परमात्मा को जानने के लिये अपने आपको जानो।

September 1967

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सन्त वास्वानी से एक दिन कुछ लोगों ने प्रश्न किया “भगवान क्या है?” “भगवान ज्योतियों की ज्योति है-मध्यवर्ती सूर्य है” उन्होंने उत्तर दिया। लोगों ने फिर प्रश्न किया “इस ज्योति से, इस मध्यवर्ती सूर्य से अपना नाता कैसे जोड़ें?” वास्वानी ने पुनः समझाया- “बस सूर्यमुखी बन जाओ । जैसे सूर्यमुखी सदैव सूर्य के प्रति मुख किये रहता है यद्यपि उसकी देह में अन्य क्रियाएं अपनी-अपनी मर्यादा में चलती रहती हैं, जड़ें रस खींचती रहती हैं। पत्तियाँ साँस लेती रहती हैं। हवा में वह हिलता डुलता रहता है पर उसका सूर्यमुखी नाम इसीलिये पड़ा क्योंकि वह सदैव सूरज की ओर मुख किये रहता है, इसी तरह परमात्मा को पाने के लिये सदैव परमात्मा की ओर मुख किये रहो।

“किन्तु सूर्यमुखी बनें कैसे?” लोगों ने तीसरा प्रश्न किया। उन्होंने उत्तर दिया “अपने हृदय को तीव्र अभीप्सा से भर लो। एक बार खूब अच्छी तरह निश्चित कर लो कि मनुष्य जीवन का ध्येय अनन्त ऐश्वर्य, सुख सन्तोष, शांतिप्रद परमात्मा की प्राप्ति है। जब वह तुम्हारा लक्ष्य बन जायेगा तो भगवान की ओर मुख किये रहोगे और धन्य हो जाओगे।”

ईश्वर प्राप्ति की सच्ची आकाँक्षा का होना ही प्रधान बात है, परमात्मा कहीं अन्यत्र नहीं। उसे ढूंढ़ने प्राप्त करने और पहचानने का प्रयत्न नहीं किया जाता, इसीलिये अधिकाँश लोगों के हृदय अन्धकार से भरे हैं। लोगों के भीतर तामस का, रात का, अज्ञान का राज्य है। जब अपने हृदय को ही जीवन का केन्द्र बिन्दु बना लिया जाता है तो आनन्द स्वरूप परमात्मा का अस्तित्व वहीं झलकने लगता है, उसे ढूँढ़ने के लिये कहीं भागने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।

हमारा हृदय हमारी आत्मा के विश्वास का ही अंश है। जिस तरह सूर्य की किरणें सूर्य का अंश हैं, पर पृथक दिखती हैं, उसी तरह आत्मा भी परमात्मा का अंश है, पर पृथक दिखता है। अपने को अपनी गहनतर आत्मा को विश्वात्मा का अंश जान लेना ईश्वर को जान लेना है।

मनुष्य अपने शरीर के बाह्य क्रियाकलापों की व्यस्तता से कुछ क्षण बचाकर शरीर, भावनाएं, मन और बुद्धि इनके परे अपनी चेतना की गहराई में डूब सकता है, यह सभी उसके गुण हैं, विशेषताएं हैं, पर वह स्वयं इनसे पर है। वह इनसे परे जाकर अपने को इनसे भिन्न, शक्तिशाली और परम तेजस्वी, सर्वदृष्टा, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी विशुद्ध आनन्द स्वरूप प्रकाश अनुभव कर सकता है।

जिन लोगों ने अपने भीतर ईश्वर की शोध की है वे सब अन्ततः इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। सबने यही बताया है कि मनुष्य चिन्तन के द्वारा मन, बुद्धि और भावनाओं पर ध्यान जमाता हुआ आत्मा के अस्तित्व तक पहुँचता है और इस अनुभव के बाद इस बोध को प्राप्त करता है कि वह परमात्मा जिसमें आत्मा विकसित हो जाती है, आत्माओं से भी परे और सभी में एक ही प्रकार से व्याप्त है।

एक गाँव में एक बार नानक का आगमन हुआ। वे कहते थे- ईश्वर सबके अन्दर है। हिन्दू, मुसलमान का कोई भेद नहीं । उस गाँव के नवाब ने उनसे कहा- आपके लिये तो मन्दिर और मस्जिद एक बराबर हैं तो क्या आप आज हमारे साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने को तैयार हैं ? नानक ने बहुत आनन्दित होकर कहा- जरूर! जरूर!! परमात्मा की प्रार्थना में सम्मिलित होने से बड़ा आनन्द और क्या है?

