विचार शक्ति का जीवन पर प्रभाव

September 1967

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विचार यद्यपि अगोचर होते हैं, किन्तु उनका प्रभाव गोचरता की पृष्ठभूमि पर स्पष्ट प्रकट होता रहता है, विचारों के प्रतिबिम्ब को प्रकट होने से रोका नहीं जा सकता। अविचारी व्यक्ति कितने ही सुन्दर आवरण अथवा आडम्बर में छिपकर क्यों न रहे किन्तु उसकी अविचारिता उसके व्यक्तित्व में स्पष्ट झलकती है।

नित्यप्रति के सामान्य जीवन का अनुभव इस बात का साक्षी है। बहुत बार हम किन्हीं ऐसे व्यक्तियों के संपर्क में आ जाते हैं जो सुन्दर वेश-भूषा के साथ-साथ सूरत शकल से भी बुरे और भद्दे नहीं होते, तब भी उनको देख कर हृदय पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं होती। यदि हम यह जानते हैं कि हम बुरे आदमी नहीं हैं। और इस प्रतिक्रिया के पीछे हमारी विरोध भावना अथवा पक्षपाती दृष्टिकोण सक्रिय नहीं है तो मानना पड़ेगा कि वे अच्छे विचार वाले नहीं हैं। उनका हृदय उस प्रकार स्वच्छ नहीं है जिस प्रकार बाह्य वेष। इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा व्यक्ति संपर्क में आ जाता है जिसका बाह्य वेष न तो सुन्दर होता है और न उसका व्यक्तित्व ही आकर्षक होता है तब भी हमारा हृदय उससे मिल कर प्रसन्न हो उठता है उससे आत्मीयता का अनुभव होता है। इसका अर्थ यही है कि वह आकर्षण बाह्य का नहीं अन्तर का है, जिसमें सद्भावनाओं तथा सद्विचारों के फूल खिले हुए हैं।

इस विचार प्रभाव को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब एक सामान्य पथिक किसी ऐसे मार्ग से गुजरता है जहाँ पर अनेक मृगछौने खेल रहे हों, सुन्दर पक्षी कल्लोल कर रहे हों तो वे जीव उसे देख कर सतर्क भले हो जाय और उस अजनबी को विस्मय से देखने लगें किन्तु भयभीत कदापि नहीं होते। किन्तु यदि उसके स्थान पर जब कोई शिकारी अथवा गीदड़ आता है तो वे जीव भय से त्रस्त होकर भागने और चिल्लाने लगते हैं। वे दोनों ऊपर से देखने में एक जैसे मनुष्य ही होते हैं किन्तु विचार के अनुसार उनके व्यक्तित्व का प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है।

कितनी ही सज्जनोचित वेशभूषा में क्यों न हो, दुष्ट दुराचारी को देखते ही पहचान लिया जाता है। साधु तथा सिद्धों के वेश में छिप कर रहने वाले अपराधी अनुभवी पुलिस की दृष्टि से नहीं बच पाते और बात की बात में पकड़े जाते हैं। उनके हृदय का दुर्भाव उसका सारा आवरण भेद कर व्यक्तित्व के ऊपर बोलता रहता है।

जिस प्रकार के मनुष्य के विचार होते हैं वस्तुतः वह वैसा ही बन जाता है। इस विषय में एक उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि भृंगी पतंग झींगुर को पकड़ लाता है और बहुत देर तक उसके सामने रह कर गुँजार करता रहता है यहाँ तक कि झींगुर उसे देखते-देखते बेहोश हो जाता है। उस बेहोशी की दशा में झींगुर की विचार परिधि निरन्तर उस भृंगी के स्वरूप तथा उसकी गुँजार से घिरी रहती है जिसके फलस्वरूप वह झींगुर भी निरन्तर विचार तन्मयता के कारण कुछ समय में भृंगी जैसा ही बन जाता है। इसी भृंगी तथा कीट के आधार पर आदि कवि वाल्मीकि ने सीता और राम के प्रेम का वर्णन करते हुए एक बड़ी सुन्दर उक्ति अपने महाकाव्य में प्रस्तुत की है।

