गायत्री का शक्तिस्रोत-सविता देवता

September 1967

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गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान महाशक्ति के रूप में किया जाता है। “सूर्य मण्डल मध्यस्था” विशेषण के साथ ही उसे समझा और समझाया जाता है। साकार उपासना करने वाले-पुस्तक, पुष्प, कमंडलु, माला धारण किये हुये मातृ-शक्ति का सूर्य मंडल के मध्य में विराजमान ध्यान करते हैं। निराकार उपासना करने वाले चिदाकाश एवं महदाकाश में प्रतिष्ठित तेज मंडल के रूप में उसका ध्यान करते हैं। उपासना का क्रम निराकार हो अथवा साकार दोनों ही स्थितियों में सूर्य मंडल की स्थापना अनिवार्य रूप से रहेगी। प्रकाश के तेजोवलय को समन्वित किये बिना गायत्री महाशक्ति का ध्यान हो ही नहीं सकता।

गायत्री भावयेद्देवी सूर्यांसारकृताश्रयाम।

प्रातर्मध्याह्वे ध्यानं कृत्वा जपेत्सुधीः॥

“बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थित गायत्री देवी का प्रातः, मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान कर के जप करना चाहिए।”

(शाकानन्दतरंगिणी 3।4।1)

जप के साथ ध्यान अनिवार्यतः किया जाता है। वह जप किस काम का जिसके साथ ध्यान जुड़ा हुआ न हो। नाम और रूप दोनों का जोड़ा है। भगवान का नामोच्चारण करते समय उसके रूप की भी धारणा करनी पड़ती है। साकार उपासना करने वाला गायत्री माता को सूर्य मंडल के मध्य में अवस्थित मान कर अथवा उनके मुखारविन्द के चारों ओर तेज मंडल की भावना कर के ध्यारों का उद्देश्य पूरा करते हैं। निराकार उपासना करने वाले प्रकाश बिन्दु तथा उदीयमान सूर्य जैसे विशाल तेज मण्डल का ध्यान करते हुए जप के द्वारा उपासना क्रम चलाते हैं। गायत्री महामन्त्र की उपासना विधि यही है कहा है-

सविता सर्वभूतानाँ, सर्वभावाच्श्च सूयते।

सवनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोच्यते॥

“जब प्राणियों में सब प्रकार के भावों को सविता ही उत्पन्न करता है। उत्पन्न और प्रेरणा करने से ही यह सविता कहा जाता है।”

वरेण्यं वरणीयच संसार भय भीरुभिः।

आदित्यार्न्तगतं यच्च भर्गाख्यिं वा मुमुक्षुभि॥

“संसार के भय से भीत और मोक्ष की कामना वालों के लिए सूर्य मण्डल के अंतर्गत जो श्रेष्ठ तेज है वह वन्दनीय है।”

देवस्य सवितुर्यच्च भर्गमर्न्तगत विभुम्।

ब्रह्मवादिन एवाहुर्वरेण्यम् तच्च धीमहि॥

“सविता देव के अंतर्गत तेज को ब्रह्मज्ञानी वरेण्य अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं, उसी का हम ध्यान करते हैं।”

सन्ध्या योग में इसका और भी अधिक स्पष्टीकरण किया गया है और बताया गया है कि जिस भावना का हम ध्यान करते हैं वह मन को एकाग्र करने के लिए कोई प्रकाश गोलक मात्र नहीं वरन् वह परम तेजस्वी परमात्मा है जो हमारी बुद्धि, अन्तःचेतना, भावना एवं आस्था को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है।

चिन्तायामो वयं भर्गो धियो योनः प्रचोद्यात्।

धर्मार्थ काम मोक्षेषु बुद्धि वृत्ती पुनः पुनः॥

“हम उस तेज का ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बार-बार प्रेरणा करता है।”

बुद्वेर्बोधयिता यस्तु चिदात्मा पुरुषो विराट्।

सवितुस्तद्वरेण्यन्तु सत्यधर्माणमीश्वरम्॥

“बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने वाला जो विराट चिदात्मा पुरुष है, वही सत्य धर्म वाला ईश्वर रूप वन्दनीय सविता है।”

