द पहले से भी अधिक वेधक थे। श्री शास्त्री जी धार्मिक और साधनाशील व्यक्ति होकर भी ऐसे अन्धश्रद्धालु नहीं थे कि मन में आये हुये किसी भी संकल्प-विकल्प को पागलों की भांति स्वीकार कर लेते। ईश्वर उपासना, योग और साधनाओं से मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण इतने स्वच्छ हो जाते हैं कि ईश्वरीय प्रेरणाओं और दूर भविष्य की अनजानी घटनाओं के दृश्य चलचित्र की भाँति उतरते चले आते हैं। श्री शास्त्री जी इस बात को स्वीकार करते थे, पर वे इस तरह का अहंकार अपने लिये व्यक्त नहीं करना चाहते थे। श्री शास्त्री जी ने सन् 1945 और 1950 के मध्य भारतवर्ष को स्वतन्त्र होने की भविष्यवाणी की थी, वह सच हुई। उन्होंने दस वर्ष पूर्व ही गान्धीजी की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी, वह भी सच निकली थी। उन्होंने बताया था, सन् 1970 में अमरीका का कोई मनुष्य चन्द्रमा की परिक्रमा करेगा। यह भविष्यवाणी उन्होंने कलिवर्ज्य प्रकरणमें “पृथ्वी की प्रदक्षिणा नहीं करनी चाहिए " इसका खंडन करते हुए लिखा था, कि भारतीय विमान आदिकाल से ही पृथ्वी और अन्य ग्रहों की प्रदक्षिणा करते हुये उड़ते और उतरते रहे हैं। यह बात शीघ्र देखने में आयेगी, जबकि 1970 में अमरीका निवासी चन्द्रमा पर उतर जायेंगे। इसलिए हम भारतीयों को भी प्रदक्षिणा विज्ञान की शोध करनी चाहिए। श्री शास्त्री जी की अनेक भविष्यवाणियों में उत्तरी सीमान्त से आक्रमण (चीन का हमला) आदि की भविष्यवाणी भी सच हो चुकी है। उन्हें अपनी अतीन्द्रिय अनुभूति के प्रति विश्वास सा जागृत हुआ, फिर भी वे उस बात को एकाएक मान लेने वाले नहीं थे। उन्होंने उसी समय 5/9/26 के मध्याह्न काल की लग्न कुण्डली बनाई जो इस प्रकार थी-

लग्न तुला उच्च के शनि युक्त थी, पराक्रम के स्थान पर उच्च का केतु, सुख के स्थान में गुरु, सप्तम में स्वगृही मंगल, नवें में उच्च का राहु, कर्म स्थान में स्वगृही चन्द्र और शुक्र के साथ उसकी युति, जो विज्ञान और नये धर्म की प्रतिष्ठा का सूचक होती है, लाभ भाव में बुद्ध और स्वगृही सूर्य का संयुक्तिकरण भारतवर्ष के धन और ऐश्वर्य की वृद्धि के सूचक थे । यह लग्न भगवान कृष्ण, भगवान् राम के जन्म की लग्न के संदर्भ में याद दिलाती थी और यह बोध होता था कि संसार में फिर से धर्म की स्थापना करने वाली शक्ति व अवतार का प्राकट्य हो गया होना चाहिये, भले ही लोग उसे बाद में समझ पायें ।

इस विचार के आते ही उन्होंने सतयुग का प्रचार प्रारम्भ किया । उन्होंने “युग-परिवर्तन” नामक एक पुस्तक लिखी, जो अकोला (महाराष्ट्र) से प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में उन्होंने ज्योतिष-गणना के आधार पर बताया है कि पौष कृष्णा 30 संवत् 1982 से कलियुग का अन्त हो जाता है और अब युग सन्धि चल रही है जिसमें पिछले अज्ञानान्धकार का अन्त और नव युग की लाली बढ़ती जायेगी । यह समय भारतवर्ष के लिये जहाँ तीव्र हलचलों का है, वहाँ इस देश की महान् सफलता, समृद्धि - नैतृत्व का प्रतीक भी है । आने वाले समय में यह देश ज्ञान और विज्ञान दोनों ही दृष्टि से विश्व का सर्वोपरि राष्ट्र होगा ।

