शरीर शास्त्री और मनोविज्ञान वेत्ता यह बताते हैं कि नर,नर का सान्निध्य-नारी, नारी का सान्निध्य मानवीय प्रसुप्त शक्तियों के विकास की दृष्टि से इतना उपयोगी नहीं जितना भिन्न वर्ग का सान्निध्य। विवाहों के पीछे सहचरत्व की भावना ही प्रधान रूप से उपयोगी है। सच्चे सखा सहचर की दृष्टि से परस्पर हँसते, खेलते जीवन बिताने वाले पति-पत्नी यदि आजीवन काम सेवन न करें तो भी एक दूसरे की मानसिक एवं आत्मिक अपूर्णता को बहुत हद तक पूरा कर सकते हैं। मनुष्य में न जाने क्या ऐसी रहस्यमय अपूर्णता है कि वह भिन्न वर्ग के सहचरत्व से अकारण ही बड़ी तृप्ति और शांति अनुभव करती है। अविवाहित जीवन में सब प्रकार की सुविधायें होते हुए भी एक उद्विग्नता, अतृप्ति और अशांति बनी रहती है। विवाह के बाद एक निश्चिन्तता सी अनुभव होती है। साथी की प्रगाढ़ मैत्री का विश्वास करके व्यक्ति अपनी समर्थता दूनी ही नहीं, दस गुनी अनुभव करता है। एकाकी जीवन में जो शून्यता थी उसकी पूर्ति तब होती है जब यह विश्वास बन जाता है कि हम अकेले नहीं, दूसरे साथी को लेकर चल रहे है जो हर मुसीबत में सहायता करेगा और प्रगति के हर स्वप्न में रंग भरेगा। यह विश्वास मन में उतरते ही मनोबल चौगुना बढ़ जाता है और उत्साह भरी कर्मठता और आशा भरी चमक से जीवन-क्रम में एक अभिनव उल्लास दृष्टिगोचर होता है। विवाह का मूल लाभ भिन्न वर्ग के सान्निध्य से होने वाले उभय पक्षीय सूक्ष्म शक्ति प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण प्रत्यावर्तन तो है ही, एक मनोवैज्ञानिक लाभ अन्तरंग का एकाकीपन दूर करना और समर्थता को द्विगुणित हुई अनुभव करना भी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का आशापूर्ण भविष्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
काम-सेवन विवाहित जीवन में आवश्यकतानुसार मर्यादाओं के अंतर्गत-उपयुक्त होता रहे तो उसमें कोई बड़ा अनर्थ नहीं है। पर उसे आवश्यक या अनिवार्य न माना जाय। मोटे तौर से पति-पत्नी की परस्पर मनःस्थिति वैसी ही होनी चाहिए जैसे दो पुरुष या दो नारियों की सघन मित्रता होने पर होती है। सखा, साथी, मित्र, स्नेही का रिश्ता पर्याप्त है। कामुक और कामिनी को दृष्टि में रखकर किये गये विवाह घृणित है। रूप, रंग, शोभा, सौंदर्य के आधार पर उत्पन्न हुआ आकर्षण एक आवेश मात्र है। उस आधार पर जो जोड़े बनेंगे वे सफल न हो सकेंगे। रूप, यौवन की सारी चमक एक छोटा-सा रोग बात ही बात में नष्ट करके रख सकता है। फिर कोई दूसरा अधिक सुन्दर आकर्षण सामने आ जाय तो मन उधर ढुलक सकता है। रूपवान में दोष, दुर्गुण भरे पड़े हों, तो भी निर्वाह देर तक नहीं हो सकेगा। शारीरिक आकर्षण की खोज आज की विवाह सफलता का प्रधान अंग बनती जा रही है। रूपवान लड़के-लड़कियों की ही माँग है। कुरूपों की बाजार दर-बदर दिन-दिन गिरती जाती है। यह प्रवृत्ति बहुत ही विघातक है। चमड़ी की चमक ही यदि अच्छे साथी की कसौटी बन जायेगी तो फिर आन्तरिक स्तर की उत्कृष्टता का क्या मूल्य रह जायगा? फिर भावनाओं की, सद्गुणों की, स्नेह सौजन्य की कीमत कौन आँकेगा?
