शुद्ध मनोरंजन उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी

September 1967

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व्यक्तित्व के विकास के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, संपर्क और उपयुक्त वातावरण आवश्यक है। पर इन सभी साधनों को जीवित, जागृत रखने का मुख्य साधन है मनोरंजन । स्वस्थ मनोरंजन के अभाव में मनुष्य का जीवन शुष्क नीरस और कुँठित हो जाता है। आगे बढ़ने की, कठिनाइयों से संघर्ष, विपरीत परिस्थितियों में भी क्रियाशीलता बनाये रखने के लिये शुद्ध मनोरंजन आवश्यक है।

मनोरंजन आत्मा की चाह है इसीलिये तो जो व्यक्ति मनमौजी स्वभाव के होते हैं, जिनमें हास्य विनोद का प्रवाह चलता रहता है ऐसे व्यक्ति मन को बहुत भाते हैं। जो भी परिचित लोग होते हैं वे ऐसे व्यक्तियों के पास बैठने के लिये लालायित बने रहते हैं। इससे पता चलता है कि धन साधन सम्पत्ति की अपेक्षा आह्लाद से आदमी को अधिक संतोष मिलता है। इस प्रकार का सन्तोष ही क्रियाशीलता की अभिनव प्रेरणा प्रदान करता है।

कठोर नियन्त्रण, तप, व्रत, उपवास के माध्यम से मन को नियन्त्रण में लाना कई बार तात्कालिक परेशानियों से बचा तो सकता है पर जो कार्य मन के सहयोग से ही निबटाये जाते हैं वे काम खूबसूरत भी होते हैं। मन को मित्र बनाकर काम लेने से वह काम बिलकुल सरलता से हो सकते हैं जो कठोरतापूर्वक मनो नियंत्रण से काफी देर में और कष्टपूर्वक पूरे होते हैं। इसलिये मनुष्य के जीवन में मनोरंजन का सर्वाधिक महत्व है।

गांधी, नेहरू, टैगोर, तिलक, गोखले, बिनोवा भावे, पटेल, गालिब, सुकरात, टॉलस्टाय, शेक्सपीयर, बर्नार्डशा, नैपोलियन, हिटलर, स्टालिन, चार्ली, चर्चिल, अब्राहीम लिंकन, बट्रेन्ड रसेल, मार्कट्वेन, डार्विन, आइन्स्टीन इत्यादि संसार के सैंकड़ों महापुरुषों के जीवन में अन्य बातें, गुण परिस्थितियाँ अलग-अलग रही होंगी किन्तु मनोरंजन का गुण सबमें एक जैसा रहा है। यह सभी लोग हास्य विनोद से हमेशा अपने आप को तरोताजा किये रहते थे। लोग असमंजस में पड़ते हैं कि इन व्यक्तियों के जीवन में जो संघर्ष रहे, उनमें वे कैसे स्थिर बने रहे किस प्रकार इतनी कठिनाइयों के बावजूद उनकी आत्मशक्ति स्वस्थ, सशक्त और सतत क्रियाशील रही? वह उनका विनोदी स्वभाव ही रहा जिसने प्रत्येक परिस्थिति में नया बल दिया।

गाँधी जी कहा करते थे- “मैं केवल इसीलिये जिन्दा हूँ क्योंकि मनोरंजन मेरा स्वभाव है। हंसी मन की गाँठें खोल देती है। मेरे मन की ही नहीं तुम्हारे मन की भी।” “जब मैं स्वयं हँसता हूँ तो मेरे मन का बोझ हलका हो जाता है।” उक्त कथन रवीन्द्र नाथ टैगोर का है।

बेकन का कहना था- हंसमुख स्वभाव दीर्घ आयु का एक सर्वोत्तम साधन और सर्वप्रिय बनने का सुलभ उपाय है। इससे आयु और प्रतिष्ठा दोनों में वृद्धि होती है।

स्टर्न कहते हैं- “मुझे लगता है कि हर बार जब कोई मनुष्य मुस्कराता है या अधिक हंसता है तो वह अपने जीवन की वृद्धि करता है।”

“किसी व्यक्ति के हृदय में सहयोग, सहानुभूति और संवेदना की कितनी मात्रा है मैं इसकी पहचान इस बात से करता हूँ कि वह व्यक्ति प्रफुल्ल रहता है या नहीं। जो हंस सकता है वही औरों को हंसा सकता है। औरों के दिल का दर्द जान सकता है। “मुस्कान प्रेम की भाषा है” यह होमर ने कहा था।

