आह्वान (kavita)

February 1963

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गढ़ फिर कोई दीप नया तू मिट्टी मेरे देश की।

अन्धी हुई दिशायें सारी यूँ अंधियारी छा रही,

किरण तोड़ती साँस रोशनी जीने की छटपटा रही।

ऐसा कुछ ठहराव आ गया आज विश्व की राह में,

पथ भूले बनजारे जैसी पीढ़ी चलती जा रही।

कोई बाँह पकड़ ऐसे में, सही दिशा का ज्ञान दे,

सख्त जरूरत आज जगत को एक सच्चे दरवेश की॥ गढ़ फिर कोई॰ ॥

देवभूमि ये जन्म दिये इसने अनगिन अवतार को।

ज्योति-स्तम्भ बन हरती आई, ये जग के अंधियार को॥

मुझको है विश्वास कि धरती बाँझ नहीं इस देश की,

फिर से कोई नया मसीहा देगी ये संसार को।

इसकी मिट्टी उड़ कर बैठी सूरज के भी भाल पर,

नित उभरी आवाज यहाँ से, शान्ति प्रेम सन्देश की ॥ गढ़ फिर कोई0॥

यद्यपि प्रलयंकारी घन से घिरा हुआ आकाश है,

फिर भी मानव के भविष्य से मेरा मन न निराश है।

शायद इसी मोड़ के आगे मानव का निज लक्ष्य हो?

इसी तिमिर के पीछे शायद कोई नया प्रकाश है।

जब तक मेरा देश, मनुजता होना नहीं उदास तू,

निकट जन्म-बेला है शायद किसी नये अवधेश की।

गढ़ फिर कोई दीप नया तू मिट्टी मेरे देश की! —चन्द्रसेन “विराट”


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