उद्धत बन कर असन्तोष न भड़कायें

September 1967

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असंतोष से असंतोष का जन्म होता है। यदि आज हम किसी के लिए असंतोष के कारण बनते हैं तो यह न समझना चाहिये कि उसे सता कर हम स्वयं सुख शाँति से रह सकेंगे। पहली बात तो यह है कि मनुष्य की प्रवृत्ति प्रायः प्रतिशोधगामिनी होती है। उसकी प्रेरणा रहती है कि जिसने उसके साथ दुःखद व्यवहार किया है उसके साथ भी वैसा ही दुःखद व्यवहार करके बदला लिया जाये। यद्यपि बदला लेने से भी अपना असन्तोष तुष्ट नहीं होता है, क्योंकि प्रतिशोध से पुनः प्रतिशोध का प्रत्यावर्तन होता है और इस प्रकार विद्वेष की कष्ट एवं हानिमूलक परम्परा लग जाती है, जिससे सूत्रपाती तथा प्रतिशोधी दोनों ही समान रूप से अशाँत तथा सन्तप्त रहते हैं। एक बार की क्षमा सदा के लिए आग को शीतल कर देती है। तथापि ऐसी उन्नत बुद्धि के लोगों की अभी बहुतायत नहीं है। लोग जल्दी ही प्रतिशोध के लिये प्रेरित हो उठते हैं।

एक बार यह भी मान लिया जाए कि जिसके साथ अनीति बरती गई है, वह प्रतिरोध के लिए उद्यत न होगा। फिर उसका कारण चाहे उसकी निर्बलता हो अथवा क्षमाशीलता, तब भी असन्तोष के बीच बोने वाले को इसका विश्वास नहीं होता। उसका अपराधी मन बार-बार यही कह कर उसे सन्त्रस्त तथा अशान्त रक्खेगा कि इस समय न सही जब भी अवसर मिलेगा अमुक व्यक्ति उसको हानि पहुँचाने का प्रयत्न करेगा। दूसरे की ओर से क्षमाशीलता की कितनी ही सम्भावना क्यों न हो किन्तु असन्तोष का कारण उपस्थित करने वाले को सन्देह, शंका तथा भय बना ही रहता है जिसके फलस्वरूप वह अशाँत एवं उद्विग्न ही बना रहता है। इसीलिए सज्जन पुरुष समाज में असन्तोष के कारण उत्पन्न करने में संयम से काम लेते हैं। वे अपनी सीमाओं में रहते हुए स्वयं तो शाँतिपूर्वक रहते हैं, दूसरों को भी उसी प्रकार रहने का अवसर देते हैं।

समाज में असंतोष उत्पन्न करने वाले लोगों में ऐसे व्यक्तियों का औद्धत्य प्रदर्शन प्रथम है जो अपने सामाजिक स्तर से ऊपर का रहन-सहन अपना कर अपने को अनावश्यक रूप से धनवान, सम्पन्न तथा सुखी प्रकट करते हैं और दूसरों को यह सोचने का अवसर देते हैं कि मैं अमुक व्यक्ति से गरीब, दीन-हीन तथा अभावग्रस्त हूँ, फिर चाहे वह उतना अभावग्रस्त हो भले ही न। किन्तु यह मनुष्य का सहज स्वभाव है कि अपने से बढ़-बढ़ कर किसी को देखने पर उसकी तुलना में अपने को गरीब तथा हीन समझने लगता है। यद्यपि यह स्वभाव अच्छा नहीं है। यह मनोवृत्ति और इस प्रकार की भावना निकृष्ट ही है तथापि साधारण मनोभूमि के लोगों की मनोवृत्ति के लिए किया ही क्या जा सकता है। इसके लिए अपने को हीन समझने वाले को उतना दोषी नहीं माना जा सकता जितना कि उसे, जिसने व्यर्थ प्रदर्शन से दूसरों को इस प्रकार असन्तोषपूर्ण विचारधारा में बह जाने के लिए प्रेरित किया है।

धनलिप्सु तथा किसी बहाने उसका प्रदर्शन करने वाले लोग समाज के अहितकारी तत्व होते हैं। उन्हें अपने अहंकार की तुष्टि के समक्ष समाज के सन्तुलन तथा उसकी वर्गीय शाँति की जरा भी परवाह नहीं होती। भारत सम्पन्न देश नहीं है। अभी इसका अर्थतन्त्र इतना विकसित नहीं हुआ कि लोग अमेरिका, इंग्लैंड वालों की तरह शान-शौकत तथा तड़क-भड़क के साथ रह सकें। अपना देश अभी गरीब ही है। उसकी औसत आय अपर्याप्त है। साधन, योग्यता, क्षमता, आदि सभी आधार निर्बल तथा स्वल्प ही हैं। कारण राष्ट्रीय आय की सीमा बहुत छोटी है। अपनी देश की आय को दृष्टिगत करते हुए हम सब तथा अन्य सारे राष्ट्रजनों का कर्तव्य हो जाता है कि अपने ऊपर, अपने रहन-सहन तथा उत्सव, समारोहों पर उतना ही खर्च करने का प्रयत्न करें जितनी कि एक भारतीय की औसत आय अनुमान है। उससे अधिक खर्च करने का अर्थ है कि समाज में विषमता को नंगा कर असंतोष को उद्दीप्त करना। यह निश्चित रूप से एक नैतिक अपराध है, सामाजिक अहित है।

