परिश्रम करने वाले ही आगे बढ़ते हैं।

September 1967

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जीवन में उन्नति करने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता है, उनमें परिश्रम का मुख्य स्थान है। प्रतिभा को उन्नति का आधार मानने वालों को यह बात न भूलनी चाहिए कि परिश्रम प्रतिभा का पिता है। जिस प्रकार रस्सी की रगड़ से कुँए पर पड़ी शिला पर निशान या चिन्ह बन जाता है। उसी प्रकार परिश्रम से प्रतिभा उत्पन्न होती है परिश्रम के अभाव में प्रतिभा बेकार पड़ी रहती है, पर काम करते-करते योग्यता का विकास हो जाया करता है। “करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान” का सिद्धाँत मात्र सूक्ति ही नहीं, बल्कि यह पुरुषार्थी एवं परिश्रमी व्यक्तियों का अनुभव सिद्ध सत्य है।

संसार में जो भी लौकिक-पारलौकिक विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, वे परिश्रम के आधार पर ही प्राप्त की जा सकती हैं। सम्पत्ति, समृद्धि अथवा सम्पन्नता तीनों परिश्रम एवं पुरुषार्थ की ही अनुगामिनी हैं। संसार में अब तक जो भी उल्लेखनीय व्यक्ति हुये हैं उन्होंने प्रतिभा की अपेक्षा परिश्रम पर अधिक विश्वास किया है। प्रतिभा भी अपना चमत्कार तभी प्रकट कर पाती है जब उसे परिश्रम का सहयोग प्राप्त होता है। नहीं तो संघर्ष के अभाव में अरणी में छिपी आग की तरह प्रतिभा भी मनुष्य के भीतर छिपी-छिपी बेकार बनी रहती है।

बम्बई के वेंकटेश्वर प्रेस एवं प्रकाशन गृह का संस्थापक तथा स्वामी जब मारवाड़ से रोटी-रोजी की तलाश में बम्बई आया था तब उसके पास न प्रतिभा थी और न पैसा। शरीर पर पहने हुये कपड़ों के सिवाय उसके पास और कुछ भी नहीं था। यदि उसके पास कुछ था तो केवल परिश्रमशीलता का ही सम्बल था।

कुछ समय तक बुकसेलर के पास नौकरी करने के बाद मितव्ययिता से बचाये पैसों से छोटी-छोटी पुस्तकें खरीद कर शहर में बेचना शुरू किया। वह युवक सुबह से शाम तक फेरी लगाता रहता था जब तक वह उस दिन की सारी पुस्तकें नहीं बेच लेता था। कुछ ही समय में कन्धे पर किताबों का झोला लटकाये निरन्तर फेरी लगाते हुये उस परिश्रमी युवक को लोग पहचानने और अधिकतर उससे ही पुस्तकें खरीदने लगे। उसके परिश्रम ने लोगों को प्रभावित किया और लोगों ने उसे सहानुभूति दी। धीरे-धीरे वह एक अच्छा पुस्तक विक्रेता बन गया। अपनी दुकान में अथक परिश्रम करते-करते उसने इतना कमा लिया कि अब बड़ी पुस्तकें बेचने तथा छपाने लगा। इस काम में भी उसने इस सीमा तक परिश्रम किया कि उसमें एक अच्छे प्रकाशन की प्रतिभा जाग उठी। निदान उसने अपने परिश्रम के बल पर साहस इकट्ठा कर के अपना स्वयं का प्रेस लगा लिया और धीरे-धीरे इतना विकास किया कि आज भी बम्बई का यह भारत प्रसिद्ध प्रेस तथा प्रकाशन गृह उसके परिश्रम तथा पुरुषार्थ की यशगाथा गा रहा है। उस प्रतिभा तथा पैसे से रहित युवक ने अपने परिश्रम के बल पर दोनों चीजें पाकर अपने जीवन को सफल करके दिखला दिया।

भारत के टाटा, बाटा, बिड़ला आदि धनकुबेरों ने अपने अनुभव बतलाते हुये यही कहा है कि वे लोग जन्मजात प्रतिभा तथा धन सम्पन्न नहीं थे। उनकी इस विशाल सम्पत्ति का मूलाधार वह अबाध परिश्रम ही रहा है जिससे उन्होंने कभी मुँह नहीं चुराया। परिश्रम करते-करते उनमें प्रतिभा का भी विकास होता गया जिससे वे इतने लम्बे-चौड़े कारोबार की स्थापना कर सके प्रबन्ध एवं संचालन में सफल हो सके।