फिर सब लोग मस्जिद गये और नमाज शुरू हुई। सब लोग नानक की नमाज देखना चाहते थे। किन्तु नानक चुपचाप एक कोने में खड़े हो गये और सबको देखने लगे। उनको इस प्रकार खड़ा देखकर नमाजिये बहुत गुस्सा हुए। वे नमाज भी पढ़ते जाते थे और बीच-बीच में नानक की ओर क्रोध से देख भी लेते थे। जल्दी-जल्दी किसी तरह बेचारों ने नमाज पूरी की और सब एक दम नानक पर टूट पड़े । किसी ने उन्हें धोखेबाज कहा, किसी ने वचन तोड़ने वाला। नवाब ने आँखें लाल पीली करके डाँटा, आपने नमाज क्यों नहीं पढ़ी? नानक हंसे और बोले आप लोगों ने भी नहीं पढ़ी, इसलिये हमने भी नहीं पढ़ी । आप लोगों का खेल देखता रहा, यदि आप नमाज पढ़ते रहते तो फिर मेरे लिये भी चुपचाप खड़ा रहना कठिन ही हो जाता।

उन नमाजियों की तरह जो लोग ईश्वर प्राप्ति की बात तो करते हैं किन्तु उनकी सारी उलझन जीवन के बाह्य क्रिया कलापों तक सीमित रहती है इसलिये उनका नानक, (उनका मन) भी आत्मानुभूति में खो नहीं पाता । जिस दिन शरीर और मन की सारी चेष्टाएं सिमट कर आत्मा में केन्द्रित हो जाती हैं, अन्धकार उसी दिन दूर हो जाता है और मनुष्य परमात्मा के निकट पहुँचा हुआ अनुभव करने लगता है।

‘मज्झिम निकाय’ में तथागत का एक सुन्दर उपदेश है, वह कहते हैं- कल्पना करो कि किसी मनुष्य के पैर में विष बुझा तीर चुभ गया है । यदि यह मनुष्य कहे, मैं तब तक तीर नहीं निकलवाऊँगा जब तक मुझे ज्ञात न हो जाये कि तीर चलाने वाले का नाम, कुल और गोत्र क्या था? वह ऊंचा था या मझले कद का। धनुष कैसा था प्रत्यंचा कैसी थी, तीर कैसा था?

लोग परमात्मा के सम्बन्ध में भी ऐसे ही तर्क-वितर्क वाद विवाद करते हैं पर अपने हृदय में जीवन के बोझ, दुःख, कठिनाइयों, दैवी आपत्तियों का जो तीर चुभा हुआ है उसे निकालने की ओर किसी का ध्यान नहीं। हमें सर्वप्रथम आत्मा के दर्द को अनुभव करने की आवश्यकता है। बाह्य जीवन के प्रपंचों को छोड़कर अन्तर्मुख होने की बड़ी आवश्यकता है। बाहरी क्रियाओं को केवल सहयोगी मानना चाहिये। वे लक्ष्य सत्य या परमात्मा की प्राप्ति की साधन बनाई जा सकती नहीं है। इसलिये अपने शरीर मन और भावनाओं के केन्द्र बिन्दु को बेधने की आवश्यकता है, यह जानने की आवश्यकता नहीं कि कौन सा तत्व कितना सुखद है, किस सुख की प्राप्ति के लिये किधर दौड़ना चाहिये। जब इन सब बातों को साधन बना लिया जाता है तो आवश्यकताएं भी घट जाती हैं और लक्ष्य भी अपने समीप ही स्पष्ट होने लगता है। उसे पाने के लिये न तो लम्बे साधनों के लिये दौड़ना पड़ता है और न घर ही छोड़ना पड़ता है।

उपनिषदों ने- आत्मावारे श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः नाम्वतोऽस्ति विजानतः। -कहकर इसी तथ्य को व्यक्त किया है और बताया है कि विभिन्न साधनों से तुम अपने आपको पहचानो। जिस दिन आत्मशक्ति का विश्वास जाग जाता है उस दिन परमात्मा के अस्तित्व का विश्वास धमते देर नहीं। विश्वास का जमना उतना ही आनन्ददायक है जितना परमात्मा की प्राप्ति।

मनुष्य अपनी छिपी हुई शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। जो जैसा अपने को जानता है या जिसकी जैसी अभीप्सा है वह वैसा ही बन जाता है। अपने को जानना सब सिद्धियों में बड़ी सिद्धि है। लाखों में एक-दो होते हैं जो अपने को जानने का यत्न करते हैं। यत्न करने वालों में भी थोड़े से ऐसे होते हैं जो आत्मा के अस्तित्व को पहचानने के लिये देर तक अपने आपको निर्दिष्ट किये रहते हैं। जिसने भी मनुष्य देह में जन्म लिया है वह आत्मा के समीप पहुँचा दिया गया है। किन्तु थोड़े ही हैं जो उसमें प्रवेश पाते हैं।


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