युगों की काल गणना को ज्योतिष के जिन गणितीय सिद्धान्तों के आधार पर निकाला गया, उसे देशभर के विद्वानों ने सत्य माना और पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। इस पुस्तक में जहाँ भारतीय समाज के अन्धश्रद्धालु वर्ग में फैली भ्रान्तियों का शास्त्रीय निराकरण किया गया है, वहाँ अन्तिम अनुच्छेद में ज्ञान क्रान्ति के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला गया है। और बताया है - " इस देश में एक जबर्दस्त विचार-क्रान्ति होने वाली है। इस विचार-क्रान्ति के फलस्वरूप:-

(1) शिक्षण पद्धति बदल जायेगी । अभी लोग नौकरी के लिये पढ़ते हैं। कुछ दिन में ही एक ऐसी शिक्षा पद्धति का आविष्कार होगा, जिसमें पढ़े लोगों को नौकरी की नहीं, नौकरों की दरकार होगी।

(2) ईश्वरभक्ति का स्वरूप माला-जप तक सीमित न रहकर समाज के पिछड़े वर्ग की सेवा के रूप में आयेगा।

(3) लोग मोक्ष की नहीं सेवा की कामना करेंगे।

(4) वकील-बैरिस्टरों से लोगों को घृणा होगी और भूगर्भ विद्या, रसायन शास्त्र, यंत्र विद्या, खनिज - धातु, चुम्बक-विद्या आदि के नये क्षेत्रों और विज्ञान का विस्तार होगा, जिसका कि नैतृत्व भारतवर्ष से होगा।

(5) धर्म और आत्म-विज्ञान की आस्था का तीव्र विकास होगा।

(6) बेहिसाब फैली जातियाँ सिमट कर चार वर्णों में ही सीमित हो जायेंगी। जातीय संकीर्णताएँ नष्ट होंगी। उसका प्रभाव खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों पर पड़ेगा।

(7) वेद-ज्ञान का विस्तार सारे विश्व में होगा।

(8) संविधान का आधार मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ होंगी।

(9) विधवा विवाहों को शास्त्र विरुद्ध न माना जायेगा।

(10) लोग संघशक्ति पर विश्वास करेंगे।

(11) मन्दिर बनाने की अपेक्षा भग्न मन्दिरों का निर्माण पुण्यदायक माना जायेगा। मन्दिर जन-जागृति के केन्द्र बनकर काम करेंगे।

(12) परिवारों में स्नेह सद्भाव बढ़ेगा।

(13) भारतीय लोग ऐसे विमान का अनुसन्धान करेंगे जो निर्धूम होंगे। अग्नि, वर्षा, वायु, सूर्य आदि मानवीय इच्छा के अनुरूप काम करेंगे । मृत व्यक्तियों से संपर्क स्थापित करने वाली विद्या का विकास होगा।

(14) स्थान-स्थान पर प्रयोगशालाओं ओर उद्यमशालाओं की स्थापना होगी । "

युग-परिवर्तन इस शताब्दी की एक ऐतिहासिक घटना के रूप में प्रस्तुत हो तो उसे आश्चर्यजनक नहीं माना जाना चाहियें। विचार-क्रान्ति और वह भी एक सुदृढ़ संगठन शक्ति के आधार पर होने की बात विश्व की अनेक उच्च आत्मायें स्वीकार कर चुकी हैं। इस तरह की भविष्यवाणियाँ 'अखण्ड-ज्योति ' में छपी भी हैं, तथापि लोगों का ध्यान इस बात की ओर जाना स्वाभाविक ही है कि एक युग के क्षय और नवयुग के आगमन की सन्ध्या में मार्गदर्शक या अवतार की प्रक्रिया को कौन पूरा करेगा। कल्कि पुराण के आलंकारिक चित्रण को समझा जा सके तो उसमें वह सारे गूढ़ार्थ स्पष्ट है तथापि अनेक भविष्य वक्ताओं तथा योग-आत्माओं ने उस सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है । उन संकेतों के आधार पर पता लगाया जा सकता है कि कहीं कोई ऐसी सत्ता हम सबके समय में ही तो काम नहीं कर रही ? और हम उसे पहचान न पा रहे हों । नीचे दिये जा रहे संकेत सम्भव है, इस संदर्भ में जिज्ञासुओं का कुछ समाधान कर सकें ।

