विपत्तियों को कैसे जीता जाय?

September 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उन्नति और विकास का मार्ग कठिनाइयों के कंकरीले पथ से ही जाता है। जो व्यक्ति जीवन में कठिनाइयों से घबराता है उसे उन्नति की आकाँक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्नति का अर्थ ही ऊंचाई है, जिस पर चढ़ने के लिये अधिक परिश्रम करना पड़ता है। समतल पर चलने की अपेक्षा कहीं अधिक पसीना बहाना पड़ता है। पतन की ओर चलने में मनुष्य को न तो कोई विशेष श्रम करना पड़ता है और न उसे अधिक विलम्ब लगता है। यदि दो आदमियों में से एक को निम्नगामी और दूसरे को ऊर्ध्व गामी मार्ग पर चलाया जाये तो जहाँ एक निश्चित दूरी पर पहुँचने के लिये निम्नगामी को एक दिन लगेगा वहाँ ऊर्ध्वगामी को चार दिन लग जायेंगे। जहाँ निम्नगामी को कोई परिश्रम न करना होगा वहाँ ऊर्ध्वगामी पसीना-पसीना हो जायेगा।

उन्नत मार्ग में कठिनाईयाँ स्वाभाविक हैं। यदि ऐसा न होता तो संसार में सभी महान बन सकते, कोई साधारण सामान्य अथवा पतित होता ही नहीं। कठिनाईयों पर विजय पाना ही उन्नतिशीलता है।

मनुष्य एक देव है और पशु भी। किन्तु इन दोनों में जो अन्तर है वह यह कि मनुष्य एक प्रगतिशील तथा उन्नतिप्रिय प्राणी है, जब कि पशु आदि से अन्त तक प्रकृत अवस्था में रहता है। प्रगति क्या है, उन्नति किसे कहते हैं इस विषय में वह कुछ भी नहीं जानता। वह जिस अवस्था में उत्पन्न होता है अन्तिम दिन तक उसी अवस्था में रहता है। कठिनाइयों को समझने, उनसे लड़ने और बचने के विषय में विचार करने की बुद्धि उसमें नहीं होती । अपनी भय वृत्ति की प्रेरणा से ही वह किसी संकट का अनुमान कर पाता है और उसी की प्रेरणा से बचाव के लिये भागता, छिपता या लड़ता मरता है। जिस समय उसकी यह भय वृत्ति उसको भागने की प्रेरणा देती है वह भाग खड़ा होता है और जिस समय लड़ने मरने की प्रेरणा देती है लड़ने मरने लगता है। उसका यह काम बुद्धि संगत नहीं होता। वह धैर्यपूर्वक विचार करके अपना कर्तव्य नहीं कर पाता। संकट से भागने अथवा लड़ने में उसकी कायरता अथवा वीरता का समावेश नहीं होता। वह भागता है तो भय की प्रेरणा से और लड़ता है तो भी उसी की प्रेरणा से।

मनुष्य की विशेषता है बुद्धिपूर्वक निश्चय करके कोई कर्तव्य करना। जो आवेगों, आवेशों और प्रकृत प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर कोई काम करता है उसे मनुष्य के रूप में होने पर भी पशुओं की कोटी में ही मानना चाहिए। बाहर से मनुष्य दिखने पर भी अन्दर से वह पशु ही है। उन्नति की कामना मनुष्य की दिव्य विशेषता है। अपने को मनुष्य मानने वाले व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह जीवन में अधिक से अधिक उन्नति करने का प्रयत्न करे।

जैसे कि निश्चित है उन्नति का मार्ग कठिनाइयों के बीच से जाता है। अतएव प्रत्येक उन्नतिकाँक्षी व्यक्ति को कठिनाइयों को समझने और उनसे लड़ने की क्षमता प्राप्त कर लेना चाहिए।

कठिनाइयाँ क्या हैं? कठिनाइयाँ जीवन की वे प्रतिकूल परिस्थितियाँ हैं जो ध्येय पथ पर चलते हुए व्यक्ति के लिये गतिरोध उत्पन्न करती हैं। यह परिस्थितियां मनुष्य-जन्य तथा निसर्ग-जन्य दोनों प्रकार की हो सकती हैं। मनुष्य जन्म परिस्थितियाँ उन अवरोधों को कह सकते हैं जो एक मनुष्य दूसरे के मार्ग में स्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष अथवा अहंकार से प्रेरित होकर छल-कपट, वंचना, प्रतारणा आदि विश्वासघात, अपवाद, विरोध अथवा विवाद आदि के रूप में उपस्थित करता है। निसर्गजन्य अवरोध आकस्मिक आधि-व्याधि अथवा दुर्घटनाओं को कह सकते हैं। इस प्रकार के गतिरोध किसी भी मनुष्य के जीवन में किसी भी समय सम्भाव्य हैं। अतएव इनका सामना करने के लिये मनुष्य को प्रत्येक क्षण प्रस्तुत रहना चाहिए।

संकट हजार प्रकार के हो सकते हैं। कौन-सा संकट किस समय उपस्थित हो सकता है। इसका पूर्वाभास सदैव सम्भव नहीं और न यही सम्भव है कि हर संकट का सामना करने के लिये कोई मनुष्य उनके अनुरूप हर प्रकार का प्रबंध पहले से करके रख ले। अस्तु कोई न कोई एक ऐसा उपाय निकालना ही बुद्धिमानी होगी जो किसी भी प्रकार के संकट का सफल और सदा सहायक उपचार हो और यह एक मात्र सर्वतोमुखी उपचार-मनुष्य का अपना दृष्टिकोण ही है।

