पराजित मृत्यु-अपराजित आकाशज

May 1971

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यमराज के सम्मुख हाथ जोड़े खड़ी मृत्यु ने विनय की-भगवन् ! ऐसा तो हुआ है कि कोई व्यक्ति आजीवन संयमशील रहा हो, कभी परिश्रम से जी न चुराया हो, अभक्ष्य न खाया हो और शुद्ध सात्विक वातावरण में रहा हो ; फलस्वरूप उसने दीर्घजीवन पा लिया हो पर अन्ततः उसे भी मेरे ही चंगुल में आना पड़ा । जिस घर में मेरा पैर न पड़ा हो ऐसा कोई घर नहीं किन्तु उस आकाशज ने तो मुझे हैरान कर दिया । वह मरता ही नहीं, मैंने कोटि उपाय कर लिये ।

यमराज हँसे और बोले-देवी ! हमारा वश तो स्थूल शरीरों तक है, कामनाग्रस्त जीव अपनी किसी इन्द्रिय की लिप्सा से प्रेरित होकर जीव-तन धारण करता है । उसकी वह कामना शरीर पाकर और भी उग्र होती है । इन्द्रिय सुख से तृप्ति नहीं होती, जितना भोगो - भोग की इच्छा उतनी ही बढ़ती है, और भोग भोगने के लिये जीवन-शक्ति नष्ट करनी पड़ती है । जीवन-शक्ति जहाँ नष्ट होती है वहीं अपना अस्त्र चलता है देवी ! आकाशज में कोई इच्छा नहीं, वह कामना-रहित है इसलिये उसे स्थूल शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वह अपने सूक्ष्म शरीर से ही द्रष्टा बना घूमता है । उसे मार सकना तब तक सम्भव नहीं जब तक उसकी वासना का पता न चले। पहले तुम जाकर उसकी इच्छा का पता लगाओ ।

मृत्यु देवलोक से धरती पर आई और गुप्त रूप से आकाशज के साथ रहने लगी । मनुष्य जब कामना-रहित होता है तो उसकी बुद्धि साफ रहती है वह सभी दिशाओं को देख सकता है, सुन सकता है, सोच सकता है । मृत्यु चाहती थी छिपकर रहना किन्तु तत्त्वदर्शी आकाशज से वह छिप नहीं सकी । आकाशज ने अच्छी तरह जान लिया कि मृत्यु साथ लगी है, कोई भी दाँव लगा सकती है; किन्तु उसे किसी प्रकार की इच्छा थी नहीं जो मृत्यु से भय खाता। इसलिये वह पूर्ण निर्द्वंद्व रहा और मृत्यु देवी की प्रेरणा से खेल समझकर खेलता रहा ।

मृत्यु ने उसे प्रेरित किया - अब वे काशीराज के राजोद्यान में उपस्थित थे । आकाशज ने देखा वहाँ भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे पुष्प खिल रहे हैं, पक्षी गुंजन कर रहे हैं, तितलियाँ एक फूल से दूसरे फूल की ओर दौड़ी चली जा रही है कलियों की सुवास से संपूर्ण वातावरण मादक हो उठा है । राजकुमारी उस मधुरिमा सौंदर्य का पान करती हुई सरोवर तक आती हैं और प्रातः स्नान के लिये निर्वसन हो जाती हैं। मृत्यु ने आकाशज को प्रेरित किया-देख राजकुमारी के अंग-प्रत्यंग से काम टपक रहा है। ऐसी सजीव सौंदर्य-श्री क्या तूने कहीं अन्यत्र देखी है ? वैराग्य भाव त्यागकर इस सुन्दरी को वरण कर ।

आकाशज ने मृत्यु की ओर देखा और हँसकर बोला- भन्ते ! स्त्री के गरे में यही राजकुमारी जब पिण्ड रूप से फँसी थी तब मैंने इसके दोनों रूप देखें थ--एक स्थूल शरीर दूसरा सूक्ष्म । यह जो सौंदर्य है वह हाड़ माँस के शरीर का है। इसे भोगकर कौन सन्तुष्ट हुआ है ! मैं अपने सूक्ष्म शरीर को जानता हूँ। वही सत्य है, वही नित्य और वही अमर सुख देने वाला है। मैं इस राजकुमारी की भी कामना नहीं करता । यदि करूँ तो फिर मुझे भी ऐसा ही शरीर धारण करना पड़ेगा। जब तक मैं इस सुन्दरी का आलिंगन करने योग्य होऊँगा, यह वृद्ध हो जायेगी। फिर इसमें कोई आकर्षण न रहेगा। इसलिए मैं किसी इच्छा से बँधना नहीं चाहता ।

मृत्यु यह सुनकर अवाक् रह गई । यमराज के पास लौट आई ओर बोली-आपने सच ही कहा था देव ! जो निष्काम होते हैं, उन्हें तो मैं भी नहीं जीत सकती ।



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