स्वाभाविक है कि जो अधिक खर्च करता है उसके पास अधिक होना ही चाहिये और दूसरों से अधिक होने का अर्थ यही होगा कि वह अवश्य ही ऐसे उपाय काम में लाता है जिससे भारतीयों की औसत आय से अधिक धन उसके पास आ सकें। किसी स्थान को ऊँचा करने के लिए जो मिट्टी जमा की जायेगी, उसके लाने के लिए किसी स्थान को खाली करना पड़ता है। इसका सीधा-साधा अर्थ यही है कि यदि एक स्थान ऊँचा होगा तो कहीं न कहीं उसी के अनुपात से गड्ढा हो जायेगा। एक व्यक्ति के पास औसत आय से अधिक धन है। इसका सीधा अर्थ यही है कि अन्य अनेक व्यक्ति प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उतने से वंचित हो गये हैं जितनी कि उसकी आय बढ़ी है, सम्पन्नता वृद्धि हुई है। भारत में तो यह समस्या और भी विषम है। यहाँ एक आदमी के सम्पन्न होने का अर्थ होता है हजारों आदमियों का अभावग्रस्त हो जाना।

यह अर्थशास्त्र का सुनिश्चित सिद्धाँत है कि कोई एक व्यक्ति तब ही धनवान हो सकता है जब अन्य अनेकों की राष्ट्रीय आय का भाग उसके पेट या पेटी में चला जाय। धनलिप्सुओं को इस संग्राहक प्रवृत्ति के कारण ही तो भारतीय समाज में इतनी भयानक विषमता दृष्टिगोचर होती है और इतना गहरा असन्तोष प्रकट हो रहा है। गरीब इसलिये असंतुष्ट है कि वह गरीब और दूसरे अमीर हैं और धनवान इसलिये भयभीत हैं कि कहीं उनकी अमीरी पर आँच न आ जाए, कहीं उनकी आय कम न हो जाय। गरीब अभाव से परेशान है और अमीर उनके बढ़ते हुए असन्तोष से। इस प्रकार क्या अमीर और क्या गरीब कोई भी तो सन्तुष्ट तथा शाँतिपूर्ण जीवन व्यतीत करता नजर नहीं आता है, इसका मुख्य हेतु एक ही है। वह है लोगों की अर्थ-लिप्सा तथा वित्तेषणा।

यह व्यापक असन्तोष मिटाने का एक ही उपाय समझ में आता है। यह तो संभव नहीं कि सारे लोगों को अमीर किया जा सके किन्तु यह किसी प्रकार भी कठिन नहीं कि लोग सभ्यता के नाते, अपने मानसिक संतोष के लिए अथवा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से ही अपनी अर्थ-लिप्सा अथवा वित्तेषणा को छोड़ दें, कम कर दें। अमीर अथवा गरीब सभी का आर्थिक असंतोष कम करने के लिए यही उपाय सरल तथा समीचीन समझ में आता है। धन में, वास्तव में यह एक बड़ा दोष है कि यह होता है तब भी अशाँत रखता है और नहीं होता है तब भी असंतुष्ट! निःसन्देह बुद्धिमान उसी को कहा जाता है जो इस धन-पिशाच की उपासना से विरत रहता है। जितना आवश्यक हो उतना लो, रक्खो और खर्च करो, बाकी को देश के अर्थतन्त्र तथा राष्ट्रीय आय के परि एवं प्रत्यावर्तन में गतिशील होने दिया जाये। इसे अपने पास रोक कर रख लेना उचित नहीं। इससे ही समाज में असंतोष का जन्म होता है। जो अमीर तथा गरीब दोनों ही वर्गों को समान रूप से प्रभावित करता है। इसी सामाजिक संतोष तथा सर्वव्यापी सुख शाँति के लिए ही तो भारतीय धर्म तथा संस्कृति में अपरिग्रह वृत्ति को उदात्त तथा आदर्श वृत्ति बताया गया है।

