धर्मो रक्षति रक्षताः

May 1971

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आचार्य धर्मघोष अपने शिष्यों सहित परिव्रज्या करते हुये आगे बढ़ रहे थे। परिव्राजक जीवन जहाँ लोकसेवा का माध्यम है वहाँ आत्मोन्नति का साधन भी। इसीलिये एक अनिवार्य धर्म कर्तव्य की भाँति प्राचीन काल में उसे जीवन के तृतीयांश के साथ जोड़ दिया गया था। संन्यासी के लिये तो वह अनिवार्य कर्तव्य भी था। आचार्य धर्मघोष उसी धर्माचरण का पालन कर रहे थे। वे गाँव-गाँव धर्म एवं संस्कृति का प्रसार करते हुये आगे बढ़ रहे थे।

तभी आ गया आषाढ़ का पहला दिन। आकाश मेघों से घिर गया, पुरवाई बहने लगी, विद्युत चमकने लगी, मोर कूककर वर्षागमन की सूचना देने लगे। निर्धारित नीति के अनुसार आचार्य को परिव्रज्या त्याग कर चातुर्मास करना चाहिये था। बरसात के चार महीने संन्यासी को यात्रा करना वर्जित है। सो उन्हें भी उसका पालन करना ही चाहिये था।

क्षुद्रमति! गाँव का नायक-जहाँ वे ठहरे हुये थे- आचार्य प्रवर बोले तात! वर्षा आ गई। हम बढ़कर आगे के गाँव भी नहीं जा सकते। चार महीने यहीं विश्राम करना होगा। आपको कुछ कष्ट तो नहीं होगा-हमारी व्यवस्था में।

कष्ट !”“““““क्षुद्रमति बोला-फिर कुछ क्षण चुप रहा वह-उसका सारा जीवन ही संघर्ष से परिपूर्ण था किन्तु कष्ट शब्द उसके कानों में पहली बार पद रहा था।  उसने कहा - आर्य श्रेष्ठ ! आप जैसे सर्वथा त्यागी और तपस्वी के आतिथ्य में कष्ट क्या हो सकता है ?किन्तु एक बात है-कहने में संकोच भी होता है और उसे छुपाया भी नहीं जा सकता। आप नहीं जानते, इस गाँव के सभी लोग दस्यु कर्म करते हैं। दूसरों को लूट कर अपना जीवन चलाना ही हमारा धर्म है। मुझे सन्देह है कि आपके चार माह यहाँ रहने से कहीं बन्धु-बान्धवों की मति न पलट जाये । हम ठहरे दुष्टकर्मा व्यक्ति, आप साधु सन्त। हमारा प्रभाव तो आप पर क्या पड़ेगा आपकी संगति से कहीं हमारे साथियों की बुद्धि न पलट जाये ? “फिर एक क्षण चुप रहकर क्षुद्रमति बोला-किंतु हाँ एक उपाय है यदि आप वचन दें कि चार मास यहाँ रहते हुये आप और चाहे जो कुछ करें ग्रामवासियों को उपदेश न दें। यदि ऐसा कर सकते हों, तो आप इस गाँव में सहर्ष चातुर्मास कर सकते हैं, हमें आपका आतिथ्य स्वीकार है।

धर्मघोष ने विचार किया, नीच साधनों से अर्जित कमाई पर जीवित रहना पड़ेगा। यह ख्याल आते ही वे कुछ चिन्तित हुये, पर धर्म के साधन - शरीर को जिन्दा रखने और धार्मिक मर्यादा का पालन करने के लिये इस शर्त को आपाद्धर्म के रूप में स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त कोई चारा भी तो नहीं था। उन्होंने तरुण सरदार क्षुद्रमति की शर्त स्वीकार करली। धर्म-याजकों से कह दिया गया चातुर्मास की अवधि भर वे किसी को भी उपदेश नहीं करेंगे।

चार मास बीत गये, धर्मघोष ने किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया चातुर्मास समाप्त होते ही साधु-संगत वहाँ से चल पड़ी। ग्रामवासी और स्वयं क्षुद्रमति उन्हें कुछ दूर तक पहुंचाने आये। आचार्य धर्मघोष आंखों में अश्रु भरे चल रहे थे। एक ओर वे विचार कर रहे थे मनुष्य जीवन की अज्ञानता पर-मनुष्य थोड़े समय के लिये धरती पर आता है। जानते हुए कि यह शरीर कुछ ही दिन का मेहमान है। दुष्कर्म करता है- दूसरी ओर उनकी कर्तव्य भावना कचोटती थी - तुमने चार मास तुच्छ ही सही पर इनके परिश्रम और जीवन संकट में डालकर कमाये द्रव्य से अपनी जीवन रक्षा की है, सो बदले में उनका कुछ उपकार तो करना ही चाहिए।