अगस्त्य और पाराशर ऋषियों ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। गायत्री महामन्त्र का ध्यान करते समय जिस सविता को धारण करने की प्रेरणा है वह रोशनी एवं गर्मी ही नहीं देता वरन् हमारी अन्तः चेतना को उत्कृष्टता की दिशा में वह प्रेरणा भी देता है जिससे जीवनोद्देश्य को प्राप्त कर सकना सम्भव हो सके।

यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचराः।

प्रेरयेत्तस्य यर्द्भगस्तं वरेण्यमुपास्महे॥

-अगस्त्य

“सविता नामक जो देवता हमारी बुद्धि को धर्मादि में लगाते हैं उनके वन्दनीय तेज की हम उपासना करते हैं।”

देवस्य सवितुर्भर्गो वरणीयच धीमहि।

तद्स्माकं धियो यस्तु ब्रह्मत्वेव प्रचोदयात्॥

-पाराशर

“सविता देवता के प्रशंसनीय तेज का हम ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि को ब्रह्मत्व में प्रेरित करे।”

प्रत्येक वेद मन्त्र का एक देवता है जिसकी शक्ति से ही यह मन्त्र सिद्ध एवं फलित होता है। गायत्री महामंत्र का देवता ‘सविता’ है। ‘तत् सवितुः’ इस आरम्भिक पद में उस सविता का उल्लेख करते हुए आगे उसी का ध्यान और धारणा करने का निर्देश दिया गया है। गायत्री की शक्ति इस सविता देवता पर ही अवलम्बित है।

सविता कहते हैं “सूर्य” को। गायत्री को एक प्रकार से सूर्य का मन्त्र भी कहा जाता है। ‘पुनातु माँ तत् सवितुर्वरेण्यम्’ इस अन्तिम पद वाले स्तोत्र में सूर्य देवता का ही स्तवन किया गया है। इसलिये कितने ही उपासक सूर्य की आराधना के लिये गायत्री का उपयोग करते हैं। गायत्री को माता रूप में मानने वाले साधक भी उसका रूप “सूर्य मण्डल मध्यस्था” सूर्य मंडल के बीच में अवस्थित स्वरूप का, मातृदेवी के रूप में ही ध्यान करते हैं। किसी भी रूप में गायत्री मंत्र की उपासना की जाय ‘सूर्य’ का उससे अविच्छिन्न सम्बन्ध अनिवार्य रूप से रखना होगा। गायत्री का देवता ही सूर्य है तो उसका स्वरूप भी साथ में होना स्वाभाविक है।

स्थूल विज्ञान की दृष्टि से सूर्य एक अग्निपिण्ड है, जो आकाश में अवस्थित अनन्त आकाश गंगाओं में से ‘स्याइरल’ नामक एक आकाश गंगा के परिवार के लगभग डेढ़ खरब तारों में से एक छोटा-सा तारा मात्र है। इसका व्यास करीब 9 लाख मील अर्थात् पृथ्वी की तुलना में 110 गुना बड़ा है। उसके परिवार में 9 ग्रह हैं तथा प्रत्येक ग्रह के अनेक उपग्रह हैं। बुध, शुक्र और पृथ्वी का एक-एक चन्द्रमा है। मंगल के दो, बृहस्पति के बारह, शनि के नौ, वरुण के पाँच, हरिग्रह के दो और पीतग्रह के चार। इनके अतिरिक्त हजारों छोटे ग्रह तथा ग्रहिकाएं एवं अगणित, धूमकेतु, पुच्छल तारे इस सौर परिवार में सम्मिलित हैं। यह सब सूर्य की प्रबल आकर्षण शक्ति में जकड़े हुए उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। अपने इस सारे परिवार को लेकर सूर्य ‘स्याइरल’ आकाश गंगा की परिक्रमा करता है। इस एक परिक्रमा में उसे पच्चीस करोड़ वर्ष लगते हैं। ज्योतिषियों का अनुमान है कि जबसे सूर्य पैदा हुआ है तब से अब तक वह सोलह ऐसी परिक्रमाएं कर चुका है।