चमड़ी का रंग या नख-शिख की बनावट को शोभा, सौंदर्य की दृष्टि से सराहा जा सकता है। नृत्य अभिनय में उसको प्रमुखता मिल सकती है। नयनाभिराम मनमोहक आकर्षण भी उसमें देखा जा सकता है। ईश्वर की कृति की इस विभूति से प्रसन्न हुआ जा सकता है। दाम्पत्य-जीवन में उसकी कोई बहुत उपयोगिता नहीं है। मिलन चमड़ी का आँख-नाक का नहीं वरन् अन्तरंग का होता है और उसकी उत्कृष्टता निकृष्टता चेहरे या अवयवों की बनावट से तनिक भी सम्बन्ध नहीं रखती। हो सकता है कोई काला कुरूप व्यक्ति योगी अष्टावक्र नीतिज्ञ चाणक्य अथवा पाँचाली द्रौपदी की तरह उच्च मनःस्थिति धारण किये हो। रूपवती नर्तकियाँ, अभिनेत्रियाँ, नट-नायक कोई उच्च भावनाशील थोड़े ही होते हैं। बन्दीगृह में क्रूर कर्म करने के दण्ड में अगणित नर-नारी आते रहते हैं उनके कुकर्मों का विवरण सुनकर रोमांच खड़े हो जाते हैं। रूप रंग के आवरण में उनके भीतर प्रेत-पिशाच का वीभत्स नृत्य देखकर दिल दहल जाता है। विवाह का वास्तविक आनन्द और लाभ जिन्हें लेना हो उन्हें साथी का चुनाव करने में रंग रूप की बात उठाकर ताक में रख देनी चाहिये। केवल सद्भावना निष्ठा, सौजन्य, व्यवस्था, उदारता, दूरदर्शिता, उत्साही और हँसमुख प्रकृति जैसे सद्गुणों पर ही ध्यान देना चाहिये। सज्जनों के बीच ही चिरस्थायी मैत्री का निर्वाह होता है। दुर्जन तो क्षण भर में मित्र बनते हैं। और पल भर में शत्रु बनते देर नहीं लगती। अभी बहकावे की मीठी-मीठी बातें कर रहे थे और चापलूसी की अति कर रहे थे, अभी तनिक सी बात पर खून के प्यासे बन सकते हैं। प्रेम के जाल में ऐसे ही लोग दूसरों को फँसाते फिरते बहुत देखे जाते हैं। इसलिये विवाह की सोचने से पहले-साथी के चुनाव की कसौटी निश्चित करनी चाहिए और वह यह होनी चाहिए कि रंग रूप कैसा ही क्यों न हो, साथी की आंतरिक स्थिति में स्नेह सौजन्य का समुचित पुट होना ही चाहिए। जिन्हें ऐसा साथी मिल जाय, समझना चाहिए कि उसका विवाह करना सार्थक हो गया।
काम-सेवन के सम्बन्ध में उपेक्षा वृत्ति बरती जानी चाहिए। इस प्रयोग का स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। कम ही लोग ऐसे होते हैं। जिनके पास अपनी शारीरिक, मानसिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त इतना ओजस् संचित रहे जिसे क्रीड़ा कल्लोल में व्यय कर सकें। आमतौर से वर्तमान परिस्थितियों में लोग इतनी ही शक्ति उपार्जित कर पाते हैं। जिसके आधार पर किसी प्रकार काम चलता रहे और गाड़ी लुढ़कती रहे। इस स्वल्प उत्पादन में से यौन संपर्क में अपव्यय किया जायगा तो उसका सीधा प्रभाव समग्र स्वास्थ्य और जीवन यात्रा पर पड़ेगा। विषयी मनुष्य अपनी श्रमशीलता, तेजस्विता, स्फूर्ति, निरोगता, प्रतिभा, स्मरण शक्ति, साहसिकता, स्थिरता, सन्तुलन आदि सभी शारीरिक मानसिक विशेषतायें खोते चले जाते हैं। यह अपव्यय जितना बढ़ता है उतना ही खोखलापन बढ़ता चला जाता है, आसक्ति का शिकंजा अपने गले में कसा जाना हर कामुक व्यक्ति निरन्तर अनुभव करता रहा है। यह एक प्रकार से स्वेच्छापूर्वक, हँसते-खेलते की जाने वाली, मन्द गति से की जाने वाली आत्महत्या ही है।
