सभ्य समाज की सुसंस्कृत रचना और पुस्तकालय

September 1967

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रौम्याँ रोला ने एक बार भाषण में कहा- “किसी राष्ट्र का लोक तन्त्रात्मक जीवन विघटित और विश्रृंखलित हो जाता है तो उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिये मूक विचार क्रान्ति की आवश्यकता होती है।”

“मूक विचार क्रान्ति का तात्पर्य क्या है?” यह पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया- पुस्तकालय! ऐसे पुस्तकालय जो ज्ञान के माध्यम से सामाजिक जीवन में व्याप्त बुराइयों, क्लेश और संतापों को मिटाने में योगदान दे सकते हों। पुस्तकालय, धर्म, संस्कृति, सम्प्रदाय छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे से परे एक ऐसी संस्था है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी ज्ञानशक्ति और क्षमताओं का विकास कर सकता है।”

डॉ. एस. आर. रंगनाथन को पुस्तकालय विज्ञान पर लगभग 50 शोधग्रन्थ लिखने पर भारत सरकार ने पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया। ग्रन्थ लिखना अपने आप में उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना अपने सिद्धान्त को व्यवहारिक सिद्धि प्रदान करना। श्री रंगनाथन कोई उद्योगपति या साधन सम्पन्न नहीं हैं । इस युग में भारत में लेखक की आय ही कितनी होती है, तो भी उन्होंने पुस्तकालय विज्ञान विभाग के विकास के लिये अपनी कमाई का कण-कण जोड़कर 1 लाख रुपये की पूँजी मद्रास विश्वविद्यालय को भेंट की। इस अनुपम त्याग के पीछे उनका एक ही संकल्प है कि राष्ट्र के बौद्धिक चरित्र का विकास हो। पुस्तकालय को उसका प्रमुख उपादान बताते हुए उन्होंने लिखा है-

“हम अपने समाज में जिन मानवीय आदर्शों की स्थापना करना चाहते हैं, धर्म आध्यात्म, संस्कृति और नैतिकता का प्रकाश समुपलब्ध करना चाहते हैं उसकी पूर्ति तो कानून कर सकता है न प्रबुद्ध तंत्र । इसका आधार सामाजिक शिक्षा ही हो सकती है। एक ऐसी खिड़की होनी चाहिए जो भीतर बैठे हुए व्यक्ति को सूर्य का प्रकाश लाकर देती रहे। पुस्तकालय ही वह माध्यम हैं जो जिज्ञासा की अग्नि को प्रज्वलित किये रह सकते हैं। सामाजिक शैक्षणिक संस्था के रूप में वे मानव हृदय को नैतिकता की दिशा देते रह सकते हैं।”

रूस की सामाजिक के चेतना के विकास में पुस्तकालयों ने असाधारण रूप से काम किया है। स्टैलिन को हटे हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ । इतने थोड़े से समय में अधिक औद्योगिक, वैज्ञानिक और साँस्कृतिक दिशा में जो भारी परिवर्तन हुए हैं उनमें पुस्तकालयों का सर्वाधिक योगदान माना जाता है। उल्लेखनीय है कि दुनिया में सर्वाधिक पुस्तकालय रूस में हैं। किंवदन्ती है कि यदि रूस के पुस्तकालयों में लगी हुई अलमारियां एक पंक्ति में लगाई जाएं तो मास्को और रोम को जोड़ा जा सकता है।

मनुष्य के विकास के लिये तथ्यों, घटनाओं, जीवन चरित्रों, प्रसंगों निबन्धों का विविधतापूर्ण विचार पुँज चाहिए। परिवर्द्धित ज्ञान ही बौद्धिक कार्य कुशलता को परिष्कृत बनाये रख सकता है। परिष्कृत ज्ञान और विवेक ही स्थायी प्रगति की ओर अग्रसर कर सकता है।

विद्यालयों में उतनी व्यवस्था सम्भव नहीं। वहाँ शिक्षा के सीमित उद्देश्य रहते हैं, इसलिये पाठ्यक्रम और विधियाँ भी सीमित रहती हैं। विद्यालय मनुष्य का विकास करने में समर्थ नहीं वे केवल मनोभूमि की प्रारम्भिक तैयारी कर सकते हैं। किन्तु व्यवहारिक जीवन का मार्गदर्शन उतने से होना तो सम्भव नहीं। उसका क्षेत्र विशाल है। आवश्यकतायें विशाल हैं उसी के अनुरूप ज्ञान का क्षेत्र भी विशाल और बहुमुखी होना चाहिए। तभी तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी विशेषता और आवश्यकता के अनुकूल अपना सही रास्ता चुन सकता है। यह सब सम्भव है पर जिस समृद्ध ज्ञान की कल्पना यहाँ दी जा रही है वह वैयक्तिक रूप से नहीं जुटाई जा सकती उसके लिये पुस्तकालय चाहिएं। स्थान-स्थान पर मुहल्ले-मुहल्ले गाँव-गाँव और हर विद्यालय में पुस्तकालय चाहिएं। पुस्तकालय ही एक मात्र मस्तिष्कीय पोषण प्रदान कर सकते हैं।