गाँव की सीमा ऐसे ही विचार करते पार हो गई- धर्मघोष रुके- क्षुद्रमति ने उनके पुण्य चरणों में प्रणिपात कर क्षमायाचना करते हुए-- भगवन् ! हमसे जो भूलें हुई हों, क्षमा करना। कभी इधर आना हो तो फिर सेवा का अवसर देना। आचार्य धर्मघोष की आंखें छलक उठीं। उन्होंने स्नेहपूर्वक क्षुद्रमति को हृदय से लगाते हुए और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-तात् ! तुम्हारी सेवा से जितना हम प्रसन्न हैं, उतना ही इस बात के लिए दुःखी कि आप लोगों के अन्न पर चार मास बिताये, उसका कुछ भी ऋण चुकाये बिना जा रहे हैं। हमारे पास धर्म - शिक्षा के अतिरिक्त और है भी क्या ? अब तो चातुर्मास बीत चुका है, अब हम आपके गांव की सीमा से बाहर भी है। आप कहें तो एक उपदेश चलते समय देते जायें-थोड़े समय में अधिक कहा भी क्या जा सकता है ?

क्षुद्रमति ने एकबार साथियों की ओर दृष्टि डाली दूसरे क्षण कहा--महामहिम आप एक उपदेश दें- हम उसका जीवन भर पालन करेंगे।

ठीक है अबुस ! आचार्य धर्मघोष बोले- आज से तुम लोग व्रत लो सूर्यास्त के बाद कभी कुछ खाना मत- रात्रि के समय भोजन को हिंसा कहा गया है। उससे कई बार विषैले कीटाणु पेट में चले जाते और हानि पहुंचाते हैं। इसलिये विज्ञजनों ने रात्रि में भोजन ग्रहण करना वर्जित किया है।

क्षुद्रमति और उसके साथियों ने आचार्य प्रवर का उपदेश स्वीकार कर लिया। साधुगण आगे बढ़ गये और क्षुद्रमति साथियों सहित बस्ती वापस लौट आया। कुछ दिन ऐसे ही बीते। ग्रामवासियों ने सूर्यास्त से पूर्व ही भोजन करने का नियम बना लिया। फिर एक दिन दस्यु-कर्म की योजना बनाई गई। क्षुद्रमति अपने साथियों को लेकर प्रातःकाल से ही निकल गया। निकटवर्ती राज्य के एक गाँव में डकैती डाली उन्होंने। बहुत सा धन लेकर वे रातों रात लौट पड़े। कुछ दूर बाहर आकर थके हारे दल ने भोजन और विश्राम की व्यवस्था की। दो दस्यु सामग्री जुटाने के लिए भेजे गये। उन दोनों के मन में पाप आ गया। उन्होंने मदिरा खरीदी, उसमें विष मिला दिया ; और सारी सामग्री लेकर आ पहुंचे। दूसरे दस्यु जब सुरापान करने लगे। क्षुद्रमति ने प्याला भरा हाथ में लिया, भोजन पर दृष्टि डाली, तभी उसे याद आ गया वह वचन जो उसने आचार्य धर्मघोष  को दिया था। पापमति दस्युगणों ने धर्म-अधर्म का कुछ भी विचार किये बिना भोजन और सुरापान प्रारम्भ कर दिया। विष के प्रभाव से एक-एक कर दस्युगण मृत्यु के मुख में जाने लगे। क्षुद्रमति के सामने सारी स्थिति स्पष्ट हो गई। एक ओर उसे आचार्य के उपदेश से जीवन रक्षा की याद आ रही थी, दूसरी ओर उसे अपने ही स्वजनों की इस पाप बुद्धि और दुर्गति पर पश्चात्ताप हो रहा था

क्षुद्रमति का अन्तःकरण हाहाकार कर उठा- लोभ-पाप अन्ततः पतन ही करता है, धर्म की एक चिनगारीरक्षा ही करती है। फिर क्यों न धर्म का आश्रय लिया जाये। ऐसा पवित्र और महान् जीवन क्यों व्यर्थ गँवाया जाये।

क्षुद्रमति की बुद्धि पलट गई। उसने दस्युकर्म छोड़ दिया। गाँव में रहकर कृषि करने लगा- परिश्रम से कमाकर खाने लगा। उसके जीवन में आई धर्म की एक किरण सुख-शान्ति के प्रकाश पुंज की भाँति जीवन में छा गई। उसके साथ सारे ग्रामवासियों का भी जीवन धन्य हो गया।



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