सुरक्षा प्रयत्नों में शिथिलता न आने पाये

February 1963

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चीन के आक्रमण ने हमारी स्वतन्त्रता, सामर्थ्य और प्रतिष्ठा को चुनौती दी है। इस प्रकार के अन्यायपूर्ण, आक्रमण कोई किसी पर तभी करने को उद्यत होता है जब वह समझता है कि छल बल के द्वारा प्रतिपक्षी को परास्त करके वह मनमानी कर सकता है। ऐसी मान्यता उसी के मन में जमती है जो प्रतिपक्षी को अपने से कमजोर समझता है। अन्यथा अकारण इतना अन्यायपूर्ण आक्रमण कोई मदान्ध ही करते हैं। कारण होने पर तो दुर्बल के भी लड़ने और प्रतिरोध करने की बात समझ में आती है, पर जिस बात का कोई आधार न हो ऐसे बहाने लेकर चढ़ दौड़ना कोई नृशंस ही कर सकता है। निस्संदेह भारत पर नृशंस और बर्बरता पूर्ण आक्रमण हुआ है। ऐसे कुकृत्य करने वाले को लज्जित होना चाहिए था किन्तु जिस धूर्तता और निर्लज्जता के साथ अपने पक्ष को भी सही सिद्ध करने की चीन चेष्टा कर रहा है उसे देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि निर्लज्जता की निकृष्ट भूमिका पर खड़े होकर सोच समझ कर तैयारी के साथ ही यह बर्बरता कार्यान्वित की गई है।

कपटी मित्र का विश्वासघात—

मित्र बन कर कपटी शत्रु सा व्यवहार करने का उदाहरण पुराणों के असुर उपाख्यानों में पढ़ने को मिलता था, अब हमारी आँखें वह सब देख रही हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों से हमें इतिहास से ही शिक्षा ग्रहण करनी होगी। असुर आक्रमण की पूर्व तैयारी में रहते हैं इसलिए आरम्भ में उन्हें सफलता मिलती है। देवता आक्रमण की नहीं शाँति की बात सोचते रहते हैं इसलिए स्वभावतः उनकी आक्रमण शक्ति न्यून रहती है। इसलिए उन्हें मात खानी पड़ती है। इसका उपाय एक ही रहा है। आगे भी वही होगा। वह है—प्रतिरोध के लिए आवश्यक शक्ति का संचय। चोट खाये हुए देवता जब भगवान के पास अपनी व्यथा और पुकार सुनाने गये हैं तो उन्हें उपाय रूप से शक्ति संचय का ही उपदेश मिला है। देवताओं ने वही किया है। देवताओं द्वारा देव आदर्शों को लेकर जो दिव्य शक्ति एकत्रित की जाती है वह निस्सन्देह बड़ी प्रबल होती है। असुरों के सारे छल−बल उसके सम्मुख तुच्छ सिद्ध होते हैं और तैयारी के बाद जो देवा पुर संग्राम होता है उसमें असुरता का विनाश होता है।

इस बार भी यही हो सकता है। यही होगा। यही होना चाहिए कि हम भारत भूमि के नागरिक अपने देव आदर्शों के अनुरूप प्रतिरोध की आवश्यक शक्ति का संचय करने में लग जावें। इसी एक उपाय से हमारा कल्याण होगा। इसी से हमें विजय मिलेगी। सतयुग में देवताओं की शक्तियों का एकीकरण करके ब्रह्मा जी ने दुर्गा का आविर्भाव किया था और उसने शुँभ, निशुँभ, महिषासुर, मधुकैटभ आदि असुरों को परास्त किया था। हमें संगठित रूप से अपनी उस प्रसुप्त दिव्य शक्ति को जागृत करना होगा, जो विजय के लिए नितान्त आवश्यक है।

लड़ाई समाप्त नहीं हुई—

इन दिनों मोर्चे पर गोली चलना बन्द है। बीच बचाव करने वाले समझौते की बातें भी चला रहे हैं। इससे किसी को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि लड़ाई समाप्त हो गई और झगड़ा निपट गया। यह समर नीति मात्र है। अपनी तैयारी और प्रतिपक्षी को धोखे में डालने मात्र के लिए यह सब केवल पैंतरा बदलने मात्र की चालाकी है। हमारे सामने एक वास्तविक खतरा है। मोर्चे बदल सकते हैं पर अपनी परीक्षा की स्थिति जारी ही रहेगी। सामयिक समझौते का कोई मार्ग निकला भी तो उससे स्थिरता और भी नहीं होगी। उफनता हुआ पानी दूसरे रास्ते से कूदेगा। हममें से किसी को भी भूल में न आना चाहिये कि इस जमाने में गोली चलाना न चलाना कोई विशेष महत्व नहीं रखता। भय और आतंक उत्पन्न करके कूटनीति से लड़ाई भी लड़ी जाती है जिसे ‘शीत युद्ध’ कहते हैं। शीत युद्ध इस युग की राजनैतिक धूर्तता की एक नई देन है। गोली बन्द रहते हुए भी शीत युद्ध चलता रह सकता है और उससे भी वैसे ही भयंकर परिणाम होते रहते हैं, जैसे मार काट वाले गरम युद्ध के होते हैं।

हो सकता है कि गरम युद्ध शीत युद्ध में बदल जाय। पर यह निश्चित है कि चीन के इरादे हमारी सभ्यता और स्वतंत्रता को नष्ट करने के हैं। गोली चलाना भले ही उसने अपनी आवश्यकता के अनुसार बन्द किया हो पर भारतीय जनता को आतंकित करके अपने झंडे के नीचे ले आने की चाल और भी उग्र होती जा रही है। इसलिए हमें न तो बेखबर रहना चाहिए और न निश्चिन्त। आज का शीत युद्ध कल गरम युद्ध बन सकता है। आक्रमण- कारी को जब भी अपनी सुविधा दीखेगी तभी वह फिर पहले की तरह गोली बरसाने लग सकता है। दूसरे देशों के कंधे पर अपनी बंदूक रखकर दूसरे बहाने से आक्रमण के दृश्य उपस्थित कर सकता है। हमारी बेकसी और निश्चिन्तता देखकर तो उसकी हिम्मत और भी बढ़ सकती है। इससे आक्रमण की घड़ी और भी जल्दी हो सकती है। इसलिए हम में से हर एक को यही सोचना होगा कि लड़ाई चल रही है। हमारी प्रतिष्ठा और स्वाधीनता अभी भी दाँव पर लगी हुई है। हमारी मातृभूमि का हड़पा हुआ भाग जब तक वापिस नहीं मिल जाता तब तक किसी स्वाभिमानी भारतीय के लिए चैन से बैठने की, बेखबर रहने की, उपेक्षा करने की बात सोचना आत्मघातक ही होगा।

लम्बी तैयारी की आवश्यकता—

पिछले अंक में कहा गया था कि अभी साढ़े आठ वर्ष हमें इसी तरह की स्थिति में रहना होगा। हमारे राजनैतिक नेता भी यही कहते और सोचते हैं। पाकिस्तान की गतिविधियाँ जो इन दिनों चल रही हैं बहुत ही ध्यान देने योग्य हैं। अगले वर्ष काफी उथल पुथल का है। समय का तकाजा यह है कि बिना एक क्षण भी बर्बाद किए हमें शक्ति संचय में पूरी तत्परता और सतर्कता से संलग्न रहना चाहिए। हो सकता है कि गोली चलना देर तक रुका रहे और यदि समय रहते हम चेत गये और शत्रु के दाँत तोड़ने लायक आवश्यक शक्ति जुटा सके तो यह भी हो सकता है कि दूसरा आक्रमण करने से पूर्व शत्रु को कुछ अधिक सोचना और अधिक ठहरना पड़े। ऐसी स्थिति पैदा करना न करना हमारे हाथ की बात है। अपनी दुर्बलताओं को हटाने से लापरवाही करके और भी प्रचंड आक्रमण को आमंत्रित करना या शक्ति संचय में जुट कर उसकी संभावना तक को समाप्त कर देना बिलकुल हमारे अपने हाथ की बात है।

हमारी सीमा , स्वाधीनता, प्रतिष्ठा और सभ्यता पर जो आक्रमण हुआ है उससे प्रत्येक देशभक्त भारतीय का तिलमिला जाना स्वाभाविक है। ऐसे अवसरों पर भी जिसे आवेश नहीं आता और इतनी चोट लगाने पर भी प्रतिरोध के