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February 1963

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आयुषः क्षण एकोऽपिन लब्धः स्वर्ण कोटिभिः।

सवृथा नीयते येन तस्मै नृपशवेन मः

—व्यास

आयु का एक क्षण करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं में भी नहीं मिल सकता। ऐसे मूल्यवान् क्षणों को जो व्यर्थ ही गँवाते हैं उन नर पशुओं को नमस्कार।

सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्

सन्तोष मूलं हि सुखं दुःखं मूलं विपर्यघ्यः

—मनु 4। 12

सुख चाहने वाला सन्तोषी बने, और अपने आपको संयम में रखे। सन्तोष ही सुख की जड़ है। असन्तोष में तो दुख ही दुख है।

जब भी विकसित होती हैं तब सदाचार और सद्व्यवहार ही उनका बाह्यरूप प्रकाश में आता है।

आत्म-सन्तोष और आत्म-सम्मान यह दो ही आत्मा की प्रधान आवश्यकता, मुख्य क्षुधाएँ हैं। उनकी तृप्ति से—उनकी पूर्ति से ही आत्मा को सच्ची तृप्ति का अनुभव होता है और वह शान्ति तथा सन्तोष उपलब्ध करती है। इन दोनों की तृप्ति पूर्णतया अपने हाथ में है। शरीर से सत्कर्म करते हुए, मन में सद्भावनाओं की धारणा करते हुए जो कुछ भी काम मनुष्य करता है वे सब आत्मसन्तोष उत्पन्न करते हैं। सफलता की प्रसन्नता क्षणिक है पर सन्मार्ग पर चलते हुए कर्तव्य पालन का जो आत्म सन्तोष है उसकी सुखानुभूति शाश्वत एवं चिरस्थायी होती है। गरीबी और असफलता के बीच भी सन्मार्गगामी व्यक्ति गर्व और गौरव का अनुभव करता है।

आत्म-सम्मान का आधार दूसरों को सम्मान देने में है। गुम्बज वाले मकानों में होने वाली प्रतिध्वनि की तरह हमें वही आवाज सुनने को मिलती है जो हमने बोली थी। यदि गाली दें तो गाली और भजन गावें तो भजन वह गुंबज वाला मकान प्रति-ध्वनि के रूप में दुहरा देता है। दर्पण में हमें अपनी ही परछांई दिखाई देती है। अपना जैसा भी कुरूप या रूपवान चेहरा होता है वही लौटकर दिखाई पड़ता है। इस संसार का व्यवहार भी गुम्बजदार मकान या दर्पण जैसा ही होता है यदि हम दूसरों का सम्मान करते हैं तो बदले में हमें सम्मान मिलते हैं। अपने मन में यदि दूसरों के प्रति प्रेम एवं आत्मीयता भरी रहे तो बदले में दूसरी ओर से भी हमें यही सब मिलेगा।

दूसरे लोगों का व्यवहार हमें सन्तोष और सम्मान प्राप्त करने वाला हो यह हर किसी की इच्छा रहती है पर वह यह भूल जाता है कि इनको प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना होगा? मूल्य चुकाये बिना हमें संसार में कोई वस्तु नहीं मिलती। फिर परम आनन्द और तृप्ति प्रदान करने वाली यह विभूतियाँ भी हमें अनायास ही क्यों कर मिल सकेंगी? अपने कर्तव्यों द्वारा यदि उचित मूल्य चुकाने को—अपना आचरण सुधारने को तैयार रहा जाय तो कोई कारण नहीं कि आत्म-सन्तोष और आत्म सम्मान की समुचित मात्रा हमें प्राप्त न हो और आत्मा को तृप्ति की एवं प्रफुल्लता की परिपूर्ण अनुभूति का आनन्द न मिले।

=कहानी===================================================================

रूप गर्विता अप्सरा वपु अपनी पूर्ण साज-सज्जा के साथ चल दी महर्षि दुर्वासा को उनके तप से विचलित करने के लिए। वपु ने सोचा सर्वत्र मेरा ही प्रभुत्व क्यों न रहे?

सारा वन प्रान्त गूँज उठा उसके थिरकते गीत और पायलों की झंकारों से। दुर्वासा की कुटिया के समीप ही वह जा पहुँची। उन्मादकारी स्वर लहरी महर्षि के कर्ण कुहरों में प्रवेश करने लगी।

ऋषि का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने योग-दृष्टि से देखा तो सब कुछ समझने में उन्हें देर न लगी। अप्सरा उन्हें लुभाने और पथभ्रष्ट करने आई है। तप को वासना परास्त करे, यह कल्पना उन्हें बुरी लगी। उन्हें क्षोभ हो आया, आँखें लाल हो गईं।

कुटी से बाहर निकलकर उस रूप गर्विता को थिरकन की एक क्षण के लिए ऋषि ने देखा और कहा— अभागी! तुझे तो सौरभ मिला था, उससे तू जगती की प्रसुप्त भक्ति भावना को जगा सकती थी, सरसता को अमृत की दिशा में मोड़ सकती थी, पर हाय री मूर्खा! तू तो उलटा ही करने को उद्यत हो गई। जा, अपने कर्म का फल भोग। तू पक्षी की योनि में मारी-मारी फिरेगी। तेरे चार पुत्र होंगे पर वे अपंग ही बने रहेंगे।

महर्षि का शाप मिथ्या कैसे होता। वपु अप्सरा का कलेवर छोड़, एक साधारण सी चिड़िया बन गई। अण्डे दिये, उनसे चार बच्चे निकले। पर वे चारों ही अपंग थे। रूप गर्विता अप्सरा के पास जब पश्चाताप ही शेष था। कला की देवी वपु अपने नृत्य संगीत से आज भी दुर्वासना को भड़काकर जन मानस में अपनी प्रभुता जमाने में संलग्न है। पर लक्ष्य भ्रष्ट होने के कारण निराश्रित पक्षी की तरह ही उसे इधर उधर मारी मारी फिरना पड़ रहा है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही बच्चे कला के गर्भ से उत्पन्न होते हैं। पर वासना का लक्ष बन जाने से तो वे भी अपंग ही रहेंगे।

कला की अप्सरा को आज भी शापित वपु की तरह पश्चाताप करना पड़ रहा है। वासना के लिए उसका किया हुआ नृत्य भला और किसी परिणाम पर पहुँचता भी कैसे?

कला की अप्सरा को आज भी शापित वपु की तरह पश्चाताप करना पड़ रहा है। वासना के लिए उसका किया हुआ नृत्य भला और किसी परिणाम पर पहुँचता भी कैसे?


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