ईश्वर का प्रतिबिंब प्रेम है, प्रेम हृदय आलोक

May 1971

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एक आदमी ने सूफी सन्त खुसरो के समीप जाकर पूछा- "आपको रात में नींद भी आती है, अथवा रात में भी ईश्वर की याद में रोया करते हैं " ? खुसरो ने उत्तर दिया-

        मन कुजा खुसपम् कि अज फरयादे मन ।

      शब  न  मीखुसपद्  कसे  दर  कूए  तो ॥

ऐ भाई ! मुझे नींद कहाँ आती है, स्थिति तो यह है कि मेरे रोने से पड़ोसी भी नहीं सो पाते ।

प्रेम-मानवीय गुणों का, भक्ति का वह स्वरूप है जो सांसारिकता हो या आध्यात्मिकता दोनों के लिए इतनी शक्ति, उष्णता और क्रियाशीलता प्रदान करता है, जितनी अन्य कोई भी भावना पैदा नहीं कर पाती । सच पूछा जाय तो-

गर न हुई दिल में मए इश्क की मस्ती ।

  फिर क्या दुनियादारी क्या खुदापरस्ती ॥

अर्थात्-यदि अन्तःकरण में प्रेम न हो तो न तो सांसारिकता में कुछ मजा आता है और न ही ईश्वर की भक्ति में । प्रेम ही वस्तुतः इस लोक-संचालन व व्यवस्था का मूलाधार है । प्रेम ही वह तत्व है जिसका विकास हुये बिना मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता ।

ऐसा जानने से पहले प्रेम की पहचान आवश्यक है। प्रेम एक अनादि तत्व है, दर्शन है । भौतिक सुखों की आकाङ्क्षा का नाम प्रेम नहीं है, रूप-सौंदर्य पर दीवानगी का नाम भी प्रेम नहीं है । प्रेम कर्तव्य और आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा का नाम है । एक बार शायर बलदेव के पास एक युवक ने जाकर कहा - श्रीमान् मुझे अमुक युवती से प्रेम है। मैं चाहता हूँ कि वह हर-क्षण मेरे पास रहे, और कहीं ना जाये। इस पर बलदेव ने उत्तर दिया-

  हुस्न पर  मुश्ताक होना हर  किसी को  पसन्द है ।

  ‘बल्देव’ सादिक यार पर दिलोजाँ निसारी और है ॥

अरे मित्र ! सौंदर्य पर न्योछावर होना कोई बड़ी बात नहीं, यह तो हर कोई कर सकता है। अच्छी वस्तु किसे नहीं लुभाती पर श्रेष्ठ वस्तु की आकाङ्क्षा तो वही सार्थक है जो उस पर अपना हृदय, अपना प्राण भी निसार कर सकता हो । हृदय और प्राण दिये जाने का अर्थ अपनी क्षमताओं का औरों के उत्थान में प्रयोग करना है । सच्चे प्रेम का अर्थ है हमारे पास जो भी ज्ञान, वैभव और विभूतियाँ हैं उनसे अपने प्रेमास्पद की इच्छाओं, आकाङ्क्षाओं और वृत्तियों का विकास किया जाये, उसे यशस्वी बनाया जाये । ऐसे प्रेम में पाना कम, खोना ही अधिक है ।

प्रेम ‘रस’ है, उसे ढककर रखा जाता है । दिखावट-उसे खोलकर रखना है, जो विकृति उत्पन्न करता है । सांसारिक प्रेम अपने प्रियास्पद के प्रति कर्तव्य और आत्मोन्नति के रूप में स्वतः व्यक्त होता है। इसी प्रकार ईश्वरीय प्रेम लोक-सेवा, दया, क्षमा, करुणा, उदारता आदि दैवी गुणों में स्वतः अभिव्यक्त होता है।  ससाराभिमुख प्रेम को न तो चिल्लाकर व्यक्त करना आवश्यक है और न ही भक्ति प्रेम का बखान-

जिन्हें है इश्क सादिक से कहाँ फर्याद करते हैं ।

लबों पर मुहरे खामोशी दिलों से याद करते हैं ॥

जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे अपना प्रेम दिखाते नहीं फिरते, उनका मुँह बन्द और दिल याद करता रहता है ।

