कौन चला आता मदान्ध हो हिमगिरि से टकराने को—
टूक-टूक हो बिखर जायगा गर्व न कर, ओ मतवाले!
मुँह पर राम छुरी ले करमें साथी कहलाने वाले।
“हिन्द-चीन भाई-भाई” का नारा दुहराने वाले।
डल-अलर कैलाश देख पानी मुँह में लाने वाले,
मानसरोवर पर कुदृष्टि रख योंही ललचाने वाले॥
कामदेव-सा क्यों आता है खुद ही तू जल जाने को—
प्रलयंकर त्रिनेत्र शिव बैठे समाधिस्थ भोले भाले!
तुम केशर की सुरभि और सेवों को देख चले आए,
पर रखना यह याद कि तक्षक तुम्हें न कहीं निगल जाए।
यह रावण-सा वेष बदल तुम सीता को छलने आए,
पर रखना यह ध्यान कि तेरी लंका कहीं न ढह जाए॥
यह चुशूल, जो तज उसूल आता-त्रिशूल बन जाता है—
सँभल, बढ़ाना पग—उठ बैठे-शिवा-धनंजय रखवाले!
एक फूल भी चुन न सकेगा तू इस अक्षय क्यारी का
ब्रह्मपुत्र-सुरसरि से सिंचित रक्षित नव-फुलवारी का
चाओ-माओ ‘मुझे बचाओ’ छोर न पा जब सारी का,
कह भागेंगे, वसन-रूप लख नटवर गिरिवर धारी का!!
तृणावर्त अघ असुर कंस-सा जो अन्यायी बन आए—
भारत-सारथि बन फकेंगे पाँचजन्य ओ मतवाले!
अस्तु, मानजा पंचशील के सबसे पहिले अनुयायी
मानवता तज क्यों बनता दुर्दान्त और आततायी
हम शिव-से भोले भाले भी हम मोहन के अनुयायी
शान्ति-सत्य के सदा समर्थक सारे जग के हैं भाई!
अभी न बाँधे कफन सिरों पर, चेत मढ़ तू रार न कर—
खेल, लौटे जा अपने घर को, ओ अफीम के मतवाले!
[श्री रामस्वरूप खरे]