स्थूल पदार्थ विज्ञान अभी तक सूर्य के सम्बन्ध में ऐसी ही जानकारियाँ एकत्रित कर सका है। तथा उसकी किरणों से सप्त रंग, विद्युत प्रवाह एवं आणविक विकरण का कुछ हद तक पता लगा सका है इस दिशा में और भी जानकारी एकत्रित की जा रही है पर यह सब सूर्य के स्थूल रूप का ही परिचय है। जैसे मनुष्य की सत्ता का विश्लेषण करने के लिए उसके शरीर सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं माना जा सकता, उसकी विद्या, बुद्धि, गुण, कर्म, स्वभाव, प्रवृत्ति, भावना, चेतना एवं आत्मा का पता लगाना भी आवश्यक होता है। इसके बिना केवल शरीर विश्लेषण के आधार पर जो परिचय प्राप्त किया जायगा वह अधूरा ही रहेगा। इसी प्रकार सूर्य की आत्मा का भी जानना आवश्यक है। इसके बिना गायत्री मन्त्र का साधक इस अग्नि पिण्ड सूर्य के जान लेने मात्र से अपना प्रयोजन पूर्ण नहीं कर सकता।

एक अनन्त चैतन्य, जीवन एवं शक्ति का समुद्र इस विश्व में लहरा रहा है। जड़ प्रकृति का परमाणु संकुल, उस चेतन सत्ता की तरंगों से ही तरंगित होकर गतिवान हो रहा है। जड़ पदार्थों में अपनी निज की कोई शक्ति या चेतना नहीं है। जब प्रलय होती है तो वह सब राख के ढेर के समान निष्प्राण, गतिहीन हो जाता है। संसार में जो कुछ हलचल हो रही दीखती है उसके मूल में वह चेतना का महाभाँडागार ही काम कर रही है। जैसे देह के निर्जीव कलेवर में आत्मा का ही संसार गतिशील रहता है वैसे ही जड़ प्रकृति में जो चेतना होती दिखाई पड़ती है उसका कारण वह चेतना सागर ही है जिसके लिए गायत्री मन्त्र में ‘सविता’ शब्द का प्रयोग हुआ है। यह प्रकाश पिण्ड सूर्य उस सविता का एक बाह्य-शरीर-स्थूल कलेवर मात्र है।

सूर्य की गर्मी और रोशनी हर किसी को दीखती है, यह उसकी स्थूल शक्ति है। इसके भीतर एक और भी सूक्ष्म सत्ता उसके अन्तर में मौजूद है वह है- जीवनीशक्ति। प्राणियों को उत्पन्न करने, पोषण और अभिवर्धन करने का विश्वव्यापी कार्यक्रम उस सूर्य की आत्मा पर ही आधारित है। रोशनी और गर्मी मशीनों से भी पैदा की जा सकती है, पर उनसे जीवन नहीं मिल सकता। वैज्ञानिक जानते हैं कि यदि सूर्य न होगा तो पृथ्वी पर जीवन का भी कोई चिन्ह शेष न रहेगा।

स्विता सर्वभावानाँ सर्वभावाँश्च सूयते।

सवनात् प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोच्यते॥

-(बृहत् योगि याज्ञवल्क्य)

“सविता (सूय) से ही सब पदार्थ-दृश्य और अदृश्य की उत्पत्ति हुई है, प्रसव-धर्म के कारण उसका नाम सविता हुआ है।”

श्रुति में सूर्य को “संसार की आत्मा” बताया गया है। आकाश में दौड़ने वाले सूर्य के बाह्य कलेवर को गर्मी और रोशनी का पिण्ड कह सकते हैं, पर उसकी आत्मा जगत का जीवन है। इस जीवन-शक्ति का दूसरा नाम प्राण-शक्ति भी है। सूर्य की आत्मा को ही महाप्राण कहा गया है। उस महाप्राण की बूंदें विभिन्न प्राणियों में अल्प प्राण के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं।

गय कहते हैं प्राण को। त्री कहते है-त्राण उद्धार उत्थान करने वाली को। प्राणशक्ति का उत्थान करने वाली विद्या को गायत्री कहा जाता है। अपने देवता सविता से गायत्री महामन्त्र में प्राण शक्ति अभिप्रेत होती है। और उसी का एक अंश अपने में धारण करके गायत्री उपासक अपने आपको धन्य बनाता है।

