सद्ज्ञान और सत्कर्म की संस्कृति

February 1963

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पौधा तब बढ़ता है जब उसे खाद और पानी दोनों ही उचित मात्रा में मिलते रहें। यदि बीज ऐसी जमीन में बोया जाय जिसमें उर्वरा शक्ति न हो, खाद का अंश न मिला हो तो अच्छा बीज होते हुए भी वह उगेगा नहीं। इसी प्रकार जमीन में खाद का आवश्यक अंश होने पर उगे हुए पौधे को यदि पानी न मिले तो भी वह बढ़ न सकेगा और मुरझा कर सूख जायगा। इसी प्रकार सुसंस्कारों का पौधा ज्ञान रूपी खाद और कर्म रूपी पानी पाकर बढ़ता है। दोनों में से एक की भी कमी रह जाय तो अन्तरात्मा में सन्निहित सुसंस्कारों को विकसित होने का अवसर न मिलेगा।

दोनों पैर ठीक हों तो चलने की क्रिया में बाधा नहीं पड़ती, दोनों हाथ ठीक हों तो प्रस्तुत कामों को ठीक तरह करते रहना बन पड़ता है। यदि एक या दोनों पैर न हों तो चलने में भारी बाधा पड़ेगी। इसी प्रकार जिसके एक या दोनों हाथ न हों तो काम-काज कठिनाई से ही कर सकेगा। आत्मिक उन्नति के लिए दान और कर्म का वही महत्व है जो चलने के लिए पैरों और करने के लिये हाथों का। लंगड़े लूले आदमी भी कुछ तो काम चलाते ही हैं पर सर्वांगपूर्ण स्वस्थ होने पर जो सम्भव था वह कहाँ हो पाता है? आत्मोन्नति की प्रक्रिया सद्ज्ञान और सत्कर्म के अभाव में अस्त-व्यस्त ही रहती है।

मानवीय चेतना में जो सत् तत्व है इसके विकास का विधिवत् प्रयत्न करना पड़ता है। इस प्रयत्न में कमी रहती है तो प्रगति का द्वार रुका ही पड़ा रहता है। दर्पण के आगे जिस प्रकार की आकृति आती है वैसा ही प्रतिबिम्ब दीखने लगता है। मानवीय चेतना को जैसे व्यक्तियों जैसी परिस्थितियों के सान्निध्य में रहना पड़ता है वह वैसा ही बन जाती है। कसाई के घर में उत्पन्न हुआ बालक बड़ा होते-होते अपने घर का व्यवसाय सीखकर बिना किसी लज्जा या घृणा के छुरी चलाने लगता है। पुजारी ब्राह्मण के बालक में सेवा पूजा के संस्कार पड़ते हैं और वयस्क होने पर उसके गुण, कर्म, स्वभाव अपने घर वालों जैसे ही ढलने लगते हैं। कसाई का बालक और पुजारी का बालक गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से परस्पर कितने विपरीत हैं! इसे देखकर यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि मनुष्य को जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है उधर ही उसकी प्रगति होने लगती है।

आन्तरिक प्रगति सही दिशा में होती रहे इसके लिये बहुत सावधानी के साथ प्रयत्न करने पड़ते हैं। तत्वदर्शी ऋषियों ने इस संदर्भ में एक साँगोपाँग जीवन दर्शन, नीति-शास्त्र एवं आचार संहिता का सुव्यवस्थित आधार निर्धारित किया है, उस निर्धारणा का नाम है—’संस्कृति’। संस्कृति का तात्पर्य ज्ञान और कर्म की उस व्यवस्था से है जो मानवीय चेतना को स्वस्थ दिशा से विकसित करने के लिए खाद पानी की तरह आवश्यक एवं उपयोगी सिद्ध होती है।

मनुष्य अपने मानवीय आदर्शों के अनुरूप व्यवस्थित एवं विकसित हो, इसके लिए उसे संस्कृति का आधार लेना पड़ता है। विभिन्न देशों और जातियों की अपनी विशेषताओं और परिस्थितियों के कारण, संस्कृति के बाह्य कलेवर में अन्तर देखा जाता है। पूर्व और पश्चिम के देशों में संस्कृति का बाह्य स्वरूप भिन्न देखा जाता है। रीति, रिवाज, पहनाव, उढ़ाव, पूजा, पाठ एवं रहन-सहन के तरीकों में अन्तर होते हुए भी विश्व संस्कृति का मूल आधार सर्वत्र एक ही देखा जाता है। सत्-ज्ञान और सत्-कर्म इन दो को प्रत्येक संस्कृति में वही स्थान प्राप्त है जो अनेक आकार प्रकार में बने हुए मकानों में ईंट चूने को। ईंट चूना हर इमारत का आधार होता है, उनके डिजाइन आवश्यकता और अभिरुचि के अनुरूप बदलते रहते हैं।

यदि सद् विचारों को मस्तिष्क और अन्तःकरण में स्थान देने के लिए प्रयत्न न किया जायगा तो अपने जन्म जन्मान्तरों के संग्रहीत कुसंस्कार और आस पास के अनैतिक आकर्षण प्रभाव डालते रहेंगे और मनोभूमि दिन-दिन दूषित होती चली जायगी। शरीर में मैल भीतर से भी निकलता है और बाहर से भी जमता है। यह प्रक्रिया हमें चाहे कितनी ही अप्रिय क्यों न लगे पर जो क्रम बना हुआ है वह तो रहेगा ही। उपाय केवल यही हो सकता है कि स्नान आदि से रोज-रोज उस मैल की सफाई की जाती रहे। मन पर भी शरीर की ही भाँति मैल जमता है। अपने संग्रहीत कुसंस्कार भीतर से जोर मारते हैं और बाहरी वातावरण में बुराइयों का आकर्षण कुछ कम प्रबल नहीं है। दोनों के सम्मिश्रण से दुर्बुद्धि की एक अच्छी खासी आसुरी शक्ति उत्पन्न होती है जिसका प्रभाव मन पर धीरे-धीरे जमते रहने से आन्तरिक स्तर अधोगामी होने लगता है।

इस विपन्नता को रोकने के लिए हमें संस्कृति का अवलम्बन ग्रहण करना पड़ता है। जिस प्रकार पानी और साबुन की सहायता से कपड़े का मैल छूटता है उसी प्रकार मन पर जमे हुए मलिनता के परतों की सफाई सद्ज्ञान और सत्कर्म के आधार पर होती है।

यह सुनिश्चित है कि आन्तरिक उत्कृष्टता के आधार पर ही मनुष्य के स्वभाव में सद्गुणों को स्थान मिलता है और सद्गुणों द्वारा ही जीवन की विभिन्न दिशाओं में स्थायी प्रगति होती है। चोरी बेईमानी से कुछ लोग, कुछ समय तक, कुछ-कुछ लाभ उठा लेते हैं, पर किसी महान और चिरस्थायी सफलता का आधार यह बुराइयाँ कभी भी नहीं हो सकतीं। सज्जनता और सच्चाई में ही वह शक्ति है कि किसी व्यक्ति या व्यवसाय की उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा जा सके और उसकी प्रतिष्ठा को चिर स्थायी बनाया जा सके। सुख, शाँति और श्री, समृद्धि की आधार शिला मनुष्य की आन्तरिक उत्कृष्टता ही होती है। इसी उपलब्धि को जीवन का सबसे बड़ा लाभ माना गया है। इस लाभ को प्राप्त करने की विधि व्यवस्था को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का अर्थ है—सद्ज्ञान और सत्कर्मों का संचय।

जल्दबाज लोग आत्म निर्माण की, जीवन निर्माण की प्रक्रिया को कष्टसाध्य समझकर उतावली में तत्काल लाभ देने वाली दुष्प्रवृत्तियों को अपना कर कुछ ही देर में भारी लाभ प्राप्त कर लेने की योजना बनाते रहते हैं। अनीति एवं धूर्तता के सहारे वे भारी सफलता प्राप्त कर लेने के सपने देखते हैं। पर होता यह है कि उनकी यह जल्दबाजी सफलता को ही संदिग्ध नहीं बनाती वरन् उनके व्यक्तित्व को भी नष्ट कर देती है। प्रगति का राज मार्ग एक ही है कि श्रम और सच्चाई को अपना कर धैर्य और साहस के साथ आगे बढ़ता रहा जाय। उसे छोड़कर जो पगडंडियाँ तलाश करते हैं वे खतरा उठाते हैं।

