जीवन जीने की उत्कृष्ट रीति-नीति

September 1967

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एको द्वे वसुमती समीची इन्द्र आ पप्रौ पृथिवी मुतद्याम्।

॥ ऋ. वेद 3।30।31

पृथ्वी और द्यौलोक धन देते हैं। जब वर्षा होती है तो पृथ्वी अन्न देती है। किन्तु मनुष्य को चाहिए कि वह अन्य साधनों से भी अन्न प्राप्त करे, केवल दैव पर ही निर्भर न रहे।

इन्द्रा युवं वरुणा भूतमस्या धियः प्रेतारा

वृषभेव धेनोः।

सा नो दुहीयद् सवसेव गत्वी सहस्रधारा

पयसा मही गौः॥

॥ ऋ . वेद 4।41।5

हमारी प्रार्थना में बल हो, भावना हो ताकि देवता हमारी अभीष्ट कामना पूरी करें।

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।

पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि॥

॥ ऋ . वेद 5।51।15

हे मानवो! सूर्य और चन्द्रमा जिस प्रकार नियमित रूप से अपने निर्धारित पथ पर चलते रहते हैं उसी प्रकार तुम्हें भी न्याय का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए। सज्जनों के साथ समागम करने में कभी आलस्य न करें।

यस्ते यज्ञेन समिधा य उम्थैरर्केभिः सूनो

सहसो ददाशत् ।

य मर्त्येष्वमृत प्रचेता रायाद्यु म्नेन

श्रवसा विभाति

॥ऋ . वेद 6।5।5

जो अपने सद्गुणों के आधार पर श्रेष्ठ कर्म करने का प्रयत्न करते हैं उन्हें संसार में विद्या धन और यश मिलता है।

मा नो निदे च वक्तवेऽर्यो रन्सीररावणे

त्वे अक्रतुर्मम

॥ऋ. वेद 7।31।35

हे मनुष्यों! तुम कभी किसी को कटु वचन मत बोलना, किसी की निन्दा न करना, कृतघ्न न बनना। दुःखी लोगों की सहायता करते रहना। तुम्हारा प्रत्येक शुभ कर्म परमेश्वर को समर्पित हो।

ऋतावान ऋतजाता ऋतावृधो घोरोसो अनृतद्विषः।

तेषाँ वः सुम्ने सुच्छर्दिष्टमे नरः स्याम ये च सूरयः

॥ ऋ . वेद 7।66।13

हम सत्यमानी, सत्यवादी और सत्याचरण करने वाले हों। ऐसे ही व्यक्तियों की सदैव संगति प्राप्त हो।

मृत्योः पदं योपयन्तो यदैत द्राघीय आयुः प्रतरं

दधानाः।

आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता

भवतं यज्ञिपासः

॥ ऋ. वेद 10।18।2

जो लोग दुराचार को मिटा कर सदाचार पर स्थिर रहते हैं वे उत्तम जीवन और दीर्घ आयुष्य प्राप्त करते हैं। धन और संतान युक्त होकर शारीरिक और मानसिक पवित्रता प्राप्त करते हैं।

इमं जीवेभ्यः परिधं दधामिमैषाँ नुगाद परो अर्थ मेतम्।

शतं जीवन्तु शरदः पुरचीरन्तमृत्युँ दधताँ पर्वतेन

॥ ऋ. वेद 19।18।4

मनुष्य का जीवन बहुत महत्वपूर्ण है इसे नीचता पूर्ण कर्मों में गंवाना अच्छी बात नहीं। इसलिये पुरुषार्थी बनकर सौ वर्ष जिएं अर्थात् दुराचार त्याग कर सदाचारी हों इससे मनुष्य पूर्ण आयु प्राप्त करता है।

उतत्वः पश्यन् न ददर्श वाचमुत त्वः

श्ररावन न श्रृणोत्येनान

॥ऋ॰ वेद 10।71।4

जो सदुपदेश सुने तो किन्तु अपने जीवन में धारण न करे वह अन्धे, बहरे के समान है।


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