सूर्य के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण पर-ब्रह्म परमात्मा का वह अंश है जिससे इस विश्व-ब्रह्माँड का संचालन होता है। एक से अनेक बनने का ब्रह्म-संकल्प ही महाप्राण बन कर फूट पड़ा है। यह निर्झर जिस दिन तक झर रहा है उसी दिन तक सृष्टि है। जिस दिन परम प्रभु उस संकल्प को समेट लेंगे उसी दिन महाप्राण शाँत हो जायगा और फिर महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहेगा। यह ब्रह्मा-संकल्प-महाप्राण-परब्रह्म की सत्ता से भिन्न कोई बाहरी पदार्थ नहीं वरन् उसी का एक अविच्छिन्न अंग हैं। परमात्मा अनंत है उसकी सत्ता असीम है। उस अनन्त, असीम, अचिन्त्य का एक भाग जो सृष्टि के संचालन में, उसकी समस्त प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित रखने में लगा हुआ है, उस महाप्राण को ही सूर्य की आत्मा-सविता देवता समझना चाहिये। प्राणी का जीवधारी का-सीधा सम्बन्ध इसी से है।

जीवन की बाह्य और आँतरिक सुव्यवस्था के लिए प्रगति और शाँति के लिए परब्रह्म की महाप्राण सत्ता को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना प्राणी के लिए अभीष्ट होता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए गायत्री महामन्त्र द्वारा सविता देवता की उपासना की जाती है।

यह भ्रम नहीं रहना चाहिए कि गायत्री महामन्त्र की शक्ति इस अग्नि-पिण्ड सूर्य पर अवलम्बित है। यह तो रोशनी और गर्मी मात्र देता है। यह सब तो बिजली की मशीनों से भी प्राप्त किया जा सकता है। इतने मात्र के लिए किसी उपासना की क्या आवश्यकता थी? गायत्री सूर्य की आत्मा- सविता शक्ति के साथ उपासक को सम्बन्धित करती है जिसके द्वारा वह परब्रह्म महाप्राण को अपने शरीर और अन्तःकरण में आवश्यक मात्रा में धारण करके लौकिक सुख एवं आत्मिक शाँति को अनुभव करता हुआ जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

यह महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरुषार्थ, इन्द्रिय शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है जब वह मनः क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो उत्साह, स्फूर्ति, प्रफुल्लता, साहस, एकाग्रता, स्थिरता, धैर्य, संयम आदि सद्गुणों के रूप में देखा जा सकता है। जब उसका अवतरण आध्यात्मिक क्षेत्र में होता है तो त्याग, तप, श्रद्धा, विश्वास, दया, उपकार, प्रेम, विवेक आदि के रूप में दिखाई देता है। तीनों ही क्षेत्र उस महाप्राण से जैसे-जैसे भरते जाते हैं वैसे ही मनुष्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर, लघुता से विभुता की ओर, तुच्छता से महानता की ओर बढ़ने लगता है। आत्मकल्याण का, लक्ष्य प्राप्ति का यही मार्ग है। गायत्री के द्वारा सविता देवता को-महाप्राण को उपलब्ध करने का प्रयोजन ही यही है।

सविता देवता यद्यपि सूर्य का ही दूसरा नाम है। पर यह भली प्रकार समझ लेना चाहिये कि जो अन्तर शरीर और आत्मा का है वही सूर्य और सविता का है। गायत्री महामन्त्र का देवता सूर्य वही महाप्राण है। उसका स्पष्टीकरण शब्दों में स्थान-स्थान पर विस्तारपूर्वक किया गया है।

योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽहम्।

-मैत्रेयी उपनिषद् 6।35

“जो सूर्य है सो मैं हूँ।”

प्राणी वै अर्क।

-शतपथ 10।4।7।23

“प्राण ही सूर्य है।”

सएष वैश्वनरो विश्व रुपः प्राणेऽग्निरुदयते।

-प्रश्नोपनिषद् 1।7

सूर्य के उदय होने पर सारे विश्व में प्राणाग्नि का संचार होने लगता है।’

सहस्ररश्मि शतघा वर्तमानः।

प्राणः प्रजानामुदंयत्येष सूर्यः॥

-शत. 6।71/20

“प्राण ही सहस्र रश्मियों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान प्रजा को उत्पन्न करने वाला सूर्य है।”

भोऽसौ तपन्नुदेति ससर्वेषाँ भूतानाँ प्राणाना दायो देति।

-श्रुति.