सच्ची प्रगति झूठे आधार अपनाने से उपलब्ध नहीं हो सकती। स्थायी सफलता और स्थिर समृद्धि के लिए उत्कृष्ट मानवीय गुणों का परिचय देना पड़ता है। जो इस कसौटी पर कसे जाने से बचना चाहते हैं, जो जैसे बने वैसे, तुरन्त, तत्काल बहुत कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, उनके सपने न सार्थक होते हैं न सफल। यदि अनुपयुक्त मार्ग से चिरस्थायी सफलता सम्भव रही होती तो दुष्ट दुराचारी लोग जेलखानों, पागलखानों, शफाखानों में बन्द न दीखते, वे अपनी चतुरता के आधार उन्नति के उच्च शिखर पर विराजमान रहते।

जिस प्रकार लौकिक उन्नति का आधार आन्तरिक उत्कृष्टता के आधार पर उत्पन्न हुए सद्गुण ही होते हैं उसी प्रकार आत्मिक उन्नति साँस्कृतिक अवलम्बन पर निर्भर रहती है। ज्ञान और कर्म के द्वारा ही अन्तः चेतना को निर्मल और सूक्ष्म बनाया जाता है, तभी वह उच्च स्तरीय प्राप्ति के योग्य बन पाती है। इस राजमार्ग को छोड़कर कई व्यक्ति जल्दबाजी का उपाय खोजते हैं, पगडंडियां खोजते हैं और मृगतृष्णा में अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं। कई व्यक्ति सोचते हैं आत्म-सुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्म-विकास का मार्ग श्रम-साध्य है, इसलिए कोई ऐसी तरकीब ढूँढ़नी चाहिए जिससे सहज ही आत्मिक-लक्ष की प्राप्ति हो जाय। गुरु कृपा, शक्तिपात, आशीर्वाद, देवता की प्रसन्नता, आदि जो साधन उन्हें सरल दीखते हैं उनकी ओर अधिक लालायित रहते हैं। इस उतावली में लाभ कम और हानि अधिक होने की सम्भावना ही बनी रहती है।

साधन, उपासना का राजमार्ग मनुष्य की अन्तः चेतना में ज्ञान और कर्म की आवश्यक प्रेरणा उत्पन्न करने के लिए ही है। ध्यान और जप के द्वारा साधक अपने स्वरूप को, आत्मा को, अपने उद्गम परमात्मा को समझने की चेष्टा करता है और दोनों की एकता का तारतम्य मिलाता है। जप के द्वारा उस विराट ब्रह्म के प्रति अपनी निष्ठा बढ़ाता है जो उच्च भूमिका में उपलब्ध होने वाली महान् अनुभूतियों का उद्गम है। जप और ध्यान के समय जिस परब्रह्म की धारणा की गई थी उसे पूजा के बाद व्यवहारिक जीवन में उतारना भी आवश्यक है। अन्यथा केवल एक नियत समय पर थोड़ा पूजा विधान या जप, ध्यान कर लेने मात्र से आत्मिक प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त न हो सकेगा। आध्यात्म केवल जप, पूजन या पढ़ने-सुनने तक सीमित न समझ जाना चाहिए। यह प्रक्रियाएँ आवश्यक हैं, पर यदि ज्ञान और कर्म का खाद पानी न मिला तो यह अध्यात्म भी फला-फूला न दिखाई देगा।

मनः क्षेत्र में सद्विचारों की मात्रा इतनी अधिक भरी रहनी चाहिए कि कुविचारों के लिए वहाँ स्थान ही न बचे। लोहे को लोहे से काटा जाता है। मनोभूमि को दूषित करने वाले विचारों का निराकरण प्रतिरोधी सद्विचारों द्वारा ही सम्भव है। इसलिए यह प्रयत्न रहना चाहिए कि स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन या जैसे भी सम्भव हो मन में केवल उत्कृष्ट कोटि की विचारधारा एवं भावना को स्थान मिले। इसी प्रकार अपने कार्यों को ऐसा निर्मल बनाया जाना चाहिए कि उनमें अनीति, छल, असत्य, पाप एवं अकर्म के लिए कोई स्थान न रहे।


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