यज्ञमय जीवन ही मनुष्य जीवन की सार्थकता

September 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥

-गीता अध्याय 3 श्लोक 10

सृष्टि के आदि काल में ब्रह्माजी ने अन्य जीवधारियों की तरह मनुष्य को भी सिरजा। पृथ्वी पर आकर मनुष्य ने पशु-पक्षियों और वन्य जीवधारियों के क्रिया-कलापों का अनुकरण किया। पशुओं की तरह हो वह केवल अपने पेट की चिन्ता करता था, परस्पर लड़ने वाले पशुओं की तरह उसे भी हिंसा में अधिक रुचि थी, बलवान कमजोर को हड़प लेता था, कमजोर दूसरे की चोरी कर लेता था। इन पाशविक गुणों के कारण मनुष्य की बड़ी दुर्दशा हुई, वह बहुत हैरान हुआ। निदान पितामह ब्रह्माजी के पास लौट कर शिकायत की- महाभाग! आपने हमें जीवन क्या दिया, इसमें तो कष्ट ही कष्ट, दुःख ही दुःख, पीड़ाएं ही पीड़ाएं हैं।

ब्रह्माजी काफी देर तक विचार करते रहे। उन्हें दुःख और आश्चर्य इस बात का था कि मनुष्य को वह सब कुछ दिया जो किसी भी पार्थिव प्राणी को उपलब्ध नहीं। उस जैसा सुन्दर शरीर किसी के पास नहीं, किसी जीव में इतनी बुद्धि नहीं, जितनी मनुष्य को दी। चाहे तो सुख के साधनों से धरती को पाट दे, उसे खुल कर बोलने और विचार करने की सामर्थ्य दी। उसे सर्व-समर्थ और भोग करने वाली सुन्दर इन्द्रियाँ दीं, उनके साधन दिये, मेरे पास जो कुछ भी सर्वोत्तम पदार्थ थे वह सब मनुष्य को दिये। फिर भी वह सुखी क्यों नहीं?

ब्रह्माजी ने विचार किया और कारण जाना। उन्होंने मनुष्य को बुला कर कहा पुत्र मैंने तेरे साथ ही यज्ञ को उत्पन्न किया है। जाओ तुम यज्ञ करो, उससे फलोगे, सुखी और सन्तुष्ट रहोगे। जब तक तुम इसे अपनाये रहोगे, अपने भीतर और बाहर ओत-प्रोत किये रहोगे तब तक तुम्हारा कल्याण होगा।

सुखी, सन्तुष्ट एवं समुन्नत जीवन के लिए ब्रह्माजी ने जिस यज्ञ, तप की प्रतिष्ठा की, अग्निहोत्र उसका प्रतीक है। हव्य, घृत जौ, तिल, चावल आदि पुष्टिकारक अन्न और सुगन्धित औषधियाँ अग्नि में डालते हैं। अग्नि इन स्थूल पदार्थों को गैस में बदल देती है। गैस की शक्ति स्थूल पदार्थों की अपेक्षा अनन्त गुनी अधिक मानी गई है। पवन उस सुगन्ध और पुष्टता को सर्वत्र फैला देता है। जिससे तमाम जीवधारियों का भी कल्याण होता है।

यज्ञ को यदि बाह्य प्रतीक माना जाय तो उसकी अन्तरंग प्रेरणा को परमार्थ मानना पड़ेगा। अर्थात् परोपकार की भावना से ही यज्ञ किया जाता है। मेरे पास जो कुछ है वह अग्नि वायु के माध्यम से समस्त सृष्टि के प्राणियों में बंट जाय, सब उसका उपभोग करें यह विशुद्ध परमार्थ भाव है। इसी अनुपात में उसका मूल्य और महत्व स्थूल की अपेक्षा बहुत अधिक है।

अपनी प्रिय वस्तुओं का उपभोग आप न करके उसे विश्व कल्याण के लिये निःस्वार्थ होम देते हैं। उससे सन्तुष्ट हुये जीव, वनस्पतियाँ, पर्जन्य आदि भी मनुष्य के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ जुटाते रहते हैं। और मनुष्य आरोग्य, सुख-साधन, फल-फूल, धन-धान्य आदि नाना प्रकार की वस्तुएं पाता और आनन्दित होता है।

स्थूल यज्ञ के लाभ ही असंख्य है। गीता कहती हैं-

अन्नादि भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

“अन्न से भूत प्राणियों की उत्पत्ति होती है। अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ सत्कर्मों से उत्पन्न होता है। सत्कर्मों का ही दूसरा नाम यज्ञ है।”

इस श्लोक में यज्ञ के लाभों का दिग्दर्शन कराया गया है और उसके मूल पर भी प्रकाश डाल दिया गया है। सत्कर्म ही यज्ञ हैं। अग्निहोत्र उसका प्रतीक है। प्रतीक इतना लाभदायक हो सकता है तो उसमें अन्तर्निहित मूल भावना का लाभ तो अनन्त गुना होना चाहिये।

यह बात जीवन के किसी भी क्षेत्र में चरितार्थ देखी जा सकती है। मनुष्य जीवन के सुखों का मूल सत्कर्म है। एक दूसरे की सेवा, सहानुभूति, पोषण, रक्षण, प्रेम, दया, करुणा, उदारता, त्याग, आदि सद्गुणों का जितने अंशों में व्यवहार करता है उसके अनुरूप ही वह दूसरों की आत्मीयता, स्नेह, सहयोग और सच्ची सहानुभूति प्राप्त करता है। सुख के यथार्थ आधार ही यही हैं।