“इस सूर्य से ही सब प्राणियों का प्राण प्राप्त होता है।”

सएष वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणाग्नि रुदयति।

“यह प्राण ही सर्वव्यापी अग्नि के रूप में प्रकट होता है।”

आदित्यो वै बाह्यप्राण उदयत्येषत्द्येनं चाक्षुषं प्राणामनुगृह्णीते।

-प्रश्नोपनिषद् 1/7

“बाह्य जगत में यह प्राण आदित्य रूप होकर दशों दिशाओं में विद्यमान है।”

विश्व रुपं हरिणं जात वेदसं

परायणं जयोतिरेकं तपन्तम्।

सहस्र रश्मिः शतधा वर्तमानः

प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः॥

-प्रश्नोपनिषद् 1।8

‘विश्वरूप, व्यापक, सर्वाधार, प्रकाशवान् तप्त किरणों वाला यह सूर्य समस्त जीवों का प्राण होकर उदय होता है।’

सूर्याद् भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु।

सूर्ये लयं प्राप्नुवन्तियः सूर्यः सोऽहमेव च॥

-सूर्योपनिषद्

“सूर्य ही से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उसी से उनका पालन होता है, उसी में वे लय हो जाते हैं, जो सूर्य है सो ही मैं हूँ।”

गायत्री का देवता सविता-सूर्य-विश्व के जीवन का, ज्ञान और विज्ञान का केन्द्र है। अन्य समस्त देव शक्तियों का केन्द्र भी वही है। चारों वेदों में जो कुछ वह सब भी इस सविता शक्ति का विवेचन मात्र है। तप, श्रद्धा और साधना के द्वारा योगीजन इसे ही प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। नाम रूप सुविधानुसार कोई भी माना जाय पर वस्तुतः यह सविता देवता ही सबका उपास्य है। उसी को प्राप्त करने के लिये प्रत्येक साधक को प्रयत्नशील होना पड़ता है। देखिये-

उद्यन्तं वादित्यं मग्निरनु समारोहति।

सुषुम्नः सूर्य रश्मिः चन्द्रमा गर्न्धवः॥

“इस सूर्य के अंतर्गत ही अग्नि, सुषुम्ना, चन्द्र, गंधर्व आदि हैं।”

ऋग्भिः पूर्वान्हेदिवि देव ईयते,

यजुर्वेदेतिष्ठति मध्यअहः।

सामवेदेनास्तमये महीयते, वेदैरसून्यस्त्रिभिरेति सूर्यः॥

-श्रुति

“यह सूर्य प्रातः ऋक् से, मध्याह्न को यजु से और सायंकाल साम से युक्त होता है।”

ऋचोऽस्य, मण्डलं सामान्यस्य मूर्तिर्यजूणिच।

त्रयीमयोऽयं भगवान् कालात्म कलकृद्विभुः॥

-सूर्य सिद्धांत

“ऋक् सूर्य का मण्डल और यजुः तथा साम उसकी मूर्ति है। वही काल रूप भगवान है।”

नत्वा सूर्य परंधाम ऋग् यजुः साम रुपिणम्।

-सूर्य पुराण

“ऋक् यजु साम रूपी परंधाम सूर्य को नमस्कार है।”

सएष वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणोअग्नि रुदयते।

तदेतदृचान्युक्तम्।

-प्रश्नोपनिषद् 1।7

“यह उदय होने वाला सूर्य ही वैश्वानर (जठराग्नि) और विश्व रूप प्राण है। यही ऋचाओं में कहा गया है।”

अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मा नमन्विष्यादित्यमभिः जयन्ते एतद्वै प्राणानामायतनमेतदमृतम मयमेतत्परायण मेतस्यान्न पुनरावर्तन्त इत्येषनिरोधः।

“तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा तथा विद्या द्वारा जो आत्मा की खोज कर उस आदित्य को प्राप्त करते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते, यह आदित्य ही प्राणों का आश्रय है। वही मोक्ष है, वही पद है, जीव को उसी से परम आश्रय मिलता है।”

