अपराध यदि व्यक्त है, किसी की चोरी की गई, किसी की हत्या हुई, मिलावट के अपराध में पकड़ा गया, रिश्वत में मिले नोटों में किसी अधिकारी के हस्ताक्षर थे उसने आकर पकड़ लिया ; ऐसे अपराधी जेल भेज दिये जाते हैं। किसी-किसी को शारीरिक दंड देकर छोड़ दिया जाता है और मान लिया जाता है कि उससे अपराधी का दोष परिमार्जन हो गया।
भारतीय मान्यतायें इससे भिन्न हैं। शाश्वत जीवन की कल्पना और कर्म-अकर्म के फल भोग के लिये बार-बार जीव-शरीरों में आने वाली अमर चेतना यदि स्वतः अपने पापों का - अपराधों का परिष्कार नहीं कर लेती तो वह निरन्तर अधोगति की ओर अग्रसर होती चली जाती है और नरक के - पतन के गड्ढे में जा गिरती है। कूकर, शुकर योनियों में जन्म, सर्प और भेड़िये के शरीर में आना आत्म चेतना के गुप्त मन की वह प्रेरणायें ही होती हैं, जो उसे शारीरिक और मानसिक पाप करने की प्रेरणा देती रहती है। शास्त्रकार ने उसका उपाय बताते हुए लिखा है
एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतैनसः अनाविष्कृपापांसतु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत। - मनुस्मृति 11/226
प्रकट पाप की शान्ति के लिये द्विजों को पूर्वोक्त चान्द्रायण आदि व्रत करना चाहिये और गुप्त पाप की शान्ति के लिये मंत्रों का जप और होम करें।
पाप कैसा भी हो उसके लिये उत्तरदायी व्यक्ति स्वयं ही होता है। एक बार डा0 सिगमंड फ्रायड से किसी ने पूछा-स्वप्न कौन दिखाता है तो फ्रायड ने छूटते ही उत्तर दिया मनुष्य का मन। उन सज्जन का अभिप्राय यह था कि मनुष्य सामाजिक जीवन की अनेक परिस्थितियों से घिरा होता है, कोई उसे डाँट देता है तो गुस्सा आता है, कोई कामुक प्रदर्शन करता है तो मन में काम वासना के विकार उठ खड़े होते हैं, खाने-पीने का भी प्रभव पड़ता है। यह सब मिलकर स्वप्न में प्रभाव डालते हैं ; इसलिये स्वप्न का कारण व्यक्ति के मन को मानना उसकी दृष्टि में एकपक्षीय निर्णय था किंतु विचारक फ्रायड उस मत के नहीं थे। यद्यपि काम जैसे नाजुक विज्ञान का भी वे शालीन विश्लेषण नहीं कर पाये ; तथापि पाप के प्रति उनकी विवेचना भारतीय विचारकों के विवेचन से मेल खाती है। पाप और अपराध किसी और कारण से नहीं व्यक्ति की अपनी मानसिक कमजोरी से होते हैं और उसका दंड भुगते बिना वह उस मानसिक दुर्बलता से बच नहीं सकता। यह कहना गलत है कि इन्द्रिय लिप्सायें और महत्वाकांक्षायें व्यक्ति की प्राकृतिक प्रेरणायें है पाप नहीं। मनोविज्ञान अभी उस स्थिति में तो नहीं पहुँच सका, जिससे इस जन्म के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार ही अगले जन्म होने की बात साबित हों, पर गुप्त मन के विकारों के दुष्परिणाम अब स्पष्ट चुके हैं। 22 दिसम्बर 1658 को लन्दन से प्रकाशित होने वाले “संडे टाइम्स” में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य मांटगुमरी हाइड जो कि अमरीका के अपराधी समाज का अध्ययन करने गये थे - एक लेख छापा। उसमें लिखा था- आज संयुक्त राज्य अमेरिका में जो सबसे अधिक वस्तु परेशान किये हैं वह है बाल अपराध की समस्या। 20 वर्ष से कम आयु के बच्चे चाहे जब चाहे जिसे गोली मार देते हैं। लास एन्जिल्स में एक लड़के ने एक लड़की को केवल इसलिये गोली मार दी क्योंकि वह एक ऐसी लड़की के चेहरे से मिलती-जुलती थी जो उसके एक प्रतिद्वन्द्वी लड़के के घर की थी। उस लड़की को देखते ही उसे कुढ़न हुई और उसने गोली मार दी। ओहियो की एक बाल अपराध अनुसंधान समिति ने 54 बाल अपराधियों के स्वभाव का परीक्षण कर, पाया कि 53 अपराधी एस थे, जिन्होंने बिना कुछ सोचे समझे अज्ञात प्रेरणा से अपराध किया। इन अपराधों का कारण