ते सज्जन मन प्रान-प्रिय

September 1967

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यह तो केवल लौकिक रीति है कि लोग सौंदर्य, धन सम्पत्ति और साँसारिक वैभव पर रीझते हैं। परमात्मा की नीति उससे भिन्न है। वह केवल गुणों से प्यार करते हैं। स्थूल साधनों से की गई थोड़ी सी स्तुति और साधना से मनुष्य जीता जा सकता है। देवता मनाये जा सकते हैं किन्तु परमात्मा का प्यार केवल गुणी और संतत सदाचारी व्यक्ति को मिलता है। सद्गुणी व्यक्ति बिना किसी तप साधना के भी परमात्मा को जीत लेते हैं और उसके प्राणप्रिय बन जाते हैं।

इस तथ्य को रामायण विशद् विस्तार के साथ गाती है, अरण्य काण्ड में नारद के पूछने पर भगवान राम बताते हैं- मुझे इन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति भाते हैं-

निज गुण श्रवण सुनत सकुचाहीं।

परगुण सुनत अधिक हरषाहीं॥

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीति।

सरल सुभाव सबहिं सन प्रीति॥

जप तप व्रत संयम अरु नेमा।

गुरु गोविन्द विप्र पद प्रेमा॥

श्रद्धा क्षमा मयत्री दाया।

मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥

विरति विवेक विनय विज्ञाना।

बोध जथारथ वेद पुराना॥

दंभ मान पद करहिं न काऊ।

भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला।

हेतु रहित पर हित रत सीला॥

इन चौपाइयों में भगवान ने साधना उपासना की उपयोगिता तो बताई है, पर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मुझे पाने के लिये श्रद्धा, विश्वास, संयम, विरति, विनयशीलता, प्रसन्नता और सरल स्वभाव आदि गुणों का आविर्भाव भी आवश्यक है।

गुणों के प्रति अपने अपार प्रेम की पुष्टि करते हुए वह उत्तर काण्ड में भरत से बताते हैं-

विषय, अलंपट सील गुनाकर।

पर दुःख दुःख सुख सुख देखे पर॥

सम अभूतरिपु विमद विरागी।

लोभामरष हरष भय त्यागी।।

कोमल चित्त दीनन पर दाया।

मन बच क्रम मम भगति अमाया॥

सबहिं मान प्रद आप अमानी।,

भरत प्राण सम मम ते प्राणी॥

विगत काम मम नाम परायन।

साँति विरति विनती मुदितायन।।

सीतलता सरलता मयत्री।

द्विजपद प्रीति धर्म जनयत्री॥

सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।

परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥

दोहा-

निंदा स्तुति उभय सम ममता मम पदकंज।

ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुँज॥

कामी संयमी, शीलवान् जो दूसरों के दुःख में दुःखी सुखी होते हैं, शत्रु मित्र में पक्षपात न करने वाले, अभिमान रहित लोभ लालच रहित विनयी, दयावान, मन, वचन और कर्म से ईश्वरनिष्ठ, दूसरों को बड़प्पन देकर स्वयं छोटे बने रहने वाले, शाँत, सरल विनयशील, विश्वमित्र, ज्ञानवानों के प्रति श्रद्धा है जिनके अन्तःकरण में, विषय विकारों के दमन में जिनकी रुचि है, भूलकर भी जो अनीति की राह पर पग नहीं धरते, कठोर शब्द नहीं बोलते, हे भरत! ऐसे सज्जन व्यक्ति मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं।

इसी बात को इस तरह कहा जाय तो भी ठीक ही है कि ईश्वरीय विभूति की इच्छा करने वाले प्रत्येक साधक को, जिज्ञासु को उपासना, तज की तरह गुणों के परिष्कार की साधना अनिवार्य रूप से करनी चाहिये। गुण रहित उपासना कभी किसी की फलित नहीं हो सकती पर उपासना रहित गुण मनुष्य की जीवात्मा को ऊर्ध्वगामी बना सकते हैं। उसे स्वर्ग और मुक्ति के पद पर प्रतिष्ठित कर सकते हैं।

