समाज परिवर्तन में बुद्धिजीवियों की भूमिका

September 1967

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राष्ट्रों, राज्यों और जातियों के जीवन में आदि काल से उल्लेखनीय धार्मिक सामाजिक, साँस्कृतिक और राजनैतिक क्रान्तियाँ हुई हैं। उन परिवर्तनों में श्रेय भले ही एक व्यक्ति या वर्ग के मार्ग दर्शन को मिला हो, सच्ची बात यह रही है कि बुद्धिजीवियों, विचारवान व्यक्तियों ने उन क्रान्तियों को फैलाया, जन-जन तक फैलाया और सफल बनाया।

सर्वसामान्य जनता में विवेचन की शक्ति नहीं होती । आहार-विहार जैसे मोटे विषयों में उचित अनुचित, संयम-असंयम, लाभ-अलाभ का साधारण ज्ञान भी जिन्हें न हो उन्हें व्यापक उन्नति, सार्वभौमिक परिस्थितियों और उच्चतर जीवन प्रणाली की आचार संहिता समझाना कोई साधारण बात नहीं है। यह कार्य दो वस्तुओं में धुरी की तरह केवल प्रबुद्ध व्यक्ति ही कर सकते हैं। समुद्र अपने आप में अथाह है अगम्य है पर वह स्वतः धरती की प्यास बुझाने में असमर्थ है। उसके लिए मध्यस्थ जलधार की आवश्यकता होती है।

बादल समुद्र से जल लेकर प्यासी भूमि की तृष्णा हरते हैं। भूमि सूर्य किरणों से जीवन प्राप्त कर अन्न उगा देती है। पौधे धरती से रस लेकर मधुर फल देते हैं। पहाड़ का जल लेकर नदियाँ चलती हैं। और सारे प्रान्तों में बाँट आती हैं। इन मध्यस्थों का महत्व अपने उद्गम से कम नहीं, क्रिया शक्ति के सहयोग में उससे कुछ अधिक ही है। प्रकट में तो वही मुख्य कारण होते हैं।

यह एक सामान्य सिद्धान्त है। उसके स्थूल दर्शन राष्ट्रों के इतिहास में संभव है। संसार में आज जितने प्रगतिशील देश हैं वे सब एकाएक ही इतने समृद्ध और उन्नतिशील नहीं बन गये, उन्हें प्रबुद्ध व्यक्तियों ने उठाया है इसके इतिहास विद्यमान हैं।

रूस की सामाजिक अर्थव्यवस्था शिक्षा, वैज्ञानिक प्रगति की मिसाल दी जाती है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि इस शताब्दी के पूर्व वहाँ तीन चौथाई जनता से भी अधिक लोग अशिक्षित थे, निर्धन और वैज्ञानिक क्षेत्र में बिलकुल पिछड़े थे। एकाएक तीव्र परिवर्तन हुआ जिसके पीछे बुद्धिजीवियों की एक सुव्यवस्थित क्रान्ति टिकी हुई है। पढ़े-लिखे लोगों के त्याग लगन और परिश्रम का चमकता हुआ अध्याय जुड़ा हुआ है।

1920 से लेकर 1960 तक केवल शिक्षा जगत में जो क्रान्ति हुई उसका लेखा प्रस्तुत करते हुये विद्वान रूसी लेखक ए. पुत्को ने एक स्थान पर बताया है कि 1920 में 10 लाख में केवल 3000 व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने उच्चतर स्कूल की शिक्षा प्राप्त की थी इसके बाद प्रबुद्ध व्यक्तियों के माध्यम से सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का संगठन हुआ और देश में अकाल विनाश की परिस्थितियों में भी निरक्षरता उन्मूलन के पाठ्यक्रम गाँवों में, क्लबों, निवास गृहों और औद्योगिक संस्थाओं में प्रसारित किये गये। तथाकथित साँस्कृतिक क्रान्ति का उद्देश्य राष्ट्र में वैज्ञानिकों, लेखकों और कलाकारों की आवश्यकता की पूर्ति करना भी था। इस आंदोलन में लेनिन, कोन्सतान्तिन त्सियोल्कोवस्को एवं इवान पवलोव जैसे अगुआ थे पर सफलता का श्रेय थोड़े से व्यक्तियों को दिया जाता है, जिन्होंने सम-विचारक पैदा करने और साँस्कृतिक क्रान्ति का प्रसार करने में अथक परिश्रम और त्याग दिखाया। फल यह हुआ 1940 में 110000 और 1960 तक उच्चस्तर शिक्षितों की संख्या 334000 तक पहुँची, इन्हें विशेषज्ञ स्नातक कहा जाता है।

यह उत्पादन केवल शिक्षा का है। विज्ञान, उद्योग विकास इंजीनियरिंग कला संस्कृति के क्षेत्र में रूस ने जो उन्नति की वह भी आज सारी दुनिया के सामने है। रूस यह बात मानता है कि यह परिवर्तन थोड़े से बुद्धिजीवियों के श्रम और सहयोगी से ही संभव हुआ है।