उन्होंने लिखा कि सीता ने अशोक वाटिका की सहचरी विभीषण की पत्नी सरमा से एक बार कहा- सरमे! मैं अपने प्रभु राम का निरन्तर ध्यान करती रहती हूँ। उनका स्वरूप प्रतिक्षण मेरी विचार परिधि में समाया रहता है। कहीं ऐसा न हो कि भृंगी और पतंग के समान इस विचार तन्मयता के कारण मैं राम रूप ही हो जाऊँ और तब हमारे दाम्पत्य जीवन में बड़ा व्यवधान पड़ जायेगा। सीता की चिन्ता सुनकर सरमा ने हंसते हुए कहा- “देवी! आप चिन्ता क्यों करती हैं। आपके दाम्पत्य-जीवन में जरा भी व्यवधान नहीं पड़ेगा। जिस प्रकार आप भगवान राम के स्वरूप का विचार करती रहती हैं उसी प्रकार राम भी तो आप के रूप का चिन्तन करते रहते हैं। इस प्रकार यदि आप राम बन जाएंगी तो राम सीता बन जायेंगे। इससे दांपत्य जीवन में क्या व्यवधान पड़ सकता है ? परिवर्तन केवल इतना होगा कि पति पत्नी और पत्नी-पति बन जायगी।” इस उदाहरण में कितना सत्य है नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह तथ्य मनोवैज्ञानिक आधार पर पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य जिन विचारों का चिन्तन करता रहता है उनके अनुरूप ही बन जाता है। इसी संदर्भ से एक पौराणिक आख्यान में एक गुरु ने अपने एक अविश्वासी शिष्य की शंका दूर करने के लिये उसे प्रायोगिक प्रमाण दिया उन्होंने उस शिष्य को बड़े-बड़े सींगों वाला भैंसा दिखा कर कहा कि इसका यह स्वरूप अपने मन पर अंकित करके और इस कुटी में बैठकर निरन्तर उसका ध्यान तब तक करता रह जब तक वे उसे पुकारे नहीं। निदान शिष्य कुटी में बैठा हुआ बहुत समय तक उस भैंसे का और विशेष प्रकार से उसके बड़े-बड़े सींगों का स्मरण करता रहा। कुछ समय बाद गुरु ने उसे बाहर निकलने के लिये आवाज दी। शिष्य ने ज्यों ही खड़े होकर दरवाजे में शिर डाला कि वह अटक कर रुक गया। ध्यान करते-करते उसके सिर पर उसी भैंसे की तरह बड़े बड़े सींग निकल आये थे। उसने गुरु को अपनी विपत्ति बतलाई और कृपा करने की प्रार्थना की। तब गुरु ने उसे फिर आदेश दिया कि वह कुछ समय उसी प्रकार अपने स्वाभाविक स्वरूप का चिंतन करे। निदान उसने ऐसा किया और कुछ समय में उसके सींग गायब हो गये।

आख्यान भले ही सत्य न हो किन्तु उसका निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है कि मनुष्य जिस बात का चिन्तन करता रहता है, जिन विचारों में प्रधानतया तन्मय रहता है वह उसी प्रकार का बन जाता है।

