मनुष्य को मनुष्य बनाने वाला धर्म

September 1967

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“मेरे देशवासियों! विषम परिस्थितियों का अन्त आ गया। काफी रो चुके, अब रोने की आवश्यकता नहीं रही। अब हमें अपनी आत्म शक्ति को जगाने का अवसर आया है। उठो, अपने पैरों पर खड़े हो और मनुष्य बनो। हम मनुष्य बनाने वाला ही धर्म चाहते हैं। सुख, सफलता ही क्या सत्य भी यदि शरीर, बुद्धि और आत्मा को कमजोर बनाये तो उसे विष की भाँति त्याग देने की दृढ़ता आप में होनी चाहिए।”

“जीवन-शक्ति विहीन धर्म कभी धर्म नहीं हो सकता । उसका तो स्वरूप ही बड़ा पवित्र, बलप्रद, ज्ञानयुक्त है। जो शक्ति दे, ज्ञान दे हृदय के अन्धकार को दूर कर नव स्फूर्ति भर दे। आओ, हम उस सत्य की, धर्म की वन्दना करें। कामना करें और जन जीवन में प्रवाहित होने दें। तोता बोल बहुत सकता है। पर वह आबद्ध कुछ कर नहीं सकता । हम रागद्वेष, काम, क्रोध, मद, मत्सर, अज्ञान, कुत्सा, कुविचार, दुष्कर्म के पिंजरे में आबद्ध न हों । अच्छी बात मुँह से कहें और उसे जीवन में उतारें भी। हमारे मस्तिष्कों में जो दुर्बलता भर गई है उसे निकाल कर शक्तिशाली बनने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिये।

-स्वामी विवेकानन्द


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