पण्डित ईश्वरचन्द विद्यासागर जन्मजात प्रतिभा के धनीमानी कहे जाते हैं। किन्तु क्या उनकी वह प्रतिभा किसी काम आ सकती यदि वे अठारह-अठारह घंटे काम न करते । पैसे के अभाव में निवास स्थान पर प्रकाश का प्रबन्ध न कर सकने पर यदि वे सड़क पर लगी लालटेनों के नीचे रात-रात भर न पढ़ते तो क्या उनकी प्रतिभा उन्हें आगे बढ़ने और ऊंचे चढ़ने में सहायक हो सकती थी? निताँत निर्धन, दीन-हीन तथा अयोग्य माने जाने वाले अब्राहम लिंकन के पास प्रतिभा से अधिक परिश्रम का बल था। उसी परिश्रम के बल पर जंगल से लकड़ी काटना, शहर ले जाकर बेचना तथा बारह-बारह मील के इर्द−गिर्द में घूम कर किताबें लाना और रात-रात भर पढ़ना आदि उनकी परिश्रमशीलता के बल पर ही सम्भव हो सका। जीवन में सैंकड़ों बार अविराम असफल होने पर भी अन्त में अमेरिका के राष्ट्रपति के पद पर पहुँचने में अब्राहम लिंकन की प्रतिभा की अपेक्षा परिश्रम को अधिक श्रेय है। प्रतिभा के अभाव में परिश्रम एवं पुरुषार्थ लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ हो सकता है जब कि परिश्रम के अभाव में प्रतिभा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकती। यह सत्य एवं असंदिग्ध बात है।

यह समझना कि परिश्रम द्वारा सम्पत्ति कमा लेने के बाद परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, कमाई हुई सम्पत्ति के बल पर आराम से जिन्दगी बिताई जाये- ठीक विचार नहीं है। यदि एक बार सम्पत्ति अथवा सुविधा के साधन जुटा कर परिश्रमशीलता को त्याग दिया जायेगा तो वह सम्पत्ति कुछ दिन भी न ठहर सकेगी। कारण स्पष्ट है कि तब निठल्ला होकर व्यक्ति केवल खर्च करने पर ही लग जायेगा। खर्च चलता रहेगा। और आय रुक जायगी। फलतः सम्पत्ति का सारा संचय समाप्त हो जायेगा, इसके अतिरिक्त कभी अनेक ऐसी आकस्मिक घटनाएं हो जाती हैं जिनसे बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ नष्ट हो सकती हैं और तब परिश्रमशीलता के अभाव में आदमी अपनी क्षति पूर्ति न कर सकने के कारण दरिद्री ही बना रहता है।

निष्क्रिय बैठे रहने से मनुष्य को अनेक प्रकार के व्यसन घेर लेते हैं। उसका शरीर रोगों का शिकार बन जाता है। तब ऐसी दुर्दशा में उसकी सम्पत्ति पानी की तरह ही बहने लगती है। अपरिश्रमशील व्यक्ति कभी स्वस्थ नहीं रह सकता और आरोग्य के अभाव में वह अपनी सम्पत्ति का कोई सुख भोग भी नहीं कर सकता। इन दोषों से बचे रहने और अपने उपार्जन का सुख सन्तोष पाने के लिए मनुष्य को सदा परिश्रम करते रहना चाहिए।

संसार के बड़े-बड़े धनकुबेर, जिनके पास इतनी संपत्ति रही होती है कि केवल वे ही नहीं अनेक पीढ़ियाँ जीवन भर सुख-सुविधापूर्वक रह सकती हैं, अपने कारोबार में मजदूर से भी अधिक परिश्रम करते रहते हैं। जहाँ कोई मजदूर सामान्यतः आठ-दस घंटे ही काम किया करता है वहाँ बुद्धिमान व्यवसायी अठारह-अठारह घंटे काम में पिसा रहा करता है। उसका पूरा जीवन ही कार्य का प्रतिरूप बन जाया करता है। वे इस तथ्य को भली भाँति जानते हैं कि उन्होंने जिस परिश्रमशीलता के बल पर यह उच्चस्तरीय अवस्था प्राप्त की है वह उसका त्याग कर देने पर ठहर नहीं सकती। लक्ष्मी की कृपा उद्योगी सिंह पर ही होती है। अपरिश्रमी व्यक्ति तो दरिद्रता का ही कृपा पात्र हुआ करता है।

उन्नति की आकाँक्षा करने से पहले मनुष्य को अपने को परख कर देख लेना चाहिये कि ऊंचे चढ़ने के लिए जिस श्रम की आवश्यकता होती है उसकी जीवन वृत्ति उसमें है भी या नहीं। यदि है तो उसकी आकाँक्षा अवश्य पूर्ण होगी। अन्यथा इसी में कल्याण है कि मनुष्य उन्नति की आकाँक्षा का त्याग कर दे नहीं तो उसकी आकाँक्षा स्वयं उसके लिए कंटक बन जायगी।

