मनुष्य का सच्चा जीवन तब प्रारम्भ होता है जब वह यह अनुभव करता है कि शारीरिक जीवन अस्थिर है और वह संतोष नहीं दे सकता।
अपने जीवन को समय के किनारे पर पत्ती पर पड़ी हुई ओस की भाँति हलके-हलके नाचने दो।
जीवन के युद्ध में चोटें और आघात बरदाश्त करने से ही उसमें विजय प्राप्त होती है, उसमें आनन्द आता है।
-रवीन्द्र
मनुष्य जीवन को सुन्दर और सार्थक बनाने के लिये वेदों के ओज तेजपूर्ण आदर्शों को जीवन में उतारना ही होगा। असुन्दर अथवा निःसार जीवन जीना एक आध्यात्मिक अपराध है जिससे बचना प्रत्येक विचारशील मनुष्य का परम कर्तव्य है। लौकिक जीवन की सार्थकता ही पारलौकिक जीवन की सफलता की भूमिका है। उदासीन अथवा अकर्मण्य जीवन जीने के आदी लोगों को वेदों के दिव्य संदेशों का अनुकरण कर उदात्त जीवन के साथ समाज व राष्ट्र के लिए हितकारी बन कर मनुष्यता के मान का प्रतिपादन करना ही चाहिये।