दैनिक जीवन के सामान्य उदाहरणों को ले लीजिये। जिन बच्चों को भूत−प्रेतों की काल्पनिक कहानियाँ तथा घटनाएं सुनाई जाती रहती हैं वे उनके विचारों में घर कर लिया करती हैं और जब कभी वे अंधेरे उजाले में अपने उन विचारों से प्रेरित हो जाते हैं तो उन्हें अपने आस-पास भूत प्रेतों का अस्तित्व अनुभव होने लगता है जबकि वास्तव में वहाँ कुछ होता नहीं है। उन्हें परछाइयों तथा पेड़ पौधों तक में भूतों का आकार दिखलाई देने लगता है। यह उनके भूतात्मक विचारों की ही अभिव्यक्ति होती है। जो उन्हें दूर पर भूतों के आकार में दिखलाई देती है। अंध विश्वासियों के विचार में भूत प्रेतों का निवास होता है और उसी दोष के कारण वे कभी-कभी खेलने-कूदने और तरह-तरह की हरकतें तथा आवाजें करने लगते हैं। यद्यपि उन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें किसी भूत अथवा प्रेत ने दबा लिया है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि उनके विचारों का विकार ही अवसर पाकर उनके सिर चढ़ कर खेलने लगता है। किसी दुर्बुद्धि अथवा दुर्बलमना व्यक्ति का जब यह विचार बन जाता है कि कोई उस पर, उसे मारने के लिये टोना कर रहा है तब उसे अपने जीवन का ह्रास होता अनुभव होने लगता है। जितना-जितना यह विचार विश्वास में बदलता जाता है। उतना-उतना ही वह अपने को क्षीण दुर्बल तथा रोगी पाता जाता है। अन्त में ठीक-ठीक रोगी बन कर एक दिन मर तक जाता है। जबकि चाहे उस पर कोई टोना किया जा रहा होता है अथवा नहीं। फिर टोना आदि में उनके प्रेत पिशाचों में वह शक्ति कहाँ जो जीवन-मरण के ईश्वरीय अधिकार को स्वयं ग्रहण कर सकें। यह और कुछ नहीं तदनुरूप विचारों की ही परिणति होती है।

मनुष्य के आन्तरिक विचारों के अनुरूप ही बाह्य परिस्थितियों का निर्माण होता है। उदाहरण के लिये किसी व्यापारी को ले लीजिए। यदि वह निर्बल विचारों वाला है और भय तथा आशंका के साथ खरीद फरोख्त करता है, हर समय यही सोचता रहता है कि कहीं घाटा न हो जाये, कहीं माल का भाव न गिर जाये, कोई रद्दी माल आकर न फंस जाये, तो मानो उसे अपने काम में घाटा होगा अथवा उसका दृष्टिकोण इतना दूषित हो जायेगा कि उसे अच्छे माल में भी त्रुटि दिखने लगेगी, ईमानदार आदमी बेईमान लगने लगेंगे और उसी के अनुसार उसका आचरण बन जायेगा जिससे बाजार में उसकी बात उठ जायेगी। लोग उससे सहयोग करना छोड़ देंगे और वह निश्चित रूप से असफल होगा और घाटे का शिकार बनेगा। अशुभ विचारों से शुभ परिणामों की आशा नहीं की जा सकती।

कोई मनुष्य कितना ही अच्छा तथा भला क्यों न हो यदि हमारे विचार उसके प्रति दूषित हैं, विरोध अथवा शत्रुतापूर्ण हैं तो वह जल्दी ही हमारा विरोधी बन जायेगा। विचारों की प्रतिक्रिया विचारों पर होना स्वाभाविक है। इसको किसी प्रकार भी वर्जित नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं यदि हमारे विचार स्वयं अपने प्रति ओछे अथवा हीन हो जाएं, हम अपने को अभागा एवं अक्षम चिन्तन करने लगें तो कुछ ही समय में हमारे सारे गुण नष्ट हो जायेंगे और हम वास्तव में दिन-हीन और मलीन बन जायेंगे। हमारा व्यक्तित्व प्रभावहीन हो जायेगा जो समाज में व्यक्त हुए बिना बच नहीं सकता।