भवद्भूतं भविष्यं च जंगमंस्थावरं चयत्।

अस्यैकं सूर्यमैवैकं प्रभवं प्रलयंविदुः।

असतश्च सतश्रैव योनिरेषा प्रजापतिः।

तदक्षरं चाव्ययंच यच्चैतद ब्रह्मशाश्वतम्।

कृत्वैवहि त्रिधात्माननेषु लोकेषुतिष्ठति।

वेदान् यथायथं सर्वान् निवेश्य स्वेषु रश्मिषु।

-सूर्योपनिषद्

“जो जड़ चेतन पदार्थ इस संसार में अब मौजूद हैं, भूतकाल में थे या भविष्य में होंगे वे सभी सूर्य से उत्पन्न हुए और उसी में लीन होते हैं। यह सूर्य ही प्रजापति है। यह सत् असत् की योनि है। अक्षर, अव्यय, शाश्वत, ब्रह्म यही है। यह तीनों लोकों में व्याप्त है। समस्त देवता इसी की किरणें हैं।”

आदित्योह्यदि धूतत्वात् प्रसूत्या सूर्य उच्यते।

परंज्योतिः तमः पारे सूर्येऽयं सवितेति च॥

-सूर्य सिद्धाँत

“वह समस्त जगत का आदि कारण है इसलिए उसे आदित्य कहते हैं। सबको उत्पन्न करता है इसलिए सविता कहते हैं। अन्धकार को दूर करता है इससे उसे सूर्य कहा जाता है।”

अथादित्य उसेयन्यत्प्राचीदिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणन रश्मिषु संनिधत्ते। यद्दक्षिणाँ यत्् प्रतीची यदुदीची यदधो यद्दृर्थं यदन्तरा दिशो यर्त्सवप्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषुसंनिधत्ते।

-प्रश्नोपनिषद् 1।16

“पूर्व उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरणों से पूर्व पच्छिम, उत्तर, दक्षिण नीचे ऊपर तथा उनके कोणों की सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है। उसकी किरणों में समस्त जगत का प्राण धारण किया जाता है।

अपश्यं गोपायमनिपद्यमान

माच पराच पथिभिश्चरन्तम्।

स सध्रचीः स विषूचीर्व सान

आनरीवर्ति भुवनेष्वन्तः॥

-ऐतरेय

“मैंने प्राण को देखा है। साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट नहीं होता। यह नाड़ियों द्वारा शरीर में दौड़ता रहता है। मुख और नासिका द्वारा यह आता और जाता है। यह शरीर में वायु रूप है पर ब्रह्माँड में सूर्य रूप है।”

इस सविता की उपासना में संलग्न ऋषि, मुनि योग के द्वारा अपनी आत्मा को उस तेजपुँज महाप्राण परब्रह्म में प्रविष्ट करते हैं। शुकदेवजी अपनी साधना को पूर्ण करते हुए जिस स्थिति में प्रविष्ट हुए उसका उल्लेख महाभारत में इस प्रकार मिलता है-

तस्माद् योग समास्थायत्यनत्वागृहकलेवरम्।

वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाकरम्॥

-महा.

शुकदेवजी ने कहा- “मैं योग में स्थित होकर इस देह को त्याग कर तेजो-राशि सूर्य में वायुभूत होकर प्रवेश करता हूँ।”

उपनिषद्कारों ने इस महा उपास्य सविता देवता की उपासना का निर्देश करते हुए उसकी महान महत्ता पर भी प्रकाश डाला है और उसे आत्मिक मलीनताओं का वितरणकर्त्ता माना है।

सूर्यश्चव मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः

पापेभ्यो रक्षन्ताम। यद्रात्र्या पापमकार्षम्।

मनसावाचा हस्ताभ्याम्। पद्भ्यामुदरेण शिश्न।

रात्रिस्तवलुम्पतु। यत् किंच दुरितं मयि।

इदमहं माममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषी जुहोमि स्वाहा।

-(तै. आ. प्र. 10 अ 32)

“जगत का प्रेरक सूर्य उन पापों से मेरी रक्षा करे जो क्रोधादि वृत्तियों द्वारा उत्पन्न हुये हैं। जो रात्रि में मैंने पाप किया है, मन, वाणी और हाथों द्वारा, पैर, उदर और उपस्थेन्द्रिय द्वारा (किया है) रात्रि में वह लुप्त हो जाय। यह मैं अपने आपको अमृत की योनि में-जो कि सूर्य-ज्योति रूप परमात्मा है उसमें- आहुति रूप देता हूँ- स्वाहा बोल कर देता हूँ।”

य इह वा व स्थिरचरनिकराणाँ निजनिकेनानाँ मन-इन्द्रियासुरगणननात्मनः स्वयमात्माऽन्तर्यामी प्रचोदयात्॥