मनुष्य के दृष्टिकोण से ही मित्र शत्रु और शत्रु मित्र दिखने लगता है। यह मनुष्य के दृष्टिकोण का ही फल है कि कभी अच्छी बात बुरी और बुरी बात अच्छी लगने लगती है। यह मनुष्य का दृष्टिकोण ही मानना चाहिये कि कभी वह साधारण घटना में ही घबरा उठता है और कभी बड़े-बड़े संकटों में भी हंसता रहता है। अच्छाई, बुराई, शत्रुता, मित्रता, सम्पत्ति, विपत्ति, कठिनता, सरलता, प्रतिकूलता, अनुकूलता आदि सारे द्वन्द्व मनुष्य के अपने दृष्टिकोण के ही प्रतिबिम्ब हैं वैसा इनका कोई अपना स्वरूप नहीं होता। यदि मनुष्य अपने में समता का दृष्टिकोण विकसित कर ले तो सारी विषमतायें आप से आप ही नष्ट हो जायें।

जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते रहते हैं जब मनुष्य का चित्त बहुत खिन्न हो जाता है। कार्यों में निरुत्साह और हृदय में विषाद छा जाता है चारों ओर निराशा और प्रतिकूलता ही दृष्टिगोचर होने लगती है। इस प्रकार की स्थिति किसी भी उन्नतिकाँक्षी व्यक्ति के लिये हानिकारक है। इस प्रकार के प्रतिगामी वातावरण से समय और सामर्थ्य दोनों की क्षति होती है। हर कदम पर आगे बढ़ने वाले को प्रत्येक क्षण प्रफुल्ल, प्रसन्न और उत्साहित रहना बहुत आवश्यक है।

संसार में जो भी विषमतायें दिखाई देती हैं वह सब हमारे दृष्टिकोण का ही प्रतिफल है। अंधेरे में बैठकर सारी दुनिया अंधेरी और उजाले में रह कर देखने से उजेली मालूम होती है। यदि शत्रु के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल कर मित्रतापूर्ण हो जाये तो शत्रु को देखकर हमें जो ईर्ष्या द्वेष अथवा घृणा होती है वह बदल जाय, जिसके फलस्वरूप हमारे हृदय की प्रसन्नता अक्षुण्ण बनी रहे और उसके अभाव में होने वाली हानि से हम बच जायें।

यही बात परिस्थितियों और कठिनाईयों के विषय में भी लागू होती है। कठिनाईयों को जब हम अपना विरोधी मान कर उनके प्रति अपना दृष्टिकोण भिन्नतापूर्ण बना लेते हैं तो उनके उपस्थित होते ही हम क्षुब्ध और अधीर हो उठते हैं, जिससे हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है और हम उनका हल निकाल सकने में असमर्थ हो जाते हैं। हल के अभाव में ही कठिनाईयाँ गतिरोध बन कर हमारा पथ अवरुद्ध कर लेती हैं।

यदि कठिनाइयों के प्रति हम अपना दृष्टिकोण सौम्य रक्खे, उन्हें सावधान, सचेत और अधिक गतिशील बनाने वाला देवदूत समझें तो उनके आने पर हम लाभ ही उठा सकते हैं।

समतापूर्ण दृष्टिकोण मनुष्य का सबसे बड़ा हित साधक है। इसकी उपलब्धि मनुष्य को तब ही होती है जब वह संसार की प्रत्येक कार्य विधि को ईश्वर की इच्छा मानता है। अनुकूलताओं को गले लगाने और प्रतिकूलताओं से घृणा करने वाला मनुष्य जीवन में कभी उन्नति नहीं कर सकता। संसार में एकमात्र अनुकूलताओं की आशा लेकर चलने वाले मनुष्य को विफलताओं की मरुभूमि में भटकना ही पड़ेगा। अपने सम्पूर्ण मन मस्तिष्क से जो अनुकूलताओं का ही उपासक बना रहता है और प्रतिकूलताओं के लिये जरा भी स्थान नहीं रखता उसे सदा सम्भाव्य प्रतिकूलता के अवसर पर विचलित होकर अस्त-व्यस्त हो जाने के लिये सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। अनुकूलताओं में प्रसन्न और प्रतिकूलता में रोने वाले व्यक्ति भूले की तरह आगे-पीछे जाते हुए एक ही स्थान पर रहते हैं न वे आगे बढ़ पाते हैं और न उन्नति कर पाते हैं।

संसार के प्रत्येक घटनाक्रम में ईश्वरीय आदेश का दृष्टिकोण रखकर ही अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए।

ऐसी दशा में उसे खिन्न और हतोत्साह होने का कोई अवसर न होगा। खिन्नताओं, व्यग्रताओं, भयों और विषादों से मुक्त रहकर जो प्रत्येक परिस्थिति में परिपूर्ण रहकर कार्य करता है वह अवश्य उन्नति के शिखर पर पहुँचता और यह अहेतुकी प्रसन्नता का दृष्टिकोण, ईश्वर में अडिग विश्वास और संसार के प्रत्येक क्रिया-कलाप को उसकी ही इच्छा समझने से उपलब्ध हो सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118