जो आदमी अपने प्रति उच्च तथा उदात्त विचार रखता है अपने व्यक्तित्व का मूल्य कम नहीं आँकता उसका मानसिक विकास सहज ही हो जाता है। उसका आत्मविकास आत्मनिर्भरता और आत्मगौरव जाग उठता है। इसी गुण के कारण बहुत से लोग जो बचपन से लेकर यौवन तक दब्बू रहते हैं आगे चल कर बड़े प्रभावशाली बन जाते हैं। जिस दिन से आप किसी दब्बू डरपोक तथा साहसहीन व्यक्ति को उठ कर खड़े होते और आगे बढ़ते देखें, समझ लीजिये कि उस दिन से उसकी विचारधारा बदल गई और अब उसकी प्रगति कोई रोक नहीं सकता।

विचारों के व्यक्ति निर्माण में बड़ी शक्ति होती है। विचारों का प्रभाव कभी व्यर्थ नहीं जाता। विचार परिवर्तन के बल पर असाध्य रोगियों को स्वस्थ तथा मरणासन्न व्यक्तियों को नया जीवन दिया जा सकता है। यदि आपके विचार अपने प्रति अथवा दूसरे के प्रति ओछे, तुच्छ तथा अवज्ञापूर्ण हैं तो उन्हें तुरन्त ही बदल डालिये और उनके स्थान पर ऊंचे तथा उदात्त तथा यथार्थ विचारों का सृजन कर लीजिए। वह विचार-कृषि आपके चिन्ता-निराशा अथवा पराधीनता के अन्धकार से, भरे जीवन को हरा-भरा बना देगी। थोड़ा-सा अभ्यास करने से यह विचार परिवर्तन सहज में ही लाया जा सकता है। अपने व्यक्तित्व को प्रखर तथा उज्ज्वल बनाने के लिए भजन-पूजन के समान ही थोड़ा बैठ कर एकाग्र मन से इस प्रकार आत्म-चिन्तन करिये और देखिये कि कुछ ही दिन में आपमें क्राँतिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगेगा।

विचार कीजिए-”मैं सच्चिदानन्द परमात्मा का अंश हूँ। मेरा उससे अविच्छिन्न सम्बन्ध है। मैं उससे कभी दूर नहीं होता और न वह मुझसे ही दूर रहता है। मैं शुद्ध-बुद्ध और पवित्र आत्मा हूँ। मेरे कर्तव्य भी पवित्र तथा कल्याणकारी हैं उन्हें मैं अपने बल पर आत्म-निर्भर रह कर पूरा करूंगा। मुझे किसी दूसरे का सहारा नहीं चाहिये, मैं आत्म-निर्भर, आत्म-विश्वासी और प्रबल माना जाता हूँ। असद् तथा अनुचित विचार अथवा कार्यों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है और न किसी रोग दोष से ही मैं आक्राँत हूँ। संसार की सारी विषमतायें क्षणिक हैं जो मनुष्य की दृढ़ता देखने के लिये आती हैं। उनसे विचलित होना कायरता है। धैर्य हमारा धन और साहस हमारा सम्बल है। इन दो के बल पर बढ़ता हुआ मैं बहुत से ऐसे कार्य कर सकता हूँ जिससे लोक मंगल का प्रयोजन बन सके। आदि आदि।

इस प्रकार के उत्साही तथा सदाशयतापूर्ण चिन्तन करते रहने से एक दिन आपका अवचेतन प्रबुद्ध हो उठेगा आपकी सोई शक्तियाँ जाग उठेंगी, आपके गुण कर्म स्वभाव का परिष्कार हो जायेगा और आप परमार्थ पथ पर, उन्नति के मार्ग पर अनायास ही चल पड़ेंगे और तब न आपको चिन्ता, न निराशा और न असफलता का भय रहेगा और न लोक-परलोक की कोई शंका। उसी प्रकार शुद्ध-बुद्ध तथा पवित्र बन जायेंगे जिस प्रकार के आपके विचार होंगे और जिनके चिन्तन को आप प्रमुखता दिए होंगे।


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