माता-पिता की भावुक अस्थिरता को, पारिवारिक असंगठन और मनोमालिन्य को दिया जाता है किंतु हर जगह ऐसा नहीं होता । जन्मजात संस्कारों का अपना महत्त्व होता है और उसकी वैज्ञानिकता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। ऐसे अपराधों के व्यापक अध्ययन और अमेरिकन सुधार (करेक्शन) संघ में 35 वर्षों तक निरंतर काम करने वाले महामन्त्री श्री एडवर्ड कांस ने भी यही निष्कर्ष निकाला और कहा - अपराध वृद्धि का कोई सरल उत्तर दे सकना कठिन है। अधिक से अधिक उसके लिये माता-पिता और परिवार को ही दोष दिया जा सकता है पर कुछ कारण अप्रकट भी है उसका मूल्य और महत्त्व कम नहीं आंका जाना चाहिये।
मन एक प्रकार का विद्युत है। जिस प्रकार संसार के सभी पदार्थ नष्ट नहीं होते केवल रूपांतरित होते हैं, मन भी नष्ट नहीं होते; मनुष्य अपने व्यक्त जीवन में जो भी विचार और कर्म करता है वह सब संस्कार रूप में मन में जमते और अपनी गाँठें मजबूत बनाते चले जाते हैं। ऊपर से देखने पर मनुष्य वही रहता है पर शारीरिक परिवर्तन के समान ही उसके मानसिक संस्कार परिवर्तन भी प्रौढ़ होते चले जाते हैं और यदि उनका समय रहते निदान नहीं कर लिया जाता तो वे काले अणुओं के रूप में जीवात्मा के साथ चले जाते हैं। वही कुसंस्कार अगले जन्मों में मनोविकार, अपराध भावना आदि के रूप में फूट पड़ते हैं और मनुष्य जीवन को अज्ञात गंदगी की ओर बढ़ा ले जाते हैं। ऊपर से रखने पर मनुष्य कितना ही अच्छा क्यों न दिखाई देता हो, उसकी असलियत उसके मन में छिपी रहती है। वही व्यक्ति संस्कारों में अज्ञात कल्पना और विचारों के रूप में स्वप्नों में अभिव्यक्त होती रहती है। वास्तव में इन संस्कारों का विश्लेषण ही सच्चा मनोविज्ञान हो सकता है। केवल मात्र किसी के बाह्य स्वभाव का अध्ययन मनोविज्ञान नहीं।
हिटलर युवावस्था में साहसी, धीर और वीर प्रकृति का व्यक्ति था किंतु अपनी महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित होकर उसने हिंसा बरतनी शुरू की, हजारों निरीह व्यक्तियों को उसने मौत के घाट उतार दिया तो दूसरों का कितना अनर्थ हुआ उससे अधिक उसने अपना पतन कर लिया। 1945 में जबकि उसे आत्म रक्षार्थ एक बंकर में भूमिगत होना पड़ा तब उसकी स्थिति यह थी कि वह अपने बड़े से बड़े विश्वासपात्र को भी सन्देह से ही देखता। वह इतना भयभीत रहता था कि ताजी हवा लेने के लिये बंकर से ऊपर भी नहीं आता था। गोरिंग लुफ्तवाफ को उसने जर्मन वायुसेना का प्रधान सेनापति - अपना वफादार मानकर नियुक्त किया था, उसने विद्रोह किया भी नहीं था पर उसने ग्रीम को उसके देशद्रोही होने की बात कही। ग्रीम सारी स्थिति जानता था पर भयवश खुद भी सच्ची बात नहीं कर सकता था। हिटलर का मानसिक संताप इतना अधिक बढ़ गया कि उसे पैर में लकवा मार गया। दो दिन पूर्व तक उसके बाल काले थे पर एक दिन में ही उसके बाल सफेद कैसे पड़ गये इस बात पर स्वयं उसकी प्रेमिका इवा और गोवेल्स की पत्नी फ्रा. भी आश्चर्यचकित हो उठी थी। अन्ततः अपनी मानसिक स्थिति नियंत्रण से बाहर पाई तो हिटलर को आत्महत्या ही उससे बचने का एकमात्र उपाय सूझा और उसने आत्महत्या कर ली।
मन के कुसंस्कारों को छुपाना पाप का भी पाप है। इसीलिये भारतीय आचार्यों ने निष्कासन तप का सिद्धांत बनाया था। लोगों को चान्द्रायण आदि कराते समय उनसे सारे पाप कबूल कराये जाते थे। देखने में प्रायश्चित्तकर्त्ता को अपना स्वाभिमान नष्ट होता सा दीखता है, उससे औरों की हँसी का डर भी रहता है किंतु भूलें स्वीकार कर लेने से मन में जो गाँठें पड़ सकती थीं, पड़ने से बच जाती है और मनुष्य एक व्यवस्थित जीवन के लिए शुद्ध संस्कारी जीवन के लिए तैयार हो जाता है।