“नया अवतार” के सम्बन्ध में उत्तराखण्ड के सुप्रसिद्ध योगी स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती ने एक पुस्तिका छापकर उसे सारे देश में बाँटा। उसमें बताया गया था - वह एक सुदृढ़ संगठन का स्वामी होगा। परमात्मा से लेकर व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध तक के बारे में वह जो विज्ञान और आचार संहिता बनायेगा, उसे तर्कवादी और शिक्षित लोग भी मानेंगे। फलस्वरूप जो भी व्यक्ति चाहे वह कितना ही तर्कवादी या शिक्षित क्यों न हो, उस व्यक्ति के संपर्क में आयेगा, उसके सिद्धान्तों को मानने लगेगा। फलस्वरूप धर्म के क्षेत्र में शिक्षित व्यक्तियों का व्यापक प्रादुर्भाव बढ़ेगा ।

उन महापुरुष के माथे पर- जहाँ दोनों भौहें मिलती हैं, अँगरेजी के वी के आकार का अर्द्धचन्द्र चिह्न प्रकट होगा। गर्दन और नाभि में भी ऐसे चिह्न होंगे। वह विशुद्ध भारतीय वेष-भूषा में होगा। उसका स्वभाव बालकों जैसा निर्मल, योद्धाओं जैसा साहसी, अश्विनीकुमारों की तरह श्वेत बाल हो जाने पर भी चिर-युवा और शास्त्रों का प्रकाण्ड पण्डित होगा ।

“खण्डेलवाल बन्धु” पत्रिका के दिसम्बर 70 अंक में मोहनस्वामी की भविष्यवाणी का अंश-” वह ब्राह्मण परिवार में जन्म लेगा। वह सारे देश में घूमेगा और लोगों को अपने विचारों से प्रभावित करेगा । 24 अक्षर वाले मंत्र से अपने पिता द्वारा दीक्षित होगा। 24 वर्ष बाद प्रकट होगा । चौबीसवाँ अवतार होगा। 24 अक्षर का उसके जीवन में बहुत महत्व होगा। "

इसी पत्रिका में उत्तर प्रदेश के एक ज्योतिषी, जिनका नाम नहीं दिया गया, की भविष्यवाणी - ”अवतार धोती कुर्ते में नौजवान के रूप में सामने आयेगा । वह यज्ञ करायेगा, ललाट पर चिह्न होंगे, माथे पर चन्द्रमा होगा, महाकाल के रूप में ताण्डव करेगा ।”

पुरातन इतिहास शोध प्रतिष्ठान, मथुरा ने “ प्राचीनतम राष्ट्र इतिहास की लघु रूप-रेखा” नामक एक फोल्डर छापा है। पेज 7 व 8 में सभी मनुओं का काल निर्धारण करते हुये लिखा है - ”पौराणिक साहित्य के अनुसार दक्ष, ब्रह्म, धर्म, रुद्र देव और इन्द्र सावर्णियों के मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं। कल्कि अवतार भी हो चुका है, जिसने बौद्ध प्रभाव को भारत से निरस्त किया था। उसका कल्कि सम्वत् - ज्योतिष गणना में मान्य है। इस समय ब्राह्म रात्रि का तमोमय सन्धिकाल है। "

इस कथन में नवयुग के निर्माणकर्त्ता का परिचय, सूत्र रूप में पिरोया हुआ धर्म को नया जीवन देने वाली सत्ताही इस तमोमय सन्धिकाल की सत्ता-स्वामी और मार्गदर्शक होगी। कई लोग इन तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपने या अपनी इच्छा के व्यक्तियों के साथ घटित करने का प्रयत्न करेंगे। पर सृजन की सत्ता अपने महान् कर्मों के द्वारा आप प्रकट होगी, लोग उसे पहचानते हैं या नहीं, यह अलग बात है पर इतना सत्य है, कि नये युग का जन्मदाता आ चुका, नया प्रकाश अपनी लाली के साथ फूट रहा है। हमें उठना चाहिये और इस युग-सन्ध्या में ईश्वरीय आकाँक्षा का अभिवन्दन करना चाहिये।


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