जीवन सुन्दरतापूर्वक जिएं।

September 1967

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मनुष्य को जीवन सुन्दरतापूर्वक जीने के लिए मिला है। इसलिए नहीं कि वह रोते झींकते, आवश्यकता एवं अभावों के बीच तरस-तरस कर कट जाये, किसी ईंट पत्थर की तरह घिस-घिस कर नष्ट हो जाए। यह जीवन भौतिक एवं आत्मिक उन्नति द्वारा संतुष्ट होकर जीने के लिए ही मिला है और उसी प्रकार मनुष्यों को जीना भी चाहिए।

सामान्य रूप से जीवन सब को अच्छा लगता है, और सभी उसे सुन्दरतापूर्वक जीना भी चाहते हैं, उसके लिए प्रयत्न भी करते हैं। किन्तु ऐसे कितने सत्पुरुष संसार में हैं जो जीवन को अपेक्षित ढंग से जी पाते हैं। नहीं तो अधिकतम लोग शारीरिक अथवा मानसिक, बाह्य अथवा आन्तरिक रूप से दरिद्र तथा दयनीय रूप से जीते देखे जाते हैं।

जीवन यों ही सुन्दर तथा सुखमय नहीं बन जाता, उसे परिश्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा सुन्दरता के साँचे में ढालना पड़ता है। आलस्य का परित्याग कर कठिन से कठिन कर्मों में प्रवृत्त होना पड़ता है। नीति और आदर्श की रक्षा करनी होती है। अपने आचरण और चरित्र में उदात्त भावों का जागरण करना होता है। जीवन को सुन्दर बनाने के इन्हीं आदर्शों के विषय में ऋग्वेद के ऋषि ने निर्देश किया है-

“त्रातारो देवा अधि वोचता नो

मा नो निद्रा ईशत मोत जल्पिः।

वयं सोमस्य विश्वह प्रियासः

सुबीरासो बिदथमा वदेम।

“रक्षा करने वाले देव! हमको आशीर्वाद दो,व्यर्थ की वार्ता और निद्रा दोनों हमसे दूर रहें। वीरों सहित हम धर्म की स्थिति में बोलें। जो कर्त्तव्यवान एवं कर्मठ है, वह देवताओं को प्रिय होता है। देव स्वप्न नहीं चाहते हैं। वे प्रमाद एवं आलस्य को दण्डित करते हैं।”

जो लोग यह समझते हैं कि आन्तरिक एवं बाह्य उन्नति के लिए एक मात्र ईश्वरोपासना ही वह साधना है, जिसके करते रहने से सदा वाँछित फल प्राप्त हो जायेंगे वे भ्रम में हैं। उपासना की आवश्यकता है, किन्तु वह आवश्यकता है ईश्वरीय प्रसन्नता के लिये जिससे कि उसको और शक्ति, स्फूर्ति, साहस एवं संलग्नता मिलती रहे और हम अबाध रूप से कर्तव्य पर चलते जाये। अन्य मोक्ष उपासना की सफलता सदा ही संदिग्ध है।

जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने के लिए मनुष्य को अपनी पूरी शक्ति, पूरे प्रयत्न तथा पूरी आयु लगा देनी चाहिए। सफलता बहुत मूल्य पर ही मिलती है जो व्यक्ति थोड़े से प्रयत्न के साथ ही मनोवाँछित सफलता पाना चाहते हैं, वे उन लोगों जैसे ही संकीर्ण विचार वाले होते हैं जो किसी चीज को पूरा मूल्य दिए बिना ही हस्तगत करने को लालायित रहते हैं। ऐसे लोभी लालची व्यक्ति का चरित्र किसी भी समय गिर सकता है। वह मानवीय आदर्शों से जल्दी ही पतित हो सकता है। सदा फल की लालसा मनुष्य को मिथ्याचारी और बेईमानी बना सकती है। समाज में हम ऐसे कितने ही व्यक्तियों को देख सकते हैं, जो आज काम प्रारम्भ कर कल ही उसका फल चाहने लगते हैं और इसलिए नीति का त्याग कर अनीति को अपना कर चलने लगते हैं। अनीति द्वारा पाई हुई सफलता कभी भी यथार्थ रूप में संतोषदायक नहीं होती। अनीति का धन-धान्य मनुष्य के मन बुद्धि यथा आत्मा का पतन कर देता है, जिससे वह निर्बल और कायर हो जाता है कि यत्किंचित् प्रतिकूलता आने पर घबरा उठता है और शीघ्र ही जीवन से घबरा कर भागने की कोशिश करता है। यथार्थ उन्नति के लिए कोई अवधि निश्चित नहीं है और न उसे करना चाहिये। उचित आदर्शों के साथ अपना कर्त्तव्य करते रहना चाहिए समय आने पर सफलता आप से आप उपलब्ध हो जायेगी। सफलता के लिए आदर्शों का पतन तथा नीति का त्याग उचित नहीं। कहा भी गया है-