विश्व का दूसरा समृद्ध और संभ्रांत राष्ट्र अमेरिका है। वहाँ के सामाजिक साँस्कृतिक, कानूनी औद्योगिक शिक्षा और वैज्ञानिक क्षेत्र में जो तीव्र परिवर्तन हुये हैं उसका इतिहास भी काफी पुराना नहीं है।

लगभग 1920 में अमेरिका के कुल 9 व्यक्ति राजधानी वाशिंगटन में “सरकारी अनुसंधान संस्थान” की रूपरेखा लेकर एकत्रित हुए थे। इन्होंने “बुकिंग इन्स्टीट्यूशन” नामक संस्था की स्थापना की। इसमें सरकार उलटने की कोई बात न थी। संस्थान का उद्देश्य अमेरिका के कानूनी प्रशासन, शिक्षा, विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना था। इन क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को “बुकिंग इन्स्टीट्यूशन” ने केवल व्यवस्थित ढाँचा देकर प्रकाशित किया और उसे उभारा वहाँ के प्रबुद्ध व्यक्तियों ने। इस अभियान ने अमेरिका में बौब बुड, जौन गार्डनर, चाली हौर जैसे कर्मठ और प्रभावशाली व्यक्ति पैदा कर दिये। कहा जाता है कि इन लोगों ने क्रान्ति को वैसा ही मोड़ दिया जैसे कुछ समय पूर्व ब्रिटेन में ‘प्रोटेस्टेन्टों’ ने किया था। चूँकि संस्थान के विषय सार्वजनिक नीति अर्थव्यवस्था, परिवहन निर्वाचन कानून, सरकारी नौकरी मालिक मजदूरों के सम्बन्ध आदि थे इसलिये कोई भी व्यक्ति उससे अछूता न रहा और ऐसी आन्धी आई कि कानूनी मामले ही नहीं सामाजिक रहन-सहन और राष्ट्रीय प्रगति में ठोस परिवर्तन हुये । अमेरिका की इस प्रगति का इतिहास भी प्रबुद्धों के पसीने से लिखा गया है।

इन राष्ट्रों ने राष्ट्रीय समस्याओं, नये सृजन, नये आविष्कारों के समाधान के लिये बौद्धिक शक्ति का उपयोग किया और उससे बहुमुखी विकास का वातावरण बनाया। आज दोनों देश समृद्धि के उच्चशिखर पर हैं।

क्यूबा एक छोटा सा देश है। उसकी शक्तियाँ सीमित थीं पर बुद्धिजीवियों की शिक्षा व्यवस्था ने कमाल का इतिहास प्रस्तुत किया । जितने पढ़े लिखे लोग थे अशिक्षितों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर पढ़ाने में लग गये। आज क्यूबा में एक अशिक्षित व्यक्ति नहीं है। निरक्षरता क्यूबा से निर्वासित कर दी गई यदि पूछा जाय किसने? तो एक ही उत्तर मिलेगा। प्रबुद्ध नागरिकों ने।

चीन और जापान में भी जो राजनैतिक परिवर्तन और सामाजिक सुधार हुए हैं उनमें बुद्धिजीवियों का ही योगदान मुख्य रहा है। सच बात तो यह है कि सृष्टि के आदि से अब तक समाज की रीति-नीति, व्यवस्था आदि का संचालन प्रबुद्ध व्यक्तियों के ही हाथ रहा है। उनकी मनोदिशा कैसी रही मार्गदर्शन कैसा रहा? उपलब्धियों का स्वरूप क्या रहा? इन सब विषयों में तर्क और विवाद हो सकता है पर यह निर्विवाद सत्य है कि अच्छी बुरी जैसी भी परिस्थितियाँ उठी हैं। उनको प्रसारित बुद्धिजीवियों ने किया है।

समस्त क्षमताओं की तुलना में विवेचन की क्षमता मनुष्य की बुद्धि से सबसे अधिक घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है। इसलिए प्रबुद्ध व्यक्ति कठिन और मार्गदर्शक जटिल समाधानों को भी सम्बद्ध व्यक्ति के लिए सरल बना देता है। अथवा उसे अपने समीप वातावरण की बौद्धिक बनावट, रीति-रिवाज, रहन-सहन का अधिक पता होता है इसलिए वह महापुरुषों के क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को सरल बना कर प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा लेता है यह भूमिका ही किसी भी देश व परिस्थितियों के उत्थान व पतन में मुख्य सहयोगी रही है चाहे वह रूस की शिक्षा और साँस्कृतिक क्रान्ति रही हो, चाहे अमेरिका की औद्योगिक और आर्थिक क्रान्ति।

समाज की कुँठाओं को काटने की तेजी भी यदि किसी में हो सकती है तो वह प्रबुद्ध व्यक्ति ही हो सकते हैं उन्हें छोड़ कर या उनके बिना कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना सम्भव नहीं।


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