‘ज्ञान का विकास नियमित शनैः−शनैः और आजीवन होता है। विद्यालय की शिक्षा प्रारम्भिक अवस्था में थोड़े दिन के लिये होती है। इसलिये मूल आवश्यकता की पूर्ति पुस्तकालय करते हैं विद्यालय सहायक मात्र हैं।

आर्थिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और मनुष्य जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जहाँ सामान्य पुस्तकालयों की आवश्यकता है वहाँ भारत की अपनी विशिष्टता का मान रखना भी आवश्यक है। हम एक ऐसे धार्मिक वातावरण में पले हैं कि वह हमारे रक्त में समा गया है। जिस तरह सम्पूर्ण विश्व की व्यवस्था के लिये नैतिकता, भाईचारा, परस्पर सहयोग, प्रेम आत्मीयता आदि मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा चाहिये, हमारी विशिष्टता को उसी प्रकार दर्शन, आध्यात्म अर्थात् जीव, आत्मा, परमात्मा का भावना-सम्मत पुष्ट ज्ञान भी चाहिए। हम इस विशिष्टता से बच नहीं सकते क्योंकि वही हमारा जीवन है। उसकी विश्व के लिये उपयोगिता भी है।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालयों की रचना के लिये राजतन्त्र पर आधारित नहीं रहा जा सकता । उसके लिये अपनी ही सामाजिक व्यवस्था बनानी पड़ेगी। ऐसे पुस्तकालय स्थापित करने होंगे जो भारत की साँस्कृतिक परम्पराओं और सनातन सिद्धान्तों की रक्षा कर सकें अज्ञान, भय लोभ, स्वार्थ, हिंसा, प्रतिशोध प्रतिकार की दुर्भावनाओं को नष्ट कर शोषण विहीन अपरिग्रह, स्नेह और सहयोग से परिपूर्ण सुरक्षित समाज खड़ा करने का सन्देश दे सकें।

ज्ञान का उद्देश्य स्वार्थ से बदल कर परमार्थ होना चाहिए। जब तक मनुष्य का जीवन दर्शन दृष्टिकोण पारलौकिक नहीं होता तब तक उद्देश्य नहीं बदलेंगे। ज्ञान और शिक्षा से समृद्ध होते हुए भी समाज की दिशा न बदलेगी। इसलिये हमें भारतीय पुस्तकालयों की अपनी विशिष्टता बनाये रखनी होगी। उन्हें वही रूप देना होगा जो हमारी दृष्टि में किसी तीर्थ स्थल या देवस्थान का होता है। भारतवर्ष में समाजवाद और लोकतन्त्र का यथार्थ विकास यहीं से प्रारम्भ होगा और इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है।

आज धन को ही प्रतिष्ठा सम्मान, गौरव ज्ञान एवं योग्यता का मापदण्ड मान लिया गया है। इसलिये धन एकत्र करने की भावना सर्वत्र घर करती जा रही है। जिसके पास धन वही गुणों का भी अधिष्ठाता माना जाता है। उसमें ज्ञान, चरित्र धर्म और नैतिकता का भले ही अभाव हो, यदि धन है तो सब कुछ है यह भावना हमारे समाज का बड़ा अहित कर रही है। पर यह मापदण्ड बदले कैसे यह विचारणीय प्रश्न है। इन बातों पर विचार करते हुए हम पुनः उसी स्थान पर लौटते हैं और यह अनुभव करते हैं कि यह कार्य ज्ञान आराधना की पूर्ति से सम्पन्न हो सकेगा। यह ज्ञान भौतिक और सामान्य विषयों तक तो दूसरे देशों में भी है हमें मनुष्य की फिलॉसफी में उतरना होगा। यह भी देखना होगा कि यह विश्व-प्रपंच, कौतुक और चमत्कार क्या है जो विशाल ब्रह्माण्ड के रूप में खड़ा है।

इस जीवन-दर्शन के अनुरूप जो ज्ञान दे सकें वही पुस्तकें और पुस्तकालय हमारे लिये उपयोगी साबित हो सकते हैं उन्हीं से समाजवाद और लोकतन्त्र की सफलता मिल सकती है। उन्हीं की स्थापना के लिये, प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है। सभ्य और सुसंस्कृत समाज की रचना में इनसे भारी योगदान मिल सकता है।


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