समर्थता से भी बढ़कर सामूहिकता

May 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


प्रकृति का एक पन्ना - एक अध्याय समर्थता का - जो जितना समर्थ है शारीरिक शक्ति से ओत-प्रोत है वह उतना अधिक वसुन्धरा की संपत्ति का उपभोग करता है। प्रकृति ने हर शक्तिशाली को शासन और शोषण की खुली अनुमति दी है, बड़ा पेड़ छोटे पेड़ को बढ़ने नहीं देता, बड़ी मछली छोटी मछली को पकड़ कर खा जाती है, जंगल में रहने वाले ताकतवर शेर-चीते, बाघ, रीछ अपने से कम शक्ति  वाले बकरी, भेड़, गाय, हिरण, साँभर को मारकर खा जाते हैं। प्रकृति की कृपा सामर्थ्य के साथ जुड़ी हुई है। सांसारिक सुख-सुविधाओं और साधनों का अधिकतम भोग करना हो, शासन करना हो तो शक्ति की साधना करनी चाहिये, समर्थता बढ़ानी चाहिये। प्रकृति का एक पन्ना।

इस दृष्टि से शारीरिक शक्ति वाले लोगों को क्या दुनिया पर शासन करने का नैतिक अधिकार है ? जैसा कि कई पाश्चात्य जातियाँ साम्राज्य लिप्सा के बचाव में दलील दिया करती हैं ? शाकाहारी भारतीय क्या माँसाहारी लोगों की श्रेष्ठता स्वीकार कर उनके ही आदर्शों को मानने लगें ? जैसा कि आज की परिस्थितियों में हो रहा है इस देश के नागरिक आहार-विहार, रहन-सहन, वेष-भूषा सब बातों में पश्चिम की नकल करते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि इस देश के लोग उनके मुकाबले अपने को कमजोर अनुभव करते हैं।

इस देश, भारतवर्ष ने शक्ति की परिभाषा भिन्न की है। हमारी शक्ति खुराक पर नहीं तत्त्व पर, भावनाओं पर आधारित है। इस दृष्टि से न तो मन न शरीर किसी भी दृष्टि से हमारी समर्थता पाश्चात्यों से कम नहीं, तो भी यदि शरीर की स्थूल ताकत को ही प्रमुखता दी जाये तब भी किसी को शक्ति से हार मानना नहीं चाहिये। स्थूल समर्थता से हार मन लेने का अर्थ नैतिक पराजय होती है, चारित्रिक हार होती है और जो जातियाँ नीति, सदाचार और चरित्र की रक्षा नहीं कर पातीं, वह मात खा जातीं, खोखली हो जाती हैं।

प्रकृति का दूसरा पन्ना - आततायी समर्थता से संघर्ष के लिये विकल्प - सहयोग संघबद्धता और सामूहिकता का पन्ना है। यह पन्ना समर्थता के पन्ने से भी अधिक महत्वपूर्ण है और शिक्षा देता है कि जब आततायी शक्तियाँ या अनैतिकता सिर उठाये, ऐसा लगे कि दुष्टता प्रबल हो रही है, उसे जीत पाना कठिन है तब उसका प्रतिकार सामूहिक और संगठित शक्ति द्वारा होना चाहिये।

कुछ दिन पूर्व आस्ट्रेलिया के किसानों को एक विचित्र समस्या का सामना करना पड़ा। उनकी फसल तैयार होती, तब वहाँ के तोते फसलों की फसलें उजाड़ जाते, रखवाले तरह-तरह के उपाय करके हारे किंतु तोतों पर नियन्त्रण न कर सके। एक भी तोता उनकी पकड़ में नहीं आता था। तब कुछ बुद्धिमान आदमियों ने स्थिति के अध्ययन की आवश्यकता अनुभव की। कुछ लोग छिपकर बैठे। उन्होंने देखा तोते खेत पर एकाएक आक्रमण नहीं करते वरन् पहले सब खेतों से दूर छिपकर बैठ जाते हैं। कुछ तोतों का झुण्ड आगे जाकर बड़े पेड़ों पर मोर्चा (आव्जर्वेशन पोस्ट) लगाते हैं। फिर वे उड़कर पता लगाते हैं कोई है तो नहीं ! यदि मैदान साफ हुआ तो वे अपने दूरवर्ती साथियों को संकेत भेज देते हैं। फिर सब तोते दल-बल के साथ जा पहुँचते, और बात की बात में खेत साफ कर देते। यह रहस्य जान लेने के बाद ही उन तोतों पर नियंत्रण किया जा सका। साथ ही आस्ट्रेलियनों ने सहयोग और सामूहिकता का महत्त्व भी समझ लिया।