धन हो, सम्पत्ति हो, शरीर भी सुन्दर और स्वस्थ हो पर उससे कोई प्रेम करने वाला न हो, कोई दया करने वाला, सहयोग करने वाला न हो तो उसका जीवन, शुष्क नीरस और निष्प्राण सरीखा व्यतीत ही होगा। यह लाभ मनुष्य को तब मिलते हैं जब वह स्वयं भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करता है। हमें दूसरा व्यक्ति उतना ही प्रेम करता है जितना हम उसे करते हैं।

परिवार को ही लीजिये। धर्मपत्नी, बच्चे, छोटे भाई, छोटी बहनें कमाई की दृष्टि से अनुपयोगी होते हैं। फिर भी उनका प्रतिपालन प्रेम, स्नेह, करुणा, दया और उदारता के साथ उससे भी अधिक किया जाता है। जितना मनुष्य अपने आपका नहीं करता। आगे चल कर जब वही व्यक्ति बुड्ढा हो जाता है तो बालकों की वह पूर्व कृतज्ञता ही उस पर बरसती है और वह अक्षम स्थिति में भी शानदार जिन्दगी बिता लेता है। यही ब्रह्म यज्ञ है।

मनुष्य अपनी शक्तियों का उपयोग परमार्थ के लिए जितना अधिक करेगा उसका प्रतिफल भी वह उतना ही अधिक पायेगा।

सामान्यतः सत्कर्मों का एक क्षेत्र परिवार मान लिया गया है। पर मनुष्य की शारीरिक और बौद्धिक शक्ति और सामर्थ्य को देखते हुए वह सीमा बिलकुल छोटी है। परमात्मा ने मनुष्य को जो विभूतियाँ और विशेषतायें दी हैं। वह इस बात के लिए हैं कि वह सृष्टि के अन्य अबोध जीवनधारियों के रक्षा, उत्पाद और विकास की बात सोचे। सत्कर्मों का दायरा व्यक्ति के रुधिर सम्बन्धों तक ही न रह कर समस्त मानव जाति और प्राणधारियों के लिए ही होना चाहिए। मनुष्य को उपलब्ध हुई विभूतियाँ इन्हीं ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में व्यय होनी चाहिएं। जो व्यक्ति ईश्वर की भाँति ही उसकी सृष्टि को सुखी एवं सुन्दर बनाने में अपने अस्तित्व, योग्यता, शक्ति, साधन और सामर्थ्य सौंपते रहते हैं वे मनुष्य जीवन के संयोग को सार्थक करते और आत्म कल्याण का लाभ पाते हैं।

यदि ऐसा न किया जाए तो मनुष्य से बढ़ कर और कोई कृतघ्न न होगा। हमें इस संसार में जो कुछ प्राप्त है वह यज्ञ का प्रसाद ही है। अर्थात् दूसरों ने वह वस्तुएं उदारतापूर्वक हमारे लिए दान की हैं तभी हम आज भी समुन्नत स्थिति में खड़े हुए हैं। पिता ने वीर्य और माँ ने अपना रज, रक्त, माँस एवं पोषण देकर हमें अवतीर्ण किया, गुरुजन, शिक्षकगण ज्ञान देते हैं, वह पुस्तकें जो हम पढ़ते हैं। सैंकड़ों लोगों के श्रम और सहयोग से बनी है। उन्होंने इन वस्तुओं के बनाने में अपनी शक्ति और समय न लगाया होता तो वह हमें कहाँ से मुहैया होती? हमारे कपड़े हमारा अन्न हमारा निवास सब दूसरों के प्रत्युपकारों के मूर्तिकार स्वरूप हैं। जिस भावना से वह हमारे लिए उपलब्ध की गई हैं वही भावना और उदारता हम दूसरे के लिए व्यक्त न करें तो हम चोर ही कहे जायेंगे। स्वार्थ और परमार्थ के समन्वय से ही जीवन की पूर्णता का तालमेल बैठता है केवल स्वार्थ ही स्वार्थ का ध्यान रखा जाए तो मनुष्य जीवन अपूर्ण माना जायेगा। यही नहीं उसको सब ओर से निन्दा, भर्त्सना, असहयोग के दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ रहे होंगे और वह निश्चय ही दुःखी भी होगा। संग्रही, स्वार्थी, तृष्णाएं जिनकी कभी शाँत नहीं होती जो दूसरों की बात कभी मन में भी नहीं लाते वे कभी सुखी नहीं रह सकते। उनके पीछे सैंकड़ों अड़ंगे, असहयोग, संघर्ष और अशाँति के क्षण जुड़े हुए होंगे।

इन दुःखों से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय यज्ञीय जीवन ही है। अग्निहोत्र तो उसका प्रतीक है, उसका ही महत्व है पर मूल बात यह है कि मनुष्य को त्यागी, परमार्थी और परोपकारी होना चाहिये। सत्कर्मों के द्वारा उसे अपनी उन्नति करनी चाहिये और अपनी योग्यता के द्वारा दूसरों की सुख, शाँति और सुविधाएं बढ़ाने में भी पूरा-पूरा सहयोग करना चाहिये।

इस मन्त्र में गीतकार ने इन्हीं तथ्यों को सूत्रबद्ध करते हुये कहा है- प्रजापति ने पहले यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा- इस यज्ञ से तुम फलो-फूलो, यह यज्ञ ही तुम्हारी अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण करेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles