जीव जंतुओं की विलक्षणतायें-आत्म-चेतना की माया

May 1971

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अफ्रीका के घने जंगलों में एक पौधा पाया जाता है जिससे अनेक जीव जन्तुओं को खाद्य मिलता है। यह पौधा जमीन के अन्दर से उग तो आता है किन्तु धरती से ऊपर आते ही किसी अज्ञात आवश्यकता - आकांक्षा के कारण पौधा आगे बढ़ने से इनकार कर देता है। पौधे का न बढ़ना जीवों के लिए उसी प्रकार कष्टदायक हो सकता है जिस प्रकार अध्यात्म के न रहने से मानव जीवन के भौतिक सुख भी कष्टदायक हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में एक छोटी सी गिलहरी कमाल करती है।

कहते हैं परोपकार की आकांक्षा से एक बार एक गिलहरी ने भगवान् राम को समुद्र पाटने में मदद की थी और समस्त मानव जाति को एक पाठ सिखाया था कि मानवता की रक्षा और दुष्कृत्यों के विनाश में छोटे से छोटे व्यक्ति को भी सहयोगी बनना और जितना बन बड़े उतना ही सहयोग देने से पीछे नहीं हटना चाहिए। इस पौराणिक गाथा को अतिरंजन कहा जा सकता है पर अफ्रीका वाली यह घटना-घटना नहीं यह आश्चर्यजनक सत्य अभी भी होता है। उस पौधे का विकास रुके इसके पूर्व ही गिलहरी कहीं से कुछ बीज इकट्ठा करती है और उस पौधे की जड़ के पास गड्ढा खोदकर उन्हें गाड़ आती है। जिस प्रकार समुचित शिक्षा और संस्कार पाने से छोटे-छोटे बच्चों का बौद्धिक और आत्मिक विकास होने लगता है, उसी प्रकार यह बीज उस पौधे के लिए खाद, पानी हो जाते हैं। और वह पूरे उत्साह के साथ बढ़ने, फलने-फूलने लगता है। गिलहरी जब तक अपना पार्ट अदा नहीं करती तब तक पौधा सूखा सा, प्रेम के अभाव में अविकसित मनुष्य जीवन की तरह ठूँठ खड़ा रहता है।

ईल चिड़िया भोजन और भ्रमण के लिए हजारों मील दूर चली जाती है पर अण्डा देना होता है तब वह अपने जन्म स्थान पर लौट आती है। चिड़िया का मरणकाल आ जाता है तब वह चाहे जहाँ भी हो, जन्म स्थान को लौट पड़ेगी। मृत्यु के लिए वह हर स्थिति में अपने घर ही पहुँचेगी। सालमन पक्षी भी जीवनभर कहीं रहे, मृत्यु के समय वह वहीं आ पहुँचता है जहाँ उसका जन्म होता है मानो वह सारे जीवन यह याद रखता हो कि किन परिस्थितियों के कारण उसे इस योनी में जन्म लेना पड़ा। जन्म पूरी कर लेने के बाद फिर वैसा निकृष्ट जीवन मिले वह अपने मूल स्थान पर लौटकर जीवन दिशा बदल देता है।

मुर्गी बच्चा देती है, 15 मिनट होने के बाद बच्चा अपने दाने-चारे के लिए चल देता है और कोई खतरा देखता है तो अपने आप ही खतरे की सूचक ध्वनि निकालने लगता है, जबकि इससे पहले वह ध्वनि न अपनी माता से सुनी होती है, न पिता से या बन्धु-बान्धवों से। जब बर्र के बच्चे छोटे होते हैं और उसका मरण काल आ धमकता है। घर में छोटे-छोटे बच्चे जो अपना खाद्य नहीं जुटा सकते, उनकी रक्षा का कर्त्तव्यभाव अलग सताता है ; तब भी बर्र आँखफुट्टे (ग्रास हापर्स ) को पकड़ कर टुकड़े-टुकड़े करके रख देती है, स्वयं मरने के लिये चल देती है। पीछे बच्चे वह मांस खा-खा के बड़े हो जाते हैं।

गिलहरी का बीज छुपाना, सालमन और ईल द्वारा अपनी मृत्यु के समय हजारों मील दूर से घर आना, चूजे का वंश परिपाटी के आधार का बिना शिक्षण ज्ञान का होना और मरते दम तक छोटी सी बर्र में कर्त्तव्यपालन की भावना-प्रश्न उठता है कि जीवों में इस तरह गणितीय बुद्धि का रहस्य क्या है ? आज का बुद्धिवादी व्यक्ति, आज का जीव शास्त्री उत्तर देगा कि यह सब प्रकृति की प्रेरणा से होता रहता है। इसे आनुवंशिक संस्कार भी कह सकते हैं ? रहन-सहन के मामले में सम्भव है प्रकृति की प्रेरणा जीव-जन्तुओं के लिये सहायक होती हों किन्तु कुछ ऐसी विलक्षणतायें हैं जो न तो प्रकृति की प्रेरणा हो सकती हैं और न बायोलॉजिकल-प्रतिक्रिया। अंतःप्रेरणा की वह विलक्षणतायें ही जीव मात्र में एक ही चेतना के अस्तित्व का प्रमाण होती हैं और इस बात का भी प्रमाण है कि मनुष्य की बुद्धि जैसे गुण यदि आनुवंशिक कारण हो सकता है तो वह मनुष्य चेतना के अनेक जीव-जन्तुओं की चेतना में परिवर्तन का भी प्रमाण हो सकता है। सीधे-सीधे कह सकते हैं कि मनुष्य चेतना द्वारा कर्मवश अन्य जीवों के शरीर में जाकर जन्म लेने की भारतीय मान्यता कोई अवैज्ञानिक बात नहीं सूक्ष्म सत्य है, जिसे इन उदाहरणों द्वारा समझा, परखा और खोजा जा सकता है कि किस गुण का मनुष्य किस जीव से मिलता होगा। मनोविज्ञान की यह शोध ही जीव-चेतना के सच्चे इतिहास और अस्तित्व की जानकारी दे सकती है।

वह कारण जो कि हमें इस तरह की बात सोचने को विवश करते हैं वह है जीव-जन्तुओं का पूर्वाभास और उनमें विलक्षण मानवीय गुणों का उभार। सन् 1965 की बात है छिन्दवाड़ा मध्य प्रदेश के जिला प्रकाशन अधिकारी दयाकृष्ण विजयवर्गीय प्लेटो क्लब में थे। तब उन्होंने कौवों को एक विशेष ध्वनि करते हुए गोलाकार उड़ते हुये देखा। कौवे क्लब के पास सरकारी बंगले के ऊपर मँडरा रहे थे। कौओं का इस प्रकार उड़ना मृत्यु सूचक माना जाता है। श्री विजयवर्गीय जी ने इस घटना को धर्म युग सितम्बर अंक में छपाते हुए लिखा है-कौवों की इस तरह की उड़ान से मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। कुछ ही दिनों पश्चात् उस सरकारी बँगले में रहने वाले डिप्टी कलेक्टर श्री सावन्त की पत्नी का देहान्त हो गया। इस घटना के दो माह बाद मैंने कौवों को फिर उसी प्रकार अपने मकान के पास उड़ते देखा। इससे फिर मुझे भय उत्पन्न हुआ। इस घटना के दो-तीन दिन पीछे ही पड़ोस में रहने वाले आयकर कार्यालय के चौकीदार की मृत्यु हो गई। ये घटनायें मुझे यह सोचने के लिए विवश करती है क्या सचमुच कौवों को मनुष्य की मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता है ? यदि हाँ तो क्यों?

भारतीय शास्त्रकार आत्मा को आकाश से भी सूक्ष्म तत्त्वमानते हैं। तत्त्व की समीक्षा हो सकती है सम्भवतः इसीकारण वैशेशिक दर्शन में आत्मा को द्रव्य माना गया है। द्रव्य में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखा जाना, अनुभव किया जाना आत्मा के वश की ही बात हो सकती है। इस दृष्टि से कौवे भी ठीक वैसी ही आत्मा हैं जैसी मनुष्य। उन्हें कौवा मानकर घृणा करना आत्म-चेतना का ही अपमान और एक आश्चर्यजनक सत्य से आंखें मूँद लेना है। इससे मनुष्य जाति का अहित होता है। वह जीवनगत संकीर्णता के कारण विश्वव्यापी आत्म-चेतना की अनुभूति नहीं कर पाता।

अमरीका के पश्चिमी द्वीप समूह की राजधानी के पास एक ज्वालामुखी पर्वत है नाम है मौंट पीरी। सन् 1904 की घटना है। इस पर्वतीय क्षेत्र के जीव-जन्तु बहुत घबराये हुये से थे। कुत्ते दिनभर भूँकते, रात में सियार चिल्लाते। कुछ दिन पीछे तो कुत्ते, सियार, अजगर ही नहीं अन्य पशु-पक्षी भी उस क्षेत्र को छोड़कर चले गये। सारा क्षेत्र वीरान नजर आने लगा। उस क्षेत्र को छोड़कर चले गये। सारा क्षेत्र वीरान नजर आने लगा। उस क्षेत्र के निवासी हैरान थे- आखिर इन जीव-जन्तुओं को हो क्या गया है, जो इस तरह पलायन कर रहे हैं। और एक रात ज्वालामुखी फूट पड़ा। अपनी भयंकर ध्वनि और गति के साथ। लगातार कई दिन तक अग्नि वर्षा होती रही और उसने करोड़ों रुपयों की संपत्ति के साथ-साथ लगभग 30 हजार मनुष्यों को भूनकर रख दिया। जबलपुर में हुये सांप्रदायिक दंगे के समय भी कुत्तों ने ऐसी ही चेतावनी हूक-हूक कर दी थी जिसे वहाँ के लोग अब तक भी याद करते हैं।