उकाब छोटा-सा पक्षी - एक किलो वजन पैरों में बाँध दिया जाये तो उड़ना हराम हो जाये, पर कई उकावों की संगठित शक्ति जो भी देख ले, सामूहिकता के वर्चस्व की सराहना किये बिना न रहेगा। उकाब इकट्ठे चलते हैं और 10-10 किलो वजन के खरगोश और हिरन के बच्चों को भी उठा ले जाते हैं। उकाब तो कई बार आपस में झगड़ भी पड़ते हैं पर प्रसिद्ध विचारक प्रिन्स क्रोपाटकिन अपनी पुस्तक “ संघर्ष नहीं सहयोग” (म्युचुअल एण्ड) में लिखा है कि चीलों को आपस में झगड़ते किसी ने कभी भी नहीं देखा । यही कारण है कि उनकी सामूहिक शक्ति उकावों पर भी विजय पा लेती है। वे उकावों का पीछा करके उनका शिकार हड़प लेती हैं। सहयोग की शक्ति इस बात पर निर्भर है कि प्रत्येक सदस्य कितने प्रेम और वफादारी, मैत्री और एकता का परिचय देता है। जो लोग इन नियमों का पालन करते हैं, कभी किसी से हारते नहीं। बाज तक को भी यह चीलें हरा देती हैं और उनके द्वारा पकड़ी हुई मछलियों को छीन लेती हैं।

प्रसिद्ध प्राणी विशेषज्ञ लेवेलिएण्ट ने एक स्थान पर लिखा है कि गिद्धों में परस्पर इतनी प्रगाढ़ मैत्री होती है कि वैसी मनुष्य समाज में भी नहीं होती। उनने गिद्धों को ‘सामाजिक जीव’ की संज्ञा दी है और लिखा है कि गुफाओं में तो तीन-तीन, चार-चार गिद्धों के घोंसले पास-पास पाये जाते हैं। शिकार वे कभी अकेले नहीं खाते। शिकार के पास पहुँचकर अपने सभी साथियों के आ जाने की प्रतीक्षा करते हैं। और इकट्ठे मिलकर ही उसका आहार करते हैं। उस समय शक्तिशाली कुत्ते और दूसरे हिंसक जंगली जीव भी इनका कुछ नहीं कर पाते।

प्रिन्स क्रोपाटकिन ने अपनी पुस्तक “म्युचुअल एण्ड” में इंग्लैंड के हम्बर जिले में समुद्री चिड़ियों का दिलचस्प वर्णन किया है। और बताया हैं वहाँ भाँति-भाँति के पक्षियों के शिकार से लेकर मनोरंजन के लिए उड़ने तक में सामूहिक भावना देखकर ऐसा लगता है मनुष्य जाति ने भी सामूहिकता के दर्शन को समझा होता तो वह इसी धरती में स्वर्ग-सुख का रसास्वादन करता।

समुद्र में पानी में डूबकर मछलियाँ पकड़ने वाले पनडुब्बों का मेल-मिलापी जीवन बड़ा ही आकर्षक और अनुकरणीय होता है। नदियों और तंग खाड़ियों में वे दो पार्टियों में विभक्त होकर शिकार करते हैं और फिर परस्पर मिलकर बैठते हैं। रात में हर समूह अपने-अपने सदस्यों के साथ अलग-अलग डेरों को लौट जाते हैं। एक गिरोह में पचास-पचास हजार पनडुब्बे तक रहते हैं पर उनमें कभी भी अधिकार के लिए झगड़ा होते नहीं देखा गया।

सामूहिकता की शक्ति, सामूहिकता का सुख शारीरिक समर्थता से से भी हजार गुना सुखकर होता है। जो लोग, जो जातियाँ इस बात को जान लेती हैं, वे कभी दुःखी नहीं होतीं। कभी किसी से पराजित नहीं होतीं। विभिन्न वर्गों में बँटी हिन्दू जाति अपनी प्रगाढ़ सामाजिकता, सामूहिकता, मैत्री,प्रेम, विश्वास और एक का हित दूसरे से सम्बद्ध मानती रही- तब तक इसे कोई जीत न पाया। यह कौम हारी तब, जब जाति-पाँति, वर्ग-भेद, प्रान्त-प्रदेश के नाम पर फूट पड़ी। इन बुराइयों को निकाल सकें तो हम किसी भी समर्थ और जिन्दादिल कौम की तरह दुनिया में सर्वोपरि हो सकते हैं।



<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118