“सर्वमायुर्नभतु जीवनाय”

“जीवन की सार्थकता के लिए अपनी पूरी आयु लगा दो।”

बहुत बार लोग जीवन को निःसार, निरर्थक अथवा नश्वर समझ कर उसके प्रति उदासीन हो जाते हैं। वे उसे एक प्रकृत प्रवाह के साथ बहते देने के लिए छोड़ देते हैं और ईश्वर से प्राप्त सारी शक्तियों को लगाकर सुन्दर से सुन्दरतम बनाने का प्रयत्न किया जाता है। जीवन के प्रति उदासीनता, उससे भागने का ही कायरता पूर्ण लक्षण है। जीवन पाकर जो उसके प्रति अनुरक्ति नहीं रखता, उसमें प्रसन्नता एवं उल्लास की परिस्थितियाँ नहीं लाता, उसे सफल एवं सार्थक बनाने के लिए कर्म क्षेत्र में नहीं उतरता, वह परमात्मा के इस अनुदान का अपमान करता है और निःसन्देह अवज्ञा एवं अपवाद का विषय है। उसे कोई अधिकार नहीं कि वह समाज के साधन एवं उत्पत्ति का उपभोग कर उसे यों ही व्यर्थ करता रहे। यों तो रहने को समाज में सभी रहते हैं। खाते पीते और जीते हैं, किन्तु उनके जीवन के साथ सार्थकता का समन्वय नहीं किया जा सकता। उन्हें समाज में रहने का नैतिक अधिकार समाज की ओर से है। किन्तु यदि उनकी आत्मा से पूछा जाये तो उसका मत यही होगा कि वास्तव में इस शरीर को समाज की सम्पत्ति, उसके साधन तथा सामग्री के उपभोग का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह उसका बदला सार्थकता की सिद्धि में अपने अगाध परिश्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा नहीं चुकाता। जीवन के प्रति उदासीन रहना अथवा उसे यों ही निरर्थकता के साथ बिता देना अनैतिकता है। एक आध्यात्मिक अपराध है। जीवन को निःसार अथवा निरर्थक समझने वाले अकर्मण्यता वादियों को ऋग्वेद की यह पावन ऋचा पर्याप्त प्रकाश प्रदान कर सकती है।

“ईशावास्यमिदं सर्वम्

आ रोहता भुर्जरसं वृणाना

अनुपूर्वं यतमाना यतिष्ठ।

इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा

दीर्घमायुः करति जीवसे वः”

-जीवन को स्वीकार करो और वार्धक्य का स्वागत करो। तुम सभी एक दूसरे के पीछे क्रम से प्रयत्न करते जाओ। सुन्दर वस्तुओं का विधायक देव तुम पर प्रसन्न हो और तुम्हारे जीवन को दीर्घ करे।

यही नहीं जीवन के प्रति अनुराग और उसकी उपादेयता को स्वीकार करते हुए- ‘जीवेम शरदः शतम’ की प्रार्थना की गई है। इस सौ वर्ष की आयु के लिये प्रार्थना करने में ऋषियों का क्या उद्देश्य हो सकता है यह तो किसी प्रकार भी माना ही नहीं जा सकता, कि उनकी यह प्रार्थना विषय भोग की कामना से प्रेरित रही हो। निश्चय ही आयु को अधिकतम चाहने के पीछे यही एक उद्देश्य रहा है कि हम सौ साल तक स्वास्थ्य के साथ जीवित रहें, समाज को उन्नत बनाने का प्रयत्न करें और आत्मा के उद्धार के लिए अधिक से अधिक पुरुषार्थ कर सकें, इतना पुरुषार्थ कि अपने वर्तमान जीवन में ही मोक्ष की व्यवस्था कर लें, इसके लिए आगामी जीवन पर निर्भर न रहना पड़े।

