तुम दीपक से जलते जाओ (Kavita)

September 1967

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जब-जब सौ सौ बाँह पसारे

खड़ा तिमिर हो बीच राह में,

तुम दीपक से जलते जाओ।

उठती झंझाओं को आखिर मिट इक दिन जाना ही होगा।

बढ़े प्रलय तो, उसे सहम कर आखिर रुक जाना ही होगा॥

मंजिल दूर भले हो लेकिन उर में दृढ़ विश्वास यही है।

क्षुब्ध धरा के इस आँगन में सुख को फिर आना ही होगा।

पग-पग से तुम डगर नापते,

अंगारों पर चलते जाओ॥

तुम दीपक से जलते जाओ।

ज्योति तुम्हारी बिखरे, जो भूतल से अम्बर तक छा जाये।

और सिसकती मानवता फिर विहंसे मंगल मोद मनाये॥

पर यह भी सच है, इसमें तुमको तिल-तिल कर जलना होगा।

हो सकता है, क्रूर काल तुमको ठोकर भी देता जाये।

पर तुम गिर-गिर कर फिर-फिर,

उठ-उठ कर पुनः संभलते जाओ!

तुम दीपक से जलते जाओ।

जग में जीते वही परिस्थितियों से जो टकराया करते।

चट्टानों को तोड़ लात से अपना मार्ग बनाया करते॥

उन सुमनों का ही सौरभ अब तक छाया सारे कानन में।

जो काँटों से बिंधते, लेकिन म्लान न हो मुस्काया करते॥

सौरभ का आगार ढूँढ़ना जो चाहो,

तो काँटों में भी पलते जाओ।

तुम दीपक से जलते जाओ।

-अनिल पटेरिया ‘निर्झर’

*समाप्त*


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