आर्जूये दीदे जानाँ बज्म में लाई मुझे

May 1971

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“जीव को अपनी वासना प्यारी लगती है” रामकृष्ण परमहंस बोल रहे थे-अपनी बात समझाते हुये उन्होंने एक कहानी कही-बंगाल के एक गाँव की एक स्त्री मछली बेचने बाजार गई । लौटते समय रास्ते में आँधी और तेज बरसात होने लगी । मछली वाली के साथ एक मालिन भी थी मालिन का घर पास था । उसने मछली वाली को घर में टिका लिया । उसे भोजन कराया और बरामदे में जहाँ सुगन्धित फूल रहते थे सुलाकर आप भी सोने चली गई ।

मछली वाली को फूलों की गन्ध बड़ी अप्रिय लग रही थी, उसके मारे नींद नहीं आ रही थी । तब उसको एक उपाय सूझा अपनी मछलियाँ ढोने वाली टोकरी ली उसने और उसमें थोड़ा पानी छिड़का, पानी छिड़कने से मछलियों की बदबू उभर आई । टोकरी को सिरहाने रख लिया नींद आ गई मछली वाली ने चैन से रात काटली ।

मनुष्य के मन में भरी विषय वासनाओं का स्वरूप कुछ ऐसा ही है । जीवन पर्यन्त वह अपनी वासनाओं की पूर्ति में ही संलग्न रहता है और मरता है तब भी यह वासनायें ही उसे पुनर्जन्म के घेरे में उसी प्रकार खींच ले जाती है जिस प्रकार गोबर की गन्ध गुबरैले को ? पुनर्जन्म और कुछ नहीं अपनी वासनाओं की पूर्ति का नया प्रयास ही होता है । पुनर्जन्म के बहुत से प्रमाण इस बात की पुष्टि करते हैं । अक्टूबर 1946 में जबलपुर से 18 मील दूर ग्राम कालादेही के शिव मन्दिर के पुजारी श्री कन्हैया लाल जी चौबे के घर एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया दामोदर प्रसाद । बालक 6 वर्ष का हुआ तभी से वह रामायण, गीता, वाल्मीकि रामायण, भोज प्रबन्ध, भर्तृहरिशतक आदि आर्ष ग्रन्थों के श्लोक और उनके अर्थ उच्चारण करने लगा । बालक को विद्यालय में प्रवेश कराया गया तो उसकी इस विलक्षण योग्यता से अध्यापक बहुत प्रभावित हुये । उन्होंने पूछा-उसे यह ज्ञान किस तरह प्राप्त हुआ ? इसका वह कुछ उत्तर नहीं दे पाया पर लड़का हमेशा हरिद्वार जाकर पढ़ने का आग्रह करता और कहता कि उसने वहाँ से ही पढ़ाई छोड़ी । 16 सितम्बर 1952 के “केलोडर” अखबार में जो इलाहाबाद से छपता था यह घटना प्रकाशित हुई और उसे पुनर्जन्म की घटना बताते हुये लिखा कि बच्चे की पढ़ने की अतृप्त इच्छा ही इस जन्म में उसका जीवन उद्देश्य बन गई है ।

28 वर्ष पूर्व प्रकाशित पुस्तक पूर्व-जन्म स्मृति में एक दिलचस्प घटना श्री कैकई नन्दन सहाय की छपी है और बताया है कि उनके चचेरे भाई श्री नन्दन सहाय बी.ए. को 1906 में हैजा हो गया उस समय उनकी आयु 16 वर्ष की थी । मृत्यु के बाद से ही पत्नी को 2 मास का गर्भ था । पति की मृत्यु के बाद से ही पत्नी खराब-खराब स्वप्न आने शुरू हुये । एक दिन उन्होंने स्वप्न में अपने मृत-पति को देखा । वह कह रहे थे- मैं तुम्हारे ही पास रहूँगा (मृत्यु के समय वे पत्नी-वियोग से बहुत दुःखी थे ) तुम्हारे ही पेट से जन्म लूँगा लेकिन तुम्हारा दूध नहीं पिऊंगा । मेरे लिये दूध का अलग से प्रबंध रखना । मेरी बात की सत्यता यह होगी कि जन्म से ही मेरे सिर पर चोट का निशान होगा ।”