दुःख इस बात का है कि गरीबी अशिक्षा और संकीर्णता के कारण जन-सामान्य या तो मनोरंजन के महत्व को समझते नहीं अथवा उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। अशुद्ध मनोरंजन की ओर आकर्षित होकर शक्ति साधन तथा समय का दुरुपयोग करते हैं। उद्योगीकरण के प्रसार के साथ-साथ आज का जीवन अत्यन्त व्यस्त और संघर्षमय होता जा रहा है। उधर स्वस्थ मनोरंजन के अभाव में आत्मिक दुर्बलताएं बढ़ती जा रही हैं इसलिये प्रत्यक्ष प्रगति और भौतिक लाभों के होते और बढ़ते हुए भी लोग दुःखी हैं। अतः जन-सामान्य के लिये स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था करना बहुत आवश्यक है।

स्वस्थ मनोरंजन वह है जो मन के अतिरिक्त शारीरिक शक्ति और स्वभाव को भी रंजित करे, शुद्ध करे। इस दृष्टि से खेल-कूद जैसे- बालीबाल, फुटबाल, हाकी, कुश्ती, कबड्डी, क्रिकेट, तैरना, दौड़ करना, साँस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य, संगीत, वाद्य, बौद्धिक आयोजन-अंताक्षरी, वार्तालाप, वाद-विवाद, लेख और कविता प्रतियोगिताएं यह सब शुद्ध और उत्पादक मनोरंजन हैं। सफाई, सजावट, शृंगार यह भी मनोरंजन के ही अंग हैं यह सभी गुणकारी और लाभकारी भी हैं।

भारतीय संस्कृत के अनेक तत्वों में संस्कारों का महत्व भी इसी दृष्टि से है। इनका उद्देश्य मन और आत्मा की सुषुप्त शक्तियों का उद्बोधन करना होता है। वह जिस रीति-नीति पर आधारित है उसे स्वस्थ मनोरंजन ही कहा जा सकता है।

संस्कारित मनोरंजन का ज्ञान न होने के कारण लोग विकृति की ओर आकर्षित हो गये हैं। “काम” मनोरंजन है पर वह शुद्ध नहीं क्योंकि वह शारीरिक शक्ति को कम करता है। इसे मनोरंजन की आम परिभाषा मान लेने के कारण समाज में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दुर्बलता के ही द्वार नहीं खुले चारित्रिक, नैतिक दुर्बलताएं भी तेजी में बढ़ी हैं। जनसंख्या बढ़ना स्वस्थ मनोरंजन की अवहेलना से ही हुआ है। यह देखकर कोई भी कह सकता है कि व्यक्ति ही नहीं समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिये भी संस्कारित मनोरंजन की अत्यधिक आवश्यकता है।

आज के विद्यार्थियों और युवा वर्ग पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें स्वच्छन्दता, अनुशासन-हीनता, व्यर्थ घूमने गप्प लड़ाने, रेडियो सुनने, सिनेमा देखने की बुरी आदतें बढ़ने से समाज का अहित हो रहा है। बात सही है किन्तु अपराधी ये लोग नहीं हैं। प्रारम्भ से ही अभिभावकों की यही कमी ही उन्हें इन अवाँछित दिशाओं में प्रेरित करती है। उन्हें स्वस्थ मनोरंजन से वंचित रखा जाता है । बच्चों को तो आत्मिक आह्लाद चाहिए आपने दिशा न दी, उसने स्वयं ढूँढ़ ली- यदि गलत ढूँढ़ो तो दोष आपका है क्योंकि आपने उसका शुद्ध मार्गदर्शन नहीं किया है।

मनोरंजन का आपके अपने बच्चों के लिये भी असाधारण महत्व है पर उसकी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्वस्थ परम्पराओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। मनोरंजन जो अन्तर्चेतना को प्रबुद्ध कर सकता है। वही उपयोगी भी है और आवश्यक भी। रचनात्मक मनोरंजन चाहे वह वाणी विनोद हो अथवा खेलकूद उसी से मन के बोझ को हटाकर उसे हलका रखना सम्भव होता है।

यदि यह स्वस्थ परम्पराएं विकसित होंगी तो सामाजिक एकता बढ़ेगी। स्वास्थ्य सुधार की सृजनात्मक दिशा मिलेगी। आक्रामक भावनाओं का शमन होगा। नेतृत्व के गुणों का विकास होगा।

मनोरंजन के अभाव में विचारों के आदान प्रदान का अवसर नहीं बनने पाता । अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन मिलता है। जनसंख्या में वृद्धि का मूल कारण ही स्वस्थ मनोरंजन का अभाव है। लोगों ने काम-प्रवृत्ति को ही मुख्य मनोरंजन समझ लिया है। यदि परिवार नियोजन में लगाये जा रहे विपुल खर्च को स्वस्थ मनोरंजनों के विकास में लगाया जा सके तो प्रजनन में वृद्धि का औसत निःसंदेह कम हो सकता है।

अतएव मनोरंजक साधनों का विकास व्यक्ति और समाज ही नहीं राष्ट्र के विकास के लिये भी आवश्यक है। इसकी उपेक्षा न की जानी चाहिए।


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