लौकिक दृष्टि से भी ऐसे व्यक्ति घाटे में नहीं रहते। वह संसार को उसी प्रकार प्रकाश देते हैं जिस तरह रात की अंधियारी को मिटाकर भोर की पौ फूटती है। उनकी सर्वत्र प्रशंसा और प्रतिष्ठा होती है, गुणी व्यक्ति सबको प्यारे लगते हैं। बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-

साधु चरित सुभ चरित कपासू।

निरस बिसद गुनमय फल जासू॥

जो सह दुःख पर छिद्र दुरावा।

वंदनीय तेहि जगजस पावा॥

काकभुसुण्डि जी के प्रश्न करने पर उत्तर काण्ड में इस की पुष्टि और भी खुल कर हुई -

पर उपकार बचन मन काया।

संत सहज सुभाव खगराया॥

संत सहहिं दुःख परहित लागी।

पर दुःख हेतु असन्त प्रभागी।

संत हृदय संतत सुखकारी।

विश्व सुखद जिमि इन्दु तमारी।

दुर्गुणों में सने लोग तो अपनी शक्यों सामर्थ्यों को कुँठित कर लेते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा से तो गिरते ही हैं उनकी अपनी दलित आत्मा ही इतना बोझ बन जाती है कि यह शरीर जो विश्वात्मा की अनुभूति के लिये महामन्त्र के रूप में मिला है, भार हो जाता है। यह बात सज्जन पुरुषों के लिये नहीं। अरण्यकाण्ड में राम नारद जी से कहते हैं-

षट विकार जित अनघ अकामा।

अचल अकिंचन शुचि सुख धामा॥

अमित बोध अनीह मित भोगी।

सत्यसार कवि कोविद योगी॥

सावधान मानद मद हीना।

धीर धर्मगति परम प्रवीना॥

गुनागार संसार दुःख रहित विगत संदेह।

तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥

रामायण भी कहती है कि ऐसे गुणी व्यक्तियों का सान्निध्य जिसे मिल जाये उसे अपने ऊपर परमात्मा की कृपा ही समझनी चाहिए और प्रयत्नपूर्वक उनके सत्संग का लाभ उठाना चाहिए-

संत विटप सरिता गिरी धरनी।

पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥

संत हृदय नवनीत समाना।

कहा कविन्ह परि कहैं न जाना॥

निज परिताप द्रवइ नवनीता।

पर दुःख द्रवहिं सन्त सुपुनीता॥

गिरजा सन्त समागम सम न लाभ कछु आन।

बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं वेद पुरान॥

लोगों का यह तर्क है कि संसार में संत सज्जन लोग ठगे जाते हैं और असंत, धूर्त लोग मौज उड़ाते हैं, यह तथ्य कसौटी पर खरा नहीं उतरता। गुणी व्यक्ति न तो कभी अभावग्रस्त रहता है, न ठगा जा सकता है । अन्ततः वह धरती के स्वर्गीय सुखों का भी उपभोग करता है। बालकाण्ड में एक प्रसंग आता है। विश्वामित्र जी श्री राम और लक्ष्मण को दशरथ जी से दुष्टों के विनाश और सत्कर्मों की रक्षा के लिये माँग ले गये। सब जानते थे कि निशाचरों के साथ संघर्ष में राम और लक्ष्मण को कष्ट होगा, पर तो भी उन्होंने परोपकार व परमार्थ का पथ नहीं त्यागा । राम ने असुरों को भगाकर यज्ञों की रक्षा की। उधर जनकपुरी में भी उन्हें धनुष भंग का यश मिला और सीता जी के साथ विवाह हुआ। यह समाचार गुरु वशिष्ठ ने सुना तो वह भाव-विभोर हो गये और उनकी वाणी फूट पड़ी-

सुनि बोले गुरु अति सुख पाई।

पुण्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं।

यद्यपि ताहि कामना नाहीं॥

तिमि सुख सम्पति बिनहि बुलाये।

धरम सील पहिं जाहिं सुभाये॥

उपर्युक्त पंक्तियों का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य अपने गुणों का परिष्कार करते हुए साँसारिक सुखों का निष्काम भाव से उपभोग करे, ऐसे व्यक्ति को परमात्मा स्वयं अपने पास बुला लेता है, अपना प्यार प्रदान करता है।


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