प्रजनन जब उचित और आवश्यक हो तो उचित मर्यादाओं के अंतर्गत काम-सेवन में ढील छोड़ी जा सकती है। यदि अपनी या साथी की तन्दुरुस्ती या मनःस्थिति ठीक न हो तो इस प्रकार के छेड़छाड़ का कोई तुक नहीं रह जाता। पति-पत्नी के बीच इस प्रकार का धैर्य, संतुलन रहना ही चाहिए कि जब तक अति आवश्यक न हो-दोनों की पूर्ण सहमति न हो तब तक इस प्रसंग को उपेक्षित ही किया जाय। साथी की अनिच्छा रहने पर उसे विवश करना एक प्रकार से बलात्कार जैसा अपराध ही है, भले ही वह विवाहित साथी के साथ किया गया हो। कानून उसे भले ही दण्डनीय न माने पर नैतिक दृष्टि से उसे निर्लज्ज बलात्कार ही कहा जायगा। ऐसा प्रसंग जिससे साथी का मन रोष या क्षोभ से भर जाय निश्चित रूप से कामुक पक्ष के लिए हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होगा। क्षणिक उद्वेग शान्त करके जितनी प्रसन्नता पाई गई थी, कालान्तर में उसकी प्रतिक्रिया उनके गुणी अप्रसन्नता की परिस्थिति लेकर सामने आवेगी। अस्तु, हर समझदार पति-पत्नी की आदि से अन्त तक ऐसी मनःस्थिति विनिर्मित करनी चाहिए कि कोई किसी को कठिनाई, क्षति या असमंजस में न डाले। दाम्पत्य-जीवन के बीच ब्रह्मचर्य की निष्ठा का जितना प्रभाव होगा उतना ही पारस्परिक सद्भाव प्रगाढ़ होता जायगा और वह लाभ मिलेगा जिसे प्राप्त करना विवाह का मूल प्रयोजन है।
जननेन्द्रिय का अमर्यादित उपयोग यौन रोग उत्पन्न करता है। विशेषतया नारी को तो इससे अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। औसत नारी महीने में एकाध बार से अधिक काम-क्रीड़ा का दबाव सहन नहीं कर सकती। प्रजनन की दृष्टि से हर बच्चे के बीच कम से कम पांच वर्ष का अन्तर होना चाहिए। जल्दी-जल्दी बच्चे उत्पन्न करने और काम-क्रीड़ा का अधिक दबाव पड़ने पर नारी अपना शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी खो बैठती है। दैनिक काम-क्रीड़ा का स्वरूप हँसी, विनोद, मनोरंजन, चुहल, छेड़छाड़ तक सीमित रहे तभी ठीक है। हर्षोल्लास बढ़ाने वाले, छुटपुट क्रिया-कलाप चलते रहे तो चित्त प्रसन्न रहता है, परस्पर घनिष्ठता बढ़ती है और सान्निध्य का मनोवैज्ञानिक ही नहीं काम प्रयोजन भी पूरा हो जाता है। यौन-संपर्क को यदा-कदा के लिए ही सीमित रखना चाहिए। आये दिन की इस विडम्बना में फँस कर मनुष्य अपना स्वास्थ्य ही नष्ट नहीं करता, प्रतिक्रिया के आनन्द से भी वंचित हो जाता है। कामुक व्यक्ति बहुत घटिया और उथला आनंद ले पाते हैं। उसमें जो ऊंचे स्तर का उल्लास है उसे प्राप्त करने के लिए देर तक संग्रहित शक्ति होनी चाहिए। जिन्हें यौन रोगों से बचना हो उन्हें इस प्रकार की सतर्कता रखना ही चाहिए।
