लघु कहानी - स्वर्ग और नरक का अस्तित्व

May 1971

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स्वर्ग और नरक का अस्तित्व

जापान के सन्त हाकुइन के पास एक योद्धा स्वर्ग और नरक के अस्तित्व के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा से गया । सन्त ने ऊपर से नीचे तक बड़े ध्यान से उसे देखा, पास में बिठाया और पूछा तुम कौन सा व्यवसाय करते हो ?’

‘मैं शस्त्र जीवी हूँ ।’

‘तुम्हारी शक्ल तो भिखारियों जैसी लगती है । मुझे आश्चर्य है कि किस मूर्ख राजा ने तुम्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया ।’

उस योद्धा को सन्त की बात सहन न हुई, क्रोध के कारण उसका चेहरा तमतमा उठा, उसका हाथ तलवार की मूठ पर गया । सन्त की दृष्टि उस तलवार पर गई तो उन्होंने अपनी बात शुरू करते हुए पुनः कहा ‘अच्छा तो तुम्हारे पास तलवार भी है । अरे इससे तुम मेरा सिर काटना चाहते हो पर मेरी समझ में इससे पेंसिल भी काटना कठिन है ।’

अब तो उस योद्धा का पारा चढ़ गया उसे सन्त की बातें सहन न हो सकीं, सन्त और कुछ कहते तब तक तलवार म्यान से बाहर आ चुकी थी । उस योद्धा ने सन्त के मुँह से सुना ‘वीरवर ! यह नरक का द्वार खुल गया ।’ और उस योद्धा ने सन्त की बात सुनकर तलवार म्यान में रखली, और अपनी भूल को सिर नवाकर स्वीकार किया ।

तब सन्त ने कहा ‘अब यदि तुम स्वर्ग के दर्शन करना चाहते हो तो वह भी कर सकते हो । काम, क्रोध, लोभ, मोह, दम्भ और हिंसा नरक के द्वार है और प्रेम, दया, शांति, सन्तोष, क्षमा और संयम आदि सद्गुण ईश्वर प्राप्ति के साधन हैं ।


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