मनुष्य बड़ा बुद्धिमान जीव है। फिर भी वह नहीं समझ पाता, क्योंकि उसने अपने जीवन से प्रकृति को हटाकर कृत्रिमता को प्रवेश दे दिया है। उसने बैरोमीटर बनाये, गुब्बारे उड़ाये, टेलस्टार उड़ाये तो भी भविष्य में होने वाली घटनाओं का व्यक्तिशः इतना अच्छा पूर्वाभास नहीं कर पाता, जितना कि साधारण और तुच्छ समझे जाने वाले सियार कुत्तों ने, कीट-पतंगों ने जान लिया। आत्मा कर्मवश, वासना और पापवश इन क्षुद्र योनियों में जाती है तो क्या हुआ ! वह अपना द्रव्य-गुण थोड़े ही त्याग सकती है। उसकी अपनी विशेषतायें मनुष्य जीवन में न सही-जीव-जन्तुओं में ही सही, प्रगट हुये बिना रहती नहीं। मनुष्य के लिये तो यह अलभ्य अवसर होता है कि वह अपने सर्वांगपूर्ण शरीर यन्त्र का उपयोग आत्म-विकास में करे, पर उसने तो अपना जीवन इतना भौतिक और बाह्यमुखी बना लिया है कि अन्तःकरण की बात जो उसका यथार्थ सत्य है - जीवन है उसकी बात कभी सोच ही नहीं पाता।

पशु-पक्षियों के विलक्षण स्वभाव प्राकृतिक प्रेरणायें हो सकती हैं, पर उनको पूर्वाभास का, बौद्धिक क्षमता का अस्तित्व प्राकृतिक प्रेरणा न होकर आत्मा के गुणों का ही प्रकटीकरण हो सकता है। उस आत्मा को ही जानने के लिए शास्त्रकार जोर देते हैं। वहीं सर्वव्यापी सर्वज्ञ है उसी को पाने में पूर्णता है। प्रो॰ कर्वी, डा॰ वेलियन्ट तथा डा॰ डी. स्वैस आदि वैज्ञानिकों ने ऐसे अनेक विलक्षण प्रमाण और जानकारियाँ इकट्ठी की है, जो जीव-जन्तुओं की असाधारण क्षमताओं का प्रतिपादन करती है। इन्होंने भी स्वीकार किया है कि जीव-जन्तुओं में मनुष्य के समान ही कोई आश्चर्यजनक सत्य है, जिसे हम नहीं जानते। उन्होंने पशु-पक्षियों के पूर्वाभास की अनेक घटनायें दी हैं। और उन्हें ग्रह-उपग्रहों की यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान का माध्यम माना है।

वैदिक, पौराणिक और लोक साहित्य में जीव-जन्तुओं की विलक्षणताओं के वर्णन से एक ओर आत्मा की सर्वव्यापकता का प्रतिपादन मिलता है तो दूसरी ओर उनकी इन असाधारण क्षमताओं का उपयोग भी हुआ है। पक्षियों की प्रज्ञा के उपयोग के प्रमाण-

  खाटी मोर महातुरी, खाटी होय जु छाछ।

मेहमही पर परन को जाने काछै काछ॥

अर्थात् मोर आतुरतापूर्वक बोलता है तब शीघ्र वर्षा आती है।

ढोकी बोले जाय अकास।

  अब नाहीं बरखा कै आस॥

अर्थात् ढोकी बोलकर आकाश में उड़ जाये तो मानना चाहिये कि अब वर्षा नहीं होगी।

प्राचीनकाल में किसान, वणिक इन जानकारियों से बड़ा लाभ लिया करते थे। तब पशु-पक्षियों से प्रेम मनुष्य जाति के समान ही किया जाता था। फिर यदि जटायु ने अपनी कृतज्ञता जान देकर दर्शायी हो तो आश्चर्य क्या ?

बसन्तराज शाकुनं, घाघ और भड्डरी की कहावतों पशु-पक्षियों की विलक्षण योग्यताओं और पूर्वाभास वर्णन मिलता है। प्रस्थान काल में गाय बछड़े को दूध पिलाती देखना, नेवले का रास्ता काटना शुभ माना गया है। सारस का दाहिने बोलना, शुक का बायें बोलना शुभ लक्षण है। किसी की मृत्यु की सूचना गिद्ध दाहिने बोलकर देता है। रात में घर उल्लू का बोलना मृत्यु का या चोरी आदि अनिष्ट का सूचक होता है। कौवा घर की मुंडेर पर बैठता है तो स्त्रियाँ उसकी ध्वनि पहचानने का प्रयास करती हैं। ' बसन्तराज शाकुनं' में बताया है कि यदि कौवा कर-कर बोलता है तो गृह-कलह, शरीर फुलाकर कँपाकर कर्कश शब्द करता है तो किसी की मृत्यु का, "कुलकुल" ध्वनि अतिथि के आने की सूचना तथा “कूँ कूँ” धन लाभ की सूचक होती है। विस्मय ध्वनियों का नहीं वरन् इस बात का है कि जिस बात को मनुष्य जैसा बुद्धिशील प्राणी नहीं जान पाता, उसे यह पक्षी कैसे जाने लेते हैं। भविष्य का ज्ञान रखने वाले इन जीव-जन्तुओं को तब क्या तुच्छ मानना शोभा देता है। क्या उनसे आत्मा की सर्वव्यापकता का शिक्षण और ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता।



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