सच्चा, सुगम तथा सुखदायक जीवन परिश्रमशील व्यक्ति का ही अधिकार है। ऐसा संतोषपूर्ण जीवन आलसी अथवा अपरिश्रमशील व्यक्ति नहीं पा सकते। जिसका जीवन समृद्ध, सुखी तथा सन्तोषपूर्ण दिखाई दे आप बिना किसी सन्देह के समझ लें कि यह भाग्यवान व्यक्ति परिश्रमी एवं उद्योगी है। क्योंकि वह जो कुछ सुख सन्तोष भोग रहा है, वह श्रम के अतिरिक्त कोई दूसरा देवता नहीं दे सकता। भारत के पूर्वकालीन ऋषि-मुनि परिश्रम एवं कर्तव्यपरायणता का महत्व भली भाँति जानते थे। इसीलिए वे जान बूझ कर अधिक से अधिक कम सुख-सुविधापूर्ण जीवन अपनाया करते थे। वे जंगलों में रहते अपने हाथ से स्वयं सब काम करते और कठिन जीवन साधना में लगे रहते थे। वे प्रायः उषाकाल से लेकर अर्ध रात्रि तक शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करते ही रहते थे।

ऋषि मुनि ही नहीं पूर्वकालीन राजा-महाराजा तक श्रमशीलता के महत्व को स्वीकार करते थे और इसीलिए राजमहलों में सब साधन होने पर भी वे राजकुमारों को ऋषियों के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजा करते थे। इसमें उनका मन्तव्य यही रहता था कि राजकुमार आश्रमों के कठिन जीवन में रह कर कर्मठ बन जायेंगे। जबकि राजमहलों में उनके आलसी एवं विलासी हो जाने का भय हो सकता है।

आश्रमों में राजकुमार, आश्रम की सफाई से लेकर लकड़ी काटने तथा पानी भरने आदि के सारे काम स्वयं अपने हाथों से ही करते थे। यह इसी परिश्रम के अभ्यास का ही फल होता था कि जन्मजात कमलवत् कोमल राजकुमार चट्टान की भाँति कठोर एवं कर्मठ बन जाते थे, जिसके बल पर वे जीवन की बड़ी से बड़ी विपत्ति में न तो विचलित होते थे और न भोग-विलास में लिप्त हो पाते थे। उनका जीवन खरादे हुए हीरे की तरह ही आजीवन तेजस्वी बना रहता था। परिश्रम मानव-चरित्र को चमकाने वाली खराद की तरह है। इस शान पर चढ़ा कर मनुष्य को अपने जीवन का मूल्य-महत्व बढ़ाना ही चाहिए।

अनेक लोग परिश्रमी होने पर भी परिश्रम के लाभ नहीं उठा पाते। इसमें दोष परिश्रम का नहीं होता, परिश्रम करने के ढंग का होता है, निरर्थक परिश्रम कभी भी फलवान नहीं हो सकता। परिश्रम वही फलीभूत होता है जिसके करने में मनुष्य की रुचि हो और जिसकी दिशा ठीक हो। विरत दशा अथवा अनुपयोगी दिशा में किया हुआ परिश्रम अवश्य निष्फल जाता है।

जो मनुष्य रो-झींक कर मजबूरी के साथ कराहता हुआ काम किया करता है वह चौबीसों घण्टों जीवन-भर परिश्रम क्यों न करता रहे कभी सफल नहीं हो सकता। उसका किया हुआ कोई काम सुचारु तथा उपयुक्त नहीं होगा। ऐसे बेकार कार्यों का पारिश्रमिक नगण्य ही होता है और ऐसे बेगारी लोगों को कोई भी नहीं पूछता। उनकी परिश्रमशीलता पसीने के सिवाय उन्नति अथवा समृद्धि के रूप में कभी फलीभूत नहीं होती। रसपूर्वक परिश्रम करने वाले के सारे काम सफल एवं सुचारु रूप से होते और समाज में उनका ठीक-ठीक मूल्याँकन किया जाता है। परिश्रमशीलता में रुचि, रस, उत्साह तथा व्यवस्था का समावेश होना बहुत आवश्यक है।

उचित दिशा में ही किया हुआ परिश्रम मनुष्य की उन्नति का कारण होता है। उपजाऊ, उर्वर तथा उदार दिशा ही परिश्रम की उचित दिशा है। मनुष्य की जिस दिशा में गति सम्भव और उपलब्धि निश्चित हो उसी दिशा में परिश्रम करना चाहिये। अनुदार अथवा वंध्या भूमि पर बोये हुये बीज कभी भी फलीभूत नहीं होते। मनुष्य को परिश्रमी होने के साथ अपने परिश्रम की दिशा का भी ज्ञान होना चाहिए। तभी वह जीवन में सफल एवं समृद्ध हो सकेगा अन्यथा अषाढ़ में बरसे मेघ की तरह उसका सारा श्रम व्यर्थ चला जायेगा।


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