प्रगति पथ पर निरन्तर अग्रसर रहें

May 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


अपनी वर्तमान स्थिति में पड़ा रहना किसी को पसन्द नहीं है। हर व्यक्ति अपने स्थान से आगे बढ़ना चाहता है गतिशीलता जीवन का लक्षण है। जो जीवित है, प्रबुद्ध और चैतन्य है वह एक स्थान पर ठहर ही नहीं सकता। एक स्थान पर ठहरने से जहाँ विकास रुक जाता है वहाँ जीवन का आनंद भी जाता रहता है। आनन्द नवीनता, परिवर्तन और निरंतर गतिशीलता में है। कितना ही सुंदर स्थान क्यों न हो, कितना ही मोहक वातावरण क्यों न हो यदि उसमें एक लम्बे अरसे तक रहना पड़े तो वह स्थान और वह वातावरण अखरने लगेगा। उसे बदलने की इच्छा होगी। इस वांछित परिवर्तन के लिए मनुष्य को क्रियाशील अथवा गतिशील होना पड़ेगा। जीवन अगति को अधिक देर सहन नहीं कर सकता। यदि उसे अगतिशीलता के लिए विवश किया जाएगा तो उसकी शक्ति नष्ट होने लगेगी, उसमें जड़ता आने लगेगी और वह मृत्यु की ओर बढ़ने लगेगा। प्रगतिशीलता जीवन का लक्षण है, उसकी अभिव्यक्ति है ।

अगति अथवा जड़ता आते ही जीवन तत्त्व नष्ट होने लगता है। बहती हुई नदियाँ जहाँ रुक जाती हैं, वहीं उनका पानी सड़ने लगता है। हवा जहाँ रुक जाती है, विषैली हो जाती है। वनस्पति अपनी विकासशीलता खोते ही सूखने लगती है। जड़ता मृत्यु का लक्षण है। जो व्यक्ति एक स्थान पर पड़े-पड़े जीवन काटने के आदी होते हैं वे मृत ही माने जाते हैं। यदि उनकी शारीरिक मृत्यु नहीं भी हुई होती है तो भी वे मानसिक रूप से मर चुके होते हैं। उनमें इच्छा, उत्साह, आशा तथा साहस का अभाव रहता है। उनकी जीवनीशक्ति समाप्त हो चुकी होती है। जिस प्रकार प्राणों को बनाए रखने के लिए प्रति श्वास पर नई हवा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन संस्थान को सक्षम, उपयोगी तथा सशक्त बनाए रखने के लिए, उसे प्रखर और दीर्घजीवी बनाए रखने के लिए नित्य नई शक्ति की आवश्यकता होती है। जीवनदायिनी इस शक्ति की प्राप्ति गतिशीलता, पुरुषार्थ तथा कर्मयोग से मिलती है। जीवन की इन गतिविधियों में स्थगन आते ही जीवन-यन्त्र में स्थगन आने लगता है। मनुष्य अनुपयोगी और निकम्मा होकर बेकार हो जाता है। परमात्मा की विधायिनी प्रकृति निरर्थकता के प्रति बड़ी असहिष्णु होती है। वह अपने राज्य में बेकार और फालतू चीजों को सहन नहीं करती! जल्दी ही मृत्यु रूप में उन्हें उठा कर फेंक देती है। इसीलिए निकम्मे आलसी और गतिहीन व्यक्ति अपेक्षाकृत जल्दी इस संसार से विदा होते रहते हैं। गतिशीलता जीवन है, आयु और शक्ति है। इसे जीवन में बनाए ही रहना चाहिए।

परमात्मा की इस पावन सृष्टि में जिधर भी दृष्टि डालिए गतिशीलता दृष्टिगोचर होगी। सूर्य, चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र जिनको देखिये चल रहे हैं। वायु तो एक क्षण भी ठहर नहीं सकती। नदियाँ बह रही हैं। वृक्ष उग रहे हैं, कलियाँ खिल रही हैं, समुद्र लहरा रहा है और इन सब गतिशीलता के साथ हमारी पृथ्वी निरन्तर अपनी धुरी पर परिभ्रमण कर रही है। संसार का प्रत्येक अणु निरन्तर गतिशील है। गतिशीलता प्रकृति का नियम है, जीवन है और उसका सौंदर्य भी। इन चारों की गतिमानता के बीच जो जड़ता और अगति को अंगीकार किए रहेगा उसे यह शक्तिमयी प्रकृति विजातीय एवं विरोधी तत्व मान कर कैसे रहने देगी। वह जल्दी ही उसे अपनी बुहारिका मृत्यु का विषय बना ही देगी।

मनुष्य निरन्तर गतिशील रहे यह उसके निर्माता की इच्छा है। यदि ऐसा न होता तो वह उसे जड़ न बनाकर चेतन क्यों बनाता, और क्यों उसे बौद्धिक, मानसिक तथा शारीरिक शक्तियों से सम्पन्न करता। यह संसार उस परमात्मा की रंगस्थली है। मनुष्य उसका मुख्य अभिनेता है। नायक है। सक्रियता अभिनय का विशेष अंग है। जो अभिनेता, जो नायक अपने अभिनय से उदासीन होकर निश्चेष्ट और निर्गति बना रहे, वह किस प्रकार पुरस्कृत हो सकता है। इस नाटक के सूत्रधार परमात्मा की इच्छा है कि मनुष्य अपने जीवन अभिनय को सफलतापूर्वक व्यक्त करे और उसके विशाल सामान्य, अनन्त ऐश्वर्य, अतुलित विभव और वैभव में अपना भाग सुरक्षित करे। वह चाहता है कि मनुष्य अपनी योग्यता, पात्रता और उपयुक्तता प्रकट करे और वह उसे मनोवांछित श्रेय और सौख्य का पुरस्कार अनुग्रह करे।

मनुष्य को सौंपा गया वह अभिनय क्या है? वह है एक निश्चित लक्ष्य के प्रति गतिशीलता, प्रयत्नशीलता, पौरुष, विकास और प्रगतिशीलता। परमात्मा अपने सारे पुत्रों तथा पात्रों पर समान रूप से कृपालु हैं। तथापि वह अपने अटल विधान की अपेक्षा से मजबूर है कि, उसका जो पुत्र जो पात्र प्रयत्नशील और पुरुषार्थी नहीं है, जिसने आलस, प्रमाद, अकर्मण्यता, जड़ता और अगति आदि की आसुरी वृत्तियों की दासता मानली है उसे किसी प्रकार भी पुरस्कृत नहीं कर सकता। फिर भी वह दयानिधान इतनी सहायता करने के लिए हर समय तैयार रहता है कि जो मनुष्य अपना कर्तव्य करने को तैयार हो उसके लिए उचित और उपयुक्त साधनों और संयोगों की व्यवस्था कर दे। क्योंकि जो आवश्यकतानुसार माँगता है उसे वह जरूर देता है और जो उसका द्वार खटखटाता है उसके लिए वह खुलता ही है। प्रमाद, आलस्य, निराशा तथा निरुत्साह को छोड़कर, और परिकर कस कर जो कर्तव्य क्षेत्र में उतर पड़ता है, परमात्मा की प्रेरणा से उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों के मुंह सीधे होने ही लगते हैं। अचानक, अनायास, अप्रत्याशित अथवा विधि-विधान एवं क्रमपूर्वक उसके लिए संयोग और साधन जुटने ही लगते हैं।

स्वयं मनुष्य का अपना जन्म अर्थात् मनुष्य योनि मिलना ही गतिशीलता तथा विकास का प्रमाण है। अथवा यह कह लीजिए कि यह मानव-जन्म जीव की प्रकृति तथा विकासशीलता का पुरस्कार है। इस जन्म से पहले मनुष्य चौरासी लाख अधम तथा निम्न योनियों की यात्रा में रहा है। यदि उसने उस विकट तथा विषम अवस्थाओं में भी अपनी प्रगतिशीलता कुण्ठित कर ली होती तो क्या वह किसी प्रकार युग-युग की उस दुरूह तथा अंधेरी यात्रा को पार कर चुका होता ? निश्चय ही नहीं। जड़ता के हाथ पड़ कर वह न जाने किस दयनीय योनि में नारकीयता भोग रहा होता। और आज इस पवित्र, प्रकाशपूर्ण तथा सर्वसमर्थ मानव-योनी में न आ सका होता। यह उसकी अखण्ड गतिशीलता का ही पारितोषक है कि वह उस प्रचण्ड यात्रा को पूरा करके कृतकृत्य हो सका है।

किन्तु मनुष्य की यात्रा यहीं समाप्त नहीं हो गई है। मनुष्य जीवन ही उसका गन्तव्य नहीं है। अभी इसके आगे एक लम्बी यात्रा और पड़ी है। किंतु वह पिछली यात्रा के समान अंधेरी अथवा विषमतापूर्ण नहीं है। आगे का पथ बड़ा ही प्रकाशपूर्ण, पवित्र और प्रशस्त है। वह यात्रा है नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु और आत्मा से परमात्मा बनने की। क्या इतनी विराट् यात्रा बिना प्रगतिशीलता के पूरी हो सकती है ? निश्चय ही गन्तव्य अथवा लक्ष्य के अनुसार उसके लिए अखण्ड, उदात्त और आदर्श प्रगतिशीलता की आवश्यकता होगी। योग्य सारे सम्बल परमात्मा ने मनुष्य को पहले ही दे रखें हैं। सिवाय इसके कि आलस्य और अकर्मण्यता की अगति दशा का दास बन जाए और कोई कारण नहीं है जो उसे इस महान यात्रा से विरत अथवा वारित रख सके।

आत्मा का अपने प्रियतम परमात्मा से वियोग है। वह उससे मिलने के लिए निरंतर छटपटाती रहती है। उसका संयोग करना मनुष्य का पावन कर्तव्य है, उत्तर दायित्व है। इसके अतिरिक्त मनुष्य उसका आभारी भी है। आत्मा ने ही अपनी चेतना देकर मानव-यन्त्र को मनुष्य बनाया है। उसी ने मिट्टी के इस स्तूप को सुन्दर, सशक्त और सक्षम-शरीर बनाया है। वही कमों में कुशलता और मन, बुद्धि तथा विवेक में प्रकाश बनकर प्रकट होती है। यह आत्मा की सेवा का ही प्रतिफल है कि मनुष्य सफलता, श्रेय और सम्पदाओं का अधिकारी बनता है। मनुष्य पर आत्मा का बहुत आभार है। उसे चाहिए कि वह प्रत्युपकार के रूप में उसका मिलन उसके प्रियतम परमात्मा से कराने का प्रयत्न करें। उपकारी का प्रत्युपकार न करना कृतघ्नता है, पाप है। उससे बचना ही चाहिए।

आत्मा के इस आभार को उऋण करने का एक ही उपाय है। वह है प्रगतिशीलता और आत्म-विकास ; और इस उपाय का आधार है पुरुषार्थ। मनुष्य को संकल्प कर लेना चाहिए कि वह कर्तव्य के प्रशस्त पथ पर प्रतिदिन कदम बढ़ाता चला जाएगा। वह किसी भी परिस्थिति में अपना अभियान एक क्षण को भी न रोकेगा। वह बाधाओं से लड़ेगा, प्रतिकूलताओं से संघर्ष करेगा और साहसपूर्वक अपने कदम को आगे ही बढ़ाता जाएगा। इस संघर्ष के लिए वह स्वास्थ्य, आरोग्य, शक्ति और क्षमताओं को न केवल सुरक्षित ही रखेगा बल्कि निरन्तर नियमपूर्वक बढ़ाता रहेगा। वह दिन-दिन आगे बढ़ेगा, ऊपर चढ़ेगा और निश्चित ही अपना लक्ष्य पाएगा और आत्मा से परमात्मा का मिलन कराएगा।

उन्नति और प्रगति का अधिकारी होने पर भी बहुत बार मनुष्य उससे उदासीन ही हो रहते हैं। इसका प्रधान कारण अज्ञान तो होता ही है, उनकी अपनी मानसिक न्यूनता भी कम काम नहीं करती। उन्हें अपने प्रति विश्वास नहीं होता। हर समय यही सोचते रहते हैं कि हमारे पास साधन नहीं है, अवसर नहीं है और न हममें इतनी क्षमतायें ही हैं जिनके आधार पर आगे बढ़ सकते हैं। अपनी इस हीन और हेय भावना के करण वे कोई नया पुरुषार्थ करने को तैयार नहीं होते। अपनी यथास्थिति में पड़े-पड़े चुपचाप जीवन काट जाने में ही अपना कल्याण समझते हैं। बहुत बार तो वे यह भी करते हैं कि यदि किसी ऊंचे पुरुषार्थ की ओर बढ़े तो संभव है उनका यह सब कुछ भी चला जाएगा जो उनके पास है। अपने प्रति इस प्रकार का अविश्वास तथा हेय भाव निश्चय ही बहुत बुरा है। ऐसी आत्महीनता से ग्रस्त लोग वास्तव में कोई उन्नति अथवा प्रगति नहीं कर सकते।

ऐसे निराश और नगण्य व्यक्तियों को आत्म-विश्वास के लिए नन्ही सी चींटी और छोटी सी मधु-मक्खी से शिक्षा लेनी चाहिए। इन दोनों प्राणियों के पास कौन से साधन और कौन सा बल होता है। तब भी चींटी अपने बिल में न जाने कितनी सामग्री संचय कर लेती है और मधुमक्खी शहद के छत्ते के छत्ते बनाकर तैयार कर देती है। यदि यह दोनों प्राणी अपने को निराश जनों की तरह अशक्त और हेय समझकर पड़े रहे है तो क्या जल्दी ही उनका अस्तित्व समाप्त न हो जाएगा !

लेकिन नहीं वे अपने पर जरा भी अविश्वास नहीं करतीं और परमात्मा की दी हुई थोड़ी सी शक्ति के आधार पर ही प्रबल पुरुषार्थ , रात-दिन काम करके अपना भण्डार भर लेती हैं। शक्ति अथवा साधनों की बहुतायत उन्नति अथवा प्रगति का आधार नहीं है। उसका आधार है परिश्रम पुरुषार्थ और आत्मनिष्ठा। मनुष्य तो उन प्राणियों से बहुत महान और शक्तिशाली है। उसे अपने पर विश्वास करना चाहिए और जो भी शक्ति और साधन है उन्हीं के आधार पर कोई ऊंचा तथा आदर्श लक्ष्य निश्चित कर पुरुषार्थ में संलग्न हो जाना चाहिए। अवश्य ही वे उन्नति और प्रगति के अधिकारी बनेंगे। बूँद-बूँद संचय करने से एक दिन खाली घट भर ही जाता है। कदम-कदम चलकर मंजिल मिल जाती है और सीढ़ी-सीढ़ी चढ़कर छत पर पहुँचा जा सकता है। आत्म-विश्वास जगाइए, साहस का सहारा लीजिए, परिश्रम और पुरुषार्थ कीजिए। ईश्वर आपकी सहायता करेगा ; क्योंकि वह उन उत्साही तथा महत्वाकांक्षियों की सहायता अवश्य करता है जो अपनी सहायता आप करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।


 कुछ सद्वाक्य

  • आत्मा एक चेतन तत्त्व है, जो अपने रहने के लिए उपयुक्त शरीर का आश्रय लेता है और एक देह से दूसरी देह में जाता रहता है । भौतिक शरीर आत्मा को धारण करने के लिए विवश होता है ।   - गेटे
  • जो अपनी राह आप बनाता है , वह सफलता के शिखर पर चढ़ता है पर जो औरों की राह ताकता है , सफलता उसका मुँह ताकती रहती है - स्पेंसर




<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118