वस्तुतः प्रेम एक शक्ति है। यदि उसे बाँधकर न रखा जाये तो वह जीवन का बहुमुखी विकास कर सकने की अपेक्षा इधर-उधर बिखर कर नष्ट ही हो जाती है । ईंधन इंजन के भीतर जलाया जाता है तो वह ऐसी शक्ति देता है, ताकत देता है जिससे कि वह शक्ति उस इंजन और इंजन के साथ जुड़े हुये हजारों डिब्बों और यात्रियों को खींचकर गन्तव्य तक पहुँचा देता है । वही ईंधन, वही आग पटरी से बाहर बिखरी होती तो वहाँ न कोई गति होती न प्रगति । भौतिक प्रगति का पथ हो अथवा आत्मोन्नति का, ईश्वर दर्शन का मार्ग प्रेम को भीतर ही छिपाकर रखा जाता है ।

हृदय में जगाया प्रेम नष्ट नहीं होता निरर्थक नहीं जाता । वह प्रेम यदि भौतिक है तो अन्तः वृत्तियों को विकसित कर जीवन में क्रियाशीलता, स्वावलम्बन, कला निपुणता, अनुशासन और कर्त्तव्य परायणता के भाव पैदा करता है। अपनी पत्नी से प्रेम करके कोई उसके पास बैठा नहीं रहता, वह जानता है बैठना तो किसी भी क्षण के लिये सम्भव है; फिर बैठना तो जीवन की इतिश्री, आह्लाद और उल्लास को खो देना है। वह अपनी पत्नी को सजाने सँवारने की आवश्यकता अनुभव करता है। इसके लिए उसे कर्म करने की आवश्यकता पड़ती है, वह स्वयं क्रियाशील होता है, विकास की नई विधायें खोजता है और अपने आपको सांसारिक द्वेष, आकर्षणों से बचाकर भी रखता है, क्योंकि उसका लक्ष्य तो उसके पास है भटकने की उसे कहाँ फुरसत ।

इसी प्रकार परमात्मा का प्यार मानसिक शक्तियों को--बुद्धि को सूक्ष्म बनाता है, प्रज्ञाचक्षु ईश्वर के भक्त ही होते हैं। आत्म-परायण व्यक्ति तीन काल की बातें जान लेने जितना पवित्र हो जाता है । काव्य-सृजन की क्षमता, दूरदर्शिता, वाक् सिद्धि, भाव विह्वलता यह सब ईश्वरीय प्रेम की ही किरणें हैं। ईश्वरीय प्रेम से अन्तः सामर्थ्यों का विकास ध्रुव सत्य है । ऐसे प्रेमी के लिए प्रियतम तो अपने आप न्योछावर होता है-

    कबीर मन निर्मल भया जैसे गङ्गा नीर ।

      पीछे-पीछे हरि फिरत कहत कबीर-कबीर ॥


   साँवलिया मैंने चाकर राखो सी ।   (मीरा)

प्रेमी की चाह तो एक ही होती है--प्रेमी की याद न भूल जाये। उसे तो प्रेमी के प्रेम के अतिरिक्त और किसी वस्तु की इच्छा क्यों होने लगी ?

दिल देके लिया करते हैं सौदा यही उश्शाक ।

सौदाई   कभी   दूसरा   सौदा   नहीं   करते ॥

अन्तःकरण का प्रेम, प्रेम से ही सन्तुष्ट होता है, प्रेम की अपनी मस्ती ही क्या कम सुखद है जो उसके आगे किसी और सुख की आकाङ्क्षा की जाये। एक दूसरे के लिये निरन्तर जलने से रयि-प्राण के मिलन जैसा आनन्द मिलता है । प्रत्यक्ष देखने में विरह की जलन और दर्द के अतिरिक्त कुछ नहीं दीखता पर-

मिली  वह दर्द में लज्जत कि जखमैदिल पै गर कोई

छिड़कता  है  नमक  तो हम उसे  मरहम समझते हैं

वस्ल  में  हिज्र  का  गम, हिज्र में मिलने  की खुशी ।

कौन  कहता   है   जुदाई   से  बिसाल   अच्छा   है

विरह का, प्रेम के दर्द का अपना रस है, अपनी अनुभूति है। उसमें तो दूसरों के द्वारा दिया दुःख भी अच्छा लगता है । मिलना बिछुड़ना दोनों में एक-सा सुख यही प्रेम की विशेषता है । परमात्मा दो विपरीत शक्तियों की एकीभूत सत्ता ही तो है, इसीलिए तो कहते हैं जहाँ प्रेम है वहाँ परमात्मा है । प्रेम हृदय का प्रकाश है । ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रेम ही है ।



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