कुछ दिन बाद पुत्र जन्मा तो घर वाले कौतूहल में रह गये कि वह लड़का आकृति में हूबहू अपने पिता जैसा ही था । हमशक्ल होना आनुवंशिक कारणों से हो सकता है किन्तु सिर में चोट का निशान इस बात का प्रतीक था कि बच्चा निरा आनुवंशिक ही न होकर स्वप्न का सत्य भी था। उसमें अपनी ही चेतना लौटी थी। बच्चा छोटे से ही पत्नी (वर्त्तमान में माँ ) का दूध नहीं पीता था अतएव उसके लिये एक धाय रखी गई । वही उसे दूध पिलाती थी । लड़का किसी और स्त्री के स्तनों से तो दूध पी लेता था किन्तु कोई उसकी स्त्री (वर्तमान में माँ) के स्तनों का दूध निकालकर चम्मच से भी पिलाता तो वह नहीं पीता था, मुँह से उगल देता था । बच्चे की वासना पत्नी में थी सो उसने उसी के गर्भ से जन्म लेना स्वीकारा, पर उससे अलग रहना नहीं ।

अपनी पुस्तक “रिइन्कार्नेशन” में विलियम वाकर एटकेन्सन ने ऐसी बहुत सी घटनायें दी हैं, जो पुनर्जन्म के साथ-साथ जीव की इच्छा-शक्ति की प्रबलता को भी प्रमाणित करती है । पर यह सारी घटनायें मनुष्यों से सम्बन्धित होने पर उनसे पुनर्जन्म में इच्छाओं के एक पक्षीय महत्त्व का प्रकाश पड़ता है । 15 दिसम्बर 1963 को धर्मयुग में छपे “सत्या जैन” के एक संस्मरण से जीव की वासना और प्रेम के पहलू पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है । सत्या जैन ' आखिर वह रहस्य क्या था ' शीर्षक से लिखती है-

मेरी माँ के पुत्र पैदा हुआ । बच्चा देखने में बहुत स्वस्थ और सुन्दर था । जिस दिन बच्चे का जन्म हुआ उसी दिन घर में कहीं से चिड़ियों का एक जोड़ा आ पहुँचा और उसी कमरे की कड़ियों में आ बैठा जिसमें माँ और सद्यः प्रसूत बच्चा था । कौतुकवश रात में हम लोगों ने उन चिड़ियों को उड़ाने का बहुत प्रयत्न किया पर वे उड़ी नहीं, बैठी ही रहीं । माँ ने मना कर दिया ; कहा - बैठी रहने दो तुम्हारा क्या लेती है । दिन में पक्षियों का जोड़ा उड़ गया और दिनभर दिखाई नहीं दिया किन्तु रात होने को थी तभी दोनों फिर उसी कड़ी पर आ बैठे । यह स्थान जहाँ बच्चा लेटा था ठीक उसके ऊपर था । इसलिये मुझे आशंका थी कहीं यह बच्चे के ऊपर बीट न कर दें, इसलिये डंडे से डराकर उन्हें भगा दिया और रोशनदान बन्द कर दिया । हम लोग अभी एक ही नींद सोये थे कि वह चिड़ियों का जोड़ा न जाने कैसे दरवाजे से होकर अन्दर आ गया । नींद टूटी तब उसी कड़ी पर बैठा मिला । उसी समय उन्हें बाहर भगाने वाले थे पर माँ ने फिर मना कर दिया । यह क्रम कई दिन तक चलता रहा । एक दिन एकाएक बच्चे की तबियत खराब हो गई । डाक्टरों ने दवा दी, इन्जेक्शन लगाये। कई दिन की बीमारी के बाद बच्चा कुछ स्वस्थ सा लगा। दवा पीकर बच्चा सो गया । सबने सोचा अब ठीक है हम भी सो गये। कृष्णपक्ष की सुनसान रात थी । बच्चा एकदम रोया सब लोग जाग पड़े । उस समय भी दोनों पक्षी रोशनदान की कड़ी पर बैठे थे अलबत्ता रोशनदान बन्द था । बच्चे की तबियत एकाएक बिगड़ती चली गई । थोड़ी ही देर में उसने दम तोड़ दिया । इधर सब लोग रो-पीट रहे थे उधर पक्षियों का जोड़ा-जो कभी भगाये नहीं भागता था, रोशनदान के शीशे को धकेलकर उस अँधेरी रात में न जाने कहाँ विलीन हो गया । बच्चा नहीं रहा। उस दिन के बाद से फिर वे पक्षी भी कभी दिखाई नहीं दिये । टोले मुहल्ले के जान-अनजान सबने इस घटना को सुन कोई कहता है पक्षी-बच्चे के मित्र थे, उसके साथ रहने आये थे । कोई-कोई कहता है वह बच्चे के पूर्व के माता-पिता थे । पक्षी होकर भी बच्चे के प्रति स्नेह आकर्षण बना रहा और वे अपनी उस वासना के फलस्वरूप ही कड़ी में आकर बैठते। कोई-कोई उन्हें भूत कहते। सत्य तो भगवान् ही जानते होंगे पर पक्षियों हठपूर्वक बच्चे के पास रहना, उसके आने के समय आना और मृत्यु के समय ही भाग जाना एक रहस्य है जो बताता है कि जीव चेतना जिस अवस्था में है उससे भी बहुत पहले की अपनी इच्छाओं-वासनाओं से जुड़ी हुई अवश्य है। इसी बात को योगवासिष्ठ कहता है-

वासनामात्र सारत्वादज्ञस्य सफलाः क्रियाः ।

                         सर्वा एवा फला ज्ञस्य वासनामात्र संक्षयात् ॥       -  ६/१/८७/१८

अर्थात् -अपनी वासनाओं में बँधे अज्ञानीजन कर्मों के फल भुगतते रहते हैं । किसी उर्दू शायर ने इसी बात को यों कहा है-

आर्जूये दीदे जानाँ बज्म में लाई मुझे ।

   आर्जूये दीदे जानाँ बज्म से भी ले चली ॥

अर्थात्-इच्छायें और अभिलाषायें इस संसार में लायी थीं वही मुझे इस संसार से ले भी जाती हैं ।

जब तक मनुष्य इच्छाओं का दास है बन्धनमुक्त नहीं हो सकता-

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदिश्रिताः ।

                     अथ मर्त्योंऽभृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥     -कठोपनिषद्

अर्थात्’-हृदय की कामनायें और वासनायें नष्ट होती हैं तभी जीव अमृतत्व और ब्रह्मत्व प्राप्त करता है ।’ सारांश यह है कि हम इच्छायें त्यागे बिना आध्यात्मिक सत्यों का अनुभव नहीं कर सकते । इच्छायें करें तो वह निष्काम और लोक सेवा की करें जिससे कर्तव्यपालन का श्रेय भी मिले और कर्म-बन्धन में भी न बंधे ।

सुप्रसिद्ध दार्शनिक एफ.एच. विलिस ने भारतीय धर्म के आत्मा के विकास सिद्धान्त को पूरी तरह माना है और लिखा है कि कई बार एक जन्म के छोड़े हुये अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिये श्रेष्ठ आत्मायें दुबारा जन्म लेती हैं। उनके पहले के किये हुये कार्यों और अगले जन्म के विचार और चिन्तन में अद्भुत साम्य इस बात का प्रमाण होता है । श्री विलिस ने ऐसे अनेकों जोड़े ढूंढ़े थे और उनके द्वारा इस दर्शन की पुष्टि की थी। इनका कहना है कि ईसा मसीह जो काम शेष छोड़ गये थे उन्हें उन्होंने दुबारा अपोलोनियस आफ टियाना के रूप में जन्म लेकर पूरा किया । ग्लैडस्टोन पहले जन्म में सिसरो था, श्रीमति बीसेन्ट पहले ब्रनो थी । शौपनिहार के विचार बौद्धमत से इतने मिलते हैं कि उसे बुद्ध ही कहा जा सकता है ।

इसी प्रकार फिश्टे, काँट और हैगल को भी भारतीय आत्मायें कहा जा सकता है । और तो और स्वयं भगवान् को भी 24 अवतार लेने पड़ते हैं और हर बार अपनी सृष्टि व्यवस्था का काम सँभालना पड़ता है। इस तरह पुनर्जन्म का कारण जहाँ निम्न आत्माओं में वासनायें और इच्छायें होती हैं वहाँ श्रेष्ठ आत्माओं में महान् कार्यों के संकल्प सम्भव हैं। हममें भी अनेक आत्मायें ऐसी ही हों जो महान् संकल्प लेकर धरती में आई हों, पर विषय-वासनाओं की शीत लहर में अपने संकल्प की तेजस्विता भूल बैठी हों - आत्म-मनन द्वारा हमें उन संकल्पों की याद करनी चाहिये और मनुष्य-जीवन के महान् सदुपयोग का लाभ लेना चाहिये ।



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