लोग कार-रोजगार करते हैं। बड़े-बड़े उद्योग चलाते हैं। बड़ी-बड़ी पूँजियाँ लगा कर घना उत्पादन करते और बेचते हैं। उद्योग के अनुसार उनकी आय भी ऊंची होती है। उस आय को फेंका तो नहीं जा सकता अथवा विषमता दूर करने के लिए उसमें आग नहीं लगाई जा सकती है और न समाज में उसका वितरण कर के असमानता दूर की जा सकती है। यह ठीक है। किन्तु यह तो किया ही जा सकता है कि उसे दान पुण्य के मार्ग से समाज में पुनः वापस किया जा सकता है। बैंकों तथा सरकारी कोषों में जमा कर प्रत्यावर्तन के लिए अवसर दिया जा सकता है। तात्पर्य यह कि उसे अपनी व्यक्तिगत तिजोरी में बन्द न रख कर कोई भी ऐसा उपाय किया जा सकता है कि राष्ट्रीय धन राष्ट्र के सब ओर चक्कर लगाता रहे। साथ ही अपेक्षाकृत अपना खर्च तथा अपना रहन-सहन उस सीमा तक रक्खा जा सकता है जिससे कि समाज की आर्थिक असमानता नंगी होकर नाचने न लगे। स्थिति, परिस्थिति के अनुसार यह विषमता किन्हीं अंशों तक मान्य हो सकती है, किन्तु यह अन्तर आकाश-पाताल जैसा तो नहीं ही होना चाहिये।

अर्थोपासकों ने यह विषमता पराकाष्ठा तक बढ़ा रक्खी है। समय इसे अब अधिक देर तक सहन नहीं कर सकता। लोग इसको मिटाने की दिशा में प्रयत्नशील हो उठे हैं। संत बिनोवा के भूदान यज्ञ से लेकर सरकार की दिन-दिन अग्रसर होती हुई कर-नीति इस बात की मुखर चेतावनी है कि वित्तेष्णु लोग अपनी अर्थ तृष्णा को त्याग कर युग-वाणी को समझें और इसके पहले ही अपनी संग्राहक अथवा प्रदर्शनकारी नीति को छोड़ दें, कि युग बल उन्हें बलपूर्वक ऐसा करने पर विवश कर दे। ऐसी दशा में वह सम्मान, वह श्रेय न मिल सकेगा जो अपने आप स्वयं अपना सुधार कर लेने से सम्भव है।

इधर, दूसरी ओर यह भी आवश्यक है कि स्वल्प साधनों वाले तथाकथित लोग देखा-देखी अमीरी का नशा अपने सिर पर सवार करते जा रहे हैं। उसे न करें। उन्हें देखना और विचार करना चाहिए कि वे इस भूल में पड़ कर भटकते जा रहे हैं। देखा−देखी, अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए वे लोग जो प्रदर्शनकारी गतिविधि अपनाते चले जा रहे हैं, वह उसी प्रकार का दोष है जिसके कारण गंभीर अर्थलिप्सुओं की निन्दा की जाती है। एक ओर अपना सुधार करने में लगें और दूसरी ओर विकृतियों को प्रश्रय देते चलें यह ठीक नहीं। इस प्रकार तो समग्र समाज का न तो सुधार हो सकेगा, न विषमता दूर होगी और न अशाँति तथा असन्तोष ही दूर होगा। यह तो तभी सम्भव होगा जब अमीर अपनी अर्थोपासना का त्याग करें और गरीब लोग ठाठ-बाट की जिन्दगी की ओर भटके हुए अपने कदम को रोकें।

अपनी राष्ट्रीय आय के अनुकूल सादगी, मितव्ययिता तथा सामान्य श्रेणी का ही जीवनयापन करने से इस समस्या का हल होना है। सामान्य जीवन जहाँ आज की राष्ट्रीय आवश्यकता है वहाँ यह एक मानवीय गुण भी तो है। आज ही क्या, सम्पन्नता के दिनों में भी जिस देश के लोग साधारण जीवन में विश्वास रखते, सादे रहन-सहन का महत्व समझते रहते हैं उस राष्ट्र का अर्थतन्त्र कभी डाँवाडोल नहीं होता। उस पर आर्थिक संकट आने की संभावना कम होती जाती है।

इसके अतिरिक्त मितव्ययिता तथा सादा जीवन मनुष्य को अनेक दुर्गुणों तथा दुराचारों से भी बचाये रखता है। दुर्गुण तथा दुराचारों का आगमन होता ही है मिथ्या तथा अपव्ययता के माध्यम से। धन की धूमधाम बुद्धि को इतना भ्रमित कर देती है कि यह समझ में नहीं आ पाता कि हम जिस मार्ग से चल रहे हैं अथवा जो जीवन पद्धति अपना रहे हैं वह निरापद नहीं है। अधिक महंगी तथा खर्चीली जिन्दगी अपनाने से स्वाभाविक है कि अधिक आय के साधन अपनावे जाएं। अन्धाधुन्ध आय कभी भी सद्साधनों से नहीं होती। अपनी इस अनावश्यक एवं अनर्गल लिप्सा को पूरा करने के लिये मनुष्य को मोह वंश अनुचित मार्ग ही अपनाने पड़ते हैं। इसलिये अपना नैतिक तथा राष्ट्रीय आचरण बचाने के लिए सम्पन्न लोगों को मितव्ययिता और गरीब लोगों को अनुकरण का स्वभाव छोड़ना ही होगा । यही वह मार्ग है जिस पर चल कर समाज में स्थायी शाँति तथा संतोष लाया जा सकता है।


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