भारतीयों का सदैव से जीवन को सुन्दरतापूर्वक जीने का आदर्श रहा है। ऋषियों ने अपने सम्पूर्ण जीवन को साधना में लगाकर अपने अनुयायियों पर उन उपायों एवं आदर्शों को खोज-खोज कर अनुग्रह किया है, जिनके आधार पर जीवन को स्वर्ग सुख के साथ जीते हुए मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। जब तक भारतवासी ऋषियों द्वारा निदिष्ट आदर्शों पर चलते रहे संसार में उनके लिए सफलता के द्वार खुले रहे। प्रत्येक व्यक्ति अपने में एक पूर्ण व्यक्तित्व बन कर निर्भय निर्द्वंद्व तथा श्रेयस्कर जीवन का अधिकारी बना रहा। उनको न कभी पराभव का मुख देखना पड़ा और न पराधीनता का। किन्तु जब वे प्रमाद आलस्य एवं अकर्मण्यतावश उन आदर्शों से गिर गये, उनको पराभूत एवं पराधीन होते देर न लगी। उनका राजनीतिक आर्थिक पराभव ही नहीं हुआ, आत्मा तक का पतन हो गया, जिससे वे आन्तरिक एवं बाह्य दोनों रूपों में दरिद्री तथा दयनीय बन गये। उनके जीवन का सारा रस सूख गया। जीवन का क्षण-क्षण काँटे की तरह कटु तथा असहनीय बन गया। उनके हृदय में एक अनुचित एवं असात्विक विरक्ति आ गई, जिससे जीवन के प्रति उदासीनता की ऐसी सम्भावना हो गई कि वे दीन-हीन पराधीन जीवन जीने में ही सन्तोष करके पड़ रहे। उत्साह, स्फूर्ति, साहस उल्लास एवं उन्नति की सारी विशेषताओं का हृास हो गया।

अब भारत से पराधीनता का अन्धकार दूर हो गया है। अवसर आ गया है कि हम सब ऋषि निर्दिष्ट आदर्शों को अपने जीवन में पुनः जाग्रत करें, उन उपायों एवं आचरणों को अपनाएं, जो जीवन की सार्थकता में सहायक होते हैं। ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट जीवन पद्धति में आत्मा एवं शरीर लोक तथा परलोक दोनों का समन्वय है। जैसा कि कुछ लोगों का विचार रहता है कि वेद केवल पारलौकिक जीवन का ही निर्देश करते हैं और लोक जीवन के प्रति मौन हैं- गलत है। वेदों में इस लौकिक जीवन की सफलता को ही माध्यम बना कर पारलौकिक पूर्णता का आदर्श स्थापित किया गया है। धन, धान्य सदाचरण गुण एवं सत्प्रवृत्तियाँ ही वे आधार हैं, जिनकी सहायता से इहलोक तथा परलोक दोनों को सफल एवं सार्थक बनाया जा सकता है। ऋषियों ने लोक परलोक के भिन्न-भिन्न आदर्श स्थापित नहीं किये हैं। उन्होंने जहाँ धन-धान्य के उपार्जन पर बल दिया है, वहाँ सदाचरण की भी शिक्षा दी है जिससे लौकिक एवं दोनों जीवनों का एक साथ अनुरंजन होता है। कहा गया है-

“परि चिन्त मर्तो द्रविणं ममन्याद्

ऋतस्य पथा नमसा विरोसेत।”

मनुष्य को धन की चिन्ता करनी चाहिये। किन्तु उसे सन्मार्ग से ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना और साथ-साथ देवाराधन भी करते रहना चाहिए।

असत्मार्ग से कमाया हुआ धन कालान्तर में मनुष्य की आत्मा का पतन तो कर ही देता है, समाज में ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ एवं अपकर्मों को जन्म भी देता है जिससे उसकी शाँति भंग होती है और अच्छे-बुरे प्रत्येक व्यक्ति को उससे प्रभावित होना पड़ता है।

धन वृद्धि किसी भी समय भी मनुष्य में प्रमाद उत्पन्न कर सकता है। इस सम्भावना से सावधान रहने के लिये वेदों में सदाचार में निरत रहने का निर्देश किया गया है।

“अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व

वित्ते समस्व बहु मन्यमानः।

तत्र गावः कितब तत्र जाया

तन्मे विचष्टे सवितायमर्यः”

जुआ मत खेलो, अपने खेतों को जोतो और बोओ। महत्वपूर्ण जान कर धन से आनन्दित हो, अपनी स्त्री और गायों की रक्षा की चिंता करो, यह सवितादेव का आदेश है। ईश्वर के ध्यान के साथ इहलौकिकता का- घर और खेती-बारी का यह कितना सुन्दर आदर्श है और वित्ते समस्व में कितनी व्यावहारिकता है।


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