२३ जुलाई १९६० का बम्बई का समाचार है। 25 वर्ष पूर्व सिन्ध हैदराबाद में देश विभाजन के समय मजिस्ट्रेट बी॰ ए॰ गहानी की अदालत में एक केस आया-श्री गहानी ने यह बात स्वयं ही तब बताई जब वे बम्बई के मुख्य प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट थे - केस एक वृद्ध के खिलाफ था। सुनवाई की तारीख के दिन श्री गहानी फैसला तैयार नहीं कर सके थे। वृद्ध बीमार था इसलिए वह स्वयं नहीं आ पाया था, तारीख बढ़ाने के लिए लड़के को भेज दिया लड़के को तारीख बढ़ाने की प्रार्थना नहीं करनी पड़ी।
मजिस्ट्रेट ने तारीख बढ़ाने की घोषणा करा दी। वृद्ध ने उसका अर्थ यह लगाया कि फैसला उसके विपरीत गया होगा, तभी तारीख बढ़ाई गई। इस सदमे से उसकी मृत्यु हो गई। अगली तारीख में जब मजिस्ट्रेट ने उसे निर्दोष घोषित किया तब लड़के ने बताया कि वह तो उसी दिन मर गये। इससे मजिस्ट्रेट के मन में अपने छिपाव का मनस्ताप रहने लगा। 24 वर्ष तक इस मनोव्यथा की स्थिति में रहने के बाद जब बोझ असह्य हो चला तो उनने सार्वजनिक रूप से अपनी भूल स्वीकार की और उन्हें तभी अपनी मनोव्यथा से मुक्ति मिली - भले ही अकर्तव्य के लिये उन्हें उपहास और फटकार ही क्यों न मिली हो। इसके साथ ही यदि उपवास या व्रत आदि कर लिया जाता तो दोष और भी शान्त हो जाता। अरब के प्रसिद्ध हकीम श्री इब्न सीना ने अपनी पुस्तक “कानून” में एक दिलचस्प उदाहरण दिया है जो “पूर्व जन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण तिष्टति” पूर्व कृत पाप ही व्याधि के कारण होते हैं - वाली भारतीय मान्यता का समर्थन करता है। गजनी का महमूद इब्नसीना को अपने पास रखना चाहता था पर जब इब्नसीना ने इनकार कर दिया तो उसने बल प्रयोग करना चाहा। इब्नसीना हर्केनियाँ भाग गये। वहाँ का शासक बीमार था जिसे कोई भी अच्छा नहीं कर सका था। इब्नसीना उसे देखने गये। नब्ज पकड़कर बोले-आप अनेक शहरों के नाम बोलिये। एक खास शहर का नाम लेने पर रोगी की नब्ज़ फड़की। फिर एक ऐसा आदमी बुलाया गया जो उस शहर की हर गली को जानता हो। इस बार गलियों के नाम पुकारे गये। एक विशेष गली का नाम लेने पर फिर वैसी ही नब्ज़ फड़की। इस तरह से इब्नसीना ने उस युवती का पता लगा लिया जिसे शाह ने देखा था और उससे विवाह करना चाहता था पर उसे जानता नहीं था। मन के अज्ञात सागर में कहाँ के, किस जन्म के संस्कार भरे हैं यह इस से स्पष्ट है। हमारे शरीर की हर ज्ञात-अज्ञात क्रिया पूर्व कृत कर्म और विचारणा के आधार पर चलती है इसलिए जीवन की शुद्धता, सुख और शान्ति का आधार ही यही है कि मन शुद्ध हो, सात्विक विचारों वाला संकल्पशील हो ।
अब ऐसे यन्त्र भी बन चुके हैं जिनके प्रयोग से पता चलता है कि मन में रागात्मक अनुभव जितना तीव्र होगा, त्वचा का विद्युत अवरोध उतना ही घट जाएगा।
इसी आधार पर सच और झूठ का विश्लेषण करने वाली मशीनें बनाई गई हैं। यह मशीन “स्फिग्मोमैनोमीटर” तथा न्यूमोग्राफ से बनाई गई हैं। एक फीते पर सच या झूठ का ग्राफ त्वचा की प्रतिरोधकता के अनुसार खिंच जाता है।
आगे अज्ञात संस्कारों को जानने वाली मशीनें भी बन सकती हैं।
पापों की पोल खोलने वाले यन्त्र भी आ सकते हैं।
उन सबका निष्कर्ष यही होगा कि मनुष्य अपनी भावनाओं को शुद्ध रख कर ही सुखी रह सकता है।
उसका एक मात्र उपाय प्रायश्चित प्रक्रिया ही होगी। अपनी भूलें स्वीकार करने और उचित दण्ड के लिए सहर्ष तैयार होने के अतिरिक्त हमारी सुख-शान्ति और सद्गति का दूसरा उपाय नहीं। उससे बचने का अर्थ अपना ही अहित, आत्मघात होगा जिसका बुरा फल न जाने कितने जन्मों तक भोगना पड़ेगा। अच्छा हो अपने संस्कार जीवन में शुद्ध कर लें।