-(ब्रह्मोपनिषद्)

“आप सबके आत्मा हो और अन्तर्यामी हो। जगत में जितने चराचर प्राणी हैं वे सब आपके ही आधार पर रहते हैं। और उनके अचेतन जैसे मन, इंद्रिय और प्राणों के आप ही प्रेरक हो।”

त्रिकाल संध्या में प्रातः मध्याह्न, सायंकाल के लिए तीन प्रतीकों का उल्लेख है। प्रातः ब्राह्मी, मध्याह्न वैष्णवी और सायं शाँभवी गायत्री के हंसारूढ़, गरुणारुढ़, वृषभारूढ़ स्वरूपों का वर्णन है। वस्तुतः यह तीन वेदों का ही त्रिविध स्वरूप है। सविता देवता प्रातः ऋग्वेद, मध्याह्न यजुर्वेद और सायंकाल सामवेद स्वरूप होता है। वेदों में जिन तीन विज्ञान का भण्डार है उसे साधक के अन्तःकरण में अभिप्रेत करता है। ऋग् से ज्ञान योग, यजु से कर्मयोग, साम से भक्ति योग का सम्बन्ध है। सविता देवता का ध्यान हमारी मनोभूमि को इन तीनों योगों की साधना के उपयुक्त बनाता है। इन्हीं तीनों तथ्यों का ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में उल्लेख है। ऋग्-ब्रह्मा, यजु-विष्णु और साम-शिव है। इन तीनों के द्वारा त्रिकाल संध्या द्वारा गायत्री उपासना करने वाले को ज्ञान, वैभव एवं सद्गुणों की उपलब्धि होती है। इसी आधार पर एक ही पर ब्रह्म महत्व सविता को तीन प्रकार से तीन चित्रों में चित्रित किया गया है-

ऋग्भिः पूर्वान्हे दिवि देव ईयते,

यजुर्वेदे तिष्ठति मध्य अन्हः।

सामवेदेनास्तमेय महीयते,

वेदैरसून्यस्त्रिभिरेति सूर्यः॥

“पूर्वाह्न (प्रातःकाल) में सूर्य ऋक् द्वारा मध्याह्न में यजुः द्वारा, मध्याह्न में यजुः द्वारा, अस्त काल में सोम द्वारा युक्त होते हैं।”

महर्षि याज्ञवलक्य ने इसी सविता की उपासना का विधान वर्णन करते हुये उसकी महत्ता,विशेषता एवं उपलब्धियों को संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित शब्दों में इस प्रकार वर्णन किया है-

ऊँ नमो भगवते आदित्याखिल जगतात्मस्वरुपेण कालस्वरुपेण चतुर्विधि भूतनिकायानाँ ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्तानामर्न्तहदयेषु बहिरपि चाकाश दवोपाधि नाऽव्ययधीयमानो भवानेक एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणे नामामादानविसर्गाभ्यामिमाँ लोकयात्राममुवहाते।

(याज्ञवलक्य)

“मैं ऊँकार स्वरूप भगवान को नमस्कार करता हूँ। हे भगवन्! आप समस्त जगत के आत्मा और काल स्वरूप हो। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने प्राणी हैं उन सबके हृदय में और बाहर भी आकाश के समान व्याप्त रह कर, फिर भी सब उपाधियों से पृथक होकर आप एक अद्वितीय ईश्वर हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष, इत्यादि अवयव वाले संवत्सरों द्वारा तथा जल के खींचने तथा प्रदान के द्वारा समस्त जगत का जीवन चालन करते हो।

प्रत्येक गायत्री उपासक को जप के साथ ध्यान भी करना चाहिए यह ध्यान चाहे माता के रूप में साकार हो अथवा प्रकाश पुँज के रूप में निराकार। दोनों ही स्थितियों में ‘सूर्य मंडल मध्यस्था’ की भावना के साथ परम तेजस्वी, सद्बुद्धि प्रेरक, सविता देवता की ध्यान-धारणा अवश्य करनी चाहिए। सावित्री और सविता का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। दोनों का अविच्छिन्न युग्म है। इसलिये गायत्री तप के साथ-साथ सविता की ध्यान-धारणा को भुलाया न जाना चाहिए।


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