इस संदर्भ में यह समझ ही लिया जाय कि जननेन्द्रिय का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। वहाँ जो कुछ गड़बड़ होगी उसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा। मनोविज्ञान वेत्ताओं के अनुसार उचित समय पर उचित काम-सेवन का अवसर न मिलने से जहाँ अपस्मार, मूर्छा, भूत-प्रेत, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, स्मरणशक्ति की कमी, सिर दर्द, हृदय रोग, नाड़ी विकृति आदि रोग उत्पन्न होते हैं वहाँ अति काम-सेवन भी ऐसे ही उद्वेग उत्पन्न करता है। लम्पटों का शरीर जितना क्षीण होता है, मन उससे भी अधिक विक्षिप्त, असंतुलित, रहने लगता है। अनेकों मानसिक रोगों से त्रस्त उन्हें पाया जायगा जिन्होंने काम-सेवन की दिशा में अति बरती। इस प्रकार का दुरूपयोग यों दोनों के लिए ही हानिकारक है पर नारी को तो उसकी क्षति असाधारण रूप से उठानी पड़ती है। अतएव विवाहित जीवन को काम क्रीडा के उच्छृंखल उपयोग की खुली छूट नहीं मान लेनी चाहिए और उस संदर्भ में लगभग वैसी ही सतर्कता उपेक्षा बरतनी चाहिए जैसी की अविवाहित-जीवन में बरती जाती है। इस शक्ति संग्रह का सर्वतोमुखी प्रतिभा और व्यक्तित्व के विकास पर सीधा असर पड़ता है। सुहागिन की अपेक्षा विधवाएँ अथवा कुमारियाँ अधिक तेज-तर्रार और स्फूर्तिवान पाई पाती हैं। उनकी अन्तःशक्ति का अनावश्यक क्षरण न होना ही इसका प्रधान कारण है। इस लाभ से विवाहितों को भी वंचित नहीं होना चाहिए।
काम सेवन का वैज्ञानिक स्वरूप यह है कि शरीरों की विद्युत-शक्ति का इस प्रयोग द्वारा अति द्रुतगति से प्रत्यावर्तन होता है। मानवीय विद्युत की मात्रा शरीर में भी पाई जाती है पर उसका भण्डार-चेतन संस्थान में ही देखा पाया जाता है। यौन संस्थान की नींव में यह बिजली अकूत मात्रा में भरी पड़ी है। जैसे ही जननेन्द्रिय निकट आती है वैसे ही वह प्रसुप्त शक्ति बीज सजग और प्रबल हो उठता है और तत्काल दोनों पक्ष अपनी विद्युत शक्ति का विनिमय करने लग जाते हैं। ऋण विद्युतधारा धन की ओर धन धारा ऋण की ओर दौड़ने लग जाती है। नर नारी को और नारी नर को अपना शक्ति प्रवाह प्रस्तुत करते हैं। इस सम्मिलन एवं प्रत्यावर्तन का ही वह परिणाम है जो काम-सेवन के आनन्द के रूप में उस क्षण अनुभव किया जाता है। यह विशुद्ध रूप से प्राण और रयि शक्ति के-अग्नि और सोम के परस्पर प्रत्यावर्तन की अनुभूति है। यह प्रयोग अति महत्वपूर्ण है। इससे जहाँ व्यक्तित्वों का विकास हो सकता है वहाँ विनाश भी संभव है। प्रबल विद्युत धारा वाला पक्ष-निर्बल पक्ष को अपना अनुदान देकर उसे ऊंचा उठने और परिपुष्ट बनने में सहायता कर सकता है, पर जिसके शरीर में क्षीण प्राण है, वह साथी को क्षति ही पहुँचा सकता है। इसका परिणाम यह भी हो सकता है कि दोनों शारीरिक दृष्टि से न सही प्राण-शक्ति की दृष्टि से समान स्तर पर आ जावें।
वेश्या शरीर का क्षरण करते रहने पर भी अपना रूप सौंदर्य बनाये रहती है। इसके कारण शरीर शास्त्री नहीं बता सकते। इसका उत्तर प्राण विद्या के ज्ञाताओं के पास है। वे मनस्वी कामुकों की शक्ति चूसती रहती है और जिस स्थिति में सामान्य गृहस्थ नारी मृत्यु के मुख में जा सकती थी उस स्थिति में भी अपने चेहरे पर चमक और शरीर में स्फूर्ति बनाये रहती है। यदि उनके प्रेमी घटिया प्रकार के रोगी या मूर्ख स्टार के हों, तो फिर उनका स्वास्थ्य और तेज कभी भी स्थिर न रहेगा। यों शरीर की दृष्टि से युवाकाल में नर-नारियों में बिजली अधिक रहती है। इसी से उसका आकर्षण युवा वर्ग के साथ काम-सेवन की लालसा संजोये रहता है। शरीर में विद्युत शक्ति है तो, पर थोड़ी और घटिया स्तर की ही पाई पाती है। असली शक्ति भण्डार मस्तिष्क और हृदय में भरी रहती है। स्वस्थ और सुन्दर व्यक्ति भी यदि मनोबल की दृष्टि से घटिया है तो उसे इस संदर्भ में अशक्त ही माना जायगा।
कुरूप और ढलती आयु का व्यक्ति भी उसके आन्तरिक स्तर के अनुरूप प्रबल प्राण रह सकता है। असलियत यह है कि शरीर की स्थिति से प्राण क्षमता का संबंध बहुत ही कम है। किसी भी आयु में मनःस्थिति के अनुरूप प्राण की प्रबलता या न्यूनता हो सकती है और उसका लाभ-हानि साथी को भोगना पड़ सकता है।
यों ब्रह्मचर्य सभी के लिये उचित है पर उन प्राण संपन्न उच्च व्यक्तियों के लिए तो बहुत ही आवश्यक है। वे इस प्रकार का व्यतिक्रम करके अपनी प्रगति को ही रोक देंगे। साथी को उतना लाभ न मिलेगा, जितनी स्वयं क्षति उठा लेंगे। इसलिए ब्रह्मचर्य की महत्ता असंदिग्ध है। प्राण को संचित करते रहा जाये और यदा-कदा उसका उपयोग काम-क्रीड़ा में कर लिया जाय तो साथी की सहायता की दृष्टि से भी समर्थ पक्ष की यही बुद्धिमता होगी। कामुक व्यक्ति बाहर से ही चमक-दमक के भले दीखें, भीतर से खोखले होते हैं और वे जिससे भी संपर्क बनाते हैं उसी की शक्ति चूसने लगते हैं। लम्पट व्यक्ति के साथ दाम्पत्य-जीवन बना कर उसका साथी शारीरिक और मानसिक क्षति ही उठा सकता है। क्षीण प्राण वाला व्यक्ति समर्थ पक्ष की कुछ सहायता नहीं कर सकता। ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी ही अपनी विशेष विद्युत-धाराओं से एक-दूसरे को लाभान्वित कर सकते हैं। प्रशंसनीय केवल इसी स्तर पर का काम-सेवन कहा जा सकता है, जिससे प्रबल शक्ति प्रवाह का लाभ दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी आवश्यकता की पूर्ति और अतृप्ति निवारण के लिए कर सकें।
संतान उत्पादन के सत्परिणाम संयमशीलता पर निर्भर है। कामुकता की दिशा में अति करने वाले दंपति कुछ ही दिनों में अपनी जननेन्द्रियों की मूल सत्ता खो बैठते हैं। ऐसे पुरुष को नपुंसक और नारी को बंध्या होते देखा जाता है। गर्भ रहे भी तो गर्भपात होने, दुर्बल या मृत सन्तान होने का खतरा बना रहता है। ऐसे माता-पिता, मूर्ख दुर्गुणी, रोगी, अविकसित सन्तान ही उत्पन्न कर सकते हैं। समर्थ सन्तान के लिए जिस परिपक्व अण्ड एवं शुक्र की आवश्यकता है, उसका निर्माण ब्रह्मचारी जीवन से ही संभव है। पुष्ट शरीर वाले युवक युवती मिलकर पुष्ट शरीर वाले बालक को तो जन्म दे सकते हैं पर उसकी मनःशक्ति बुद्धिमत्ता एवं तेजस्विता अपूर्ण ही रह जायगी। आन्तरिक समस्त विशेषतायें और विभूतियाँ प्राण-शक्ति से संबंधित है। प्राण का परिपाक ब्रह्मचर्य ही कर सकता है। इसलिए जिन्हें आन्तरिक दृष्टि से मेधावी, प्रतिभावान और दूरदर्शी सन्तान अपेक्षित हो उन्हें अपनी अन्तःक्षमता की सुरक्षा एवं परिपुष्टि का ध्यान रखना चाहिए। यह उपलब्धि अधिक संयम से ही प्राप्त कर सकना सम्भव है। इसलिए गृहस्थ रहते हुए भी ब्रह्मचारी की स्थिति बनाये रहकर अपना, अपने साथी का और भावी सन्तान का भविष्य उज्ज्वल बनाने की बात सोचनी चाहिए। काम-सेवन क्षुद्र मनोरंजन के लिए इंद्रिय तृप्ति के लिए नहीं किया जाना चाहिए। उसका सदुपयोग तो प्राण प्रत्यावर्तन द्वारा एक दूसरे के अभावों को पूर्ण करने में ही किया जाना चाहिए। यह प्रयोजन केवल प्राणवान और प्रबुद्ध पति-पत्नी मिलकर ही कर सकते हैं। अपने देश और समाज और वंश का मुख उज्ज्वल कर सकने वाली सन्तान उत्पन्न करना हर किसी के वश की बात नहीं है। इसके लिए इन्द्रिय संयम की साधना करनी पड़ती है। और प्राण को परिपुष्ट करने वाली सत्प्रवृत्तियों से भरा-पूरा व्यक्तित्व बनाना पड़ता है। वस्तुतः सुयोग्य सन्तानोत्पादन भी एक साधन है जिसके लिये संयमी ही नहीं मनस्वी भी बनना पड़ता है।
दो वस्तुयें मिलने से तीसरी बनने की प्रक्रिया रसायन कहलाती है। केमिस्ट्री इस विज्ञान का नाम है। रज और वीर्य मिलने से भ्रूण की उत्पत्ति होती है और नौ महीने की अवधि पूरी करके वही भ्रूण बालक के रूप में प्रसव होता है। यह स्थूल गर्भधारण या प्रजनन हुआ। इसके अतिरिक्त भी एक प्राण प्रत्यावर्तन होता है। जिसे अनेक अवसरों पर अनेक रूपों में देखा जा सकता है। शिष्य के प्राण में गुरु अपना प्राण प्रतिष्ठापित करके उसकी प्रतिभा, मेधा और विद्या को प्रखर बनाता है। यह कार्य स्कूली मास्टर नहीं कर सकते। वे तो बेचारे मात्र जानकारी दे सकने वाले पाठ भर पढ़ा सकते हैं। वह विद्या जो शिष्य को गुरु के सामान ही प्रखर बना दे, केवल तपस्वी गुरुओं द्वारा ही उपलब्ध हो सकती है। योगी अपने साधकों को शक्तिपात करते हैं, वे अपनी तप शक्ति शिष्य को देकर बात की बात में उच्च भूमिका तक पहुँचा देते हैं। मरणासन्न रोगी को रक्त दान देकर पुनर्जीवन प्रदान किया जा सकता है। इसी प्रकार दुर्बल प्राण को सबल प्राण बनाने का कार्य शक्ति प्रत्यावर्तन जैसी प्रक्रिया से सम्पन्न करती है। काम-सेवन का ऊँचा स्तर यही है। वह बच्चे पैदा करने के लिए नहीं, दो प्राणों के समन्वय से एक नवीन प्रतिभा विकसित करने के लिए किया जा सकता है। सतोगुणी और सौम्य दंपति एक प्राण साधना के रूप में यदि काम-सेवन करते भी हैं तो इसका प्रयोजन एक अद्भुत प्रतिभा को जन्म देना होता हैै, जो आवश्यकतानुसार एक या दो शरीरों में पैदा की जा सकती है। यह उच्चस्तरीय शिशु जन्म है। ऐसा काम-सेवन अभिशाप न होकर वरदान भी हो सकता है। विष को भी यदि संशोधन करके भेषज बना दिया जाय तो वह विघातक न रह कर संजीवन बूटी बन सकता है। काम-प्रक्रिया को विष बनाकर अपने मरण का साज न संजोयें बल्कि उसे अमृत बनाकर दो व्यक्तित्वों के असाधारण उत्कर्ष एवं विश्व-कल्याण में कर सकने में समर्थ एवं प्राण प्रयोजन सिद्ध करें। यह पूर्णतया अपने बस की बात है और अपनी बुद्धिमत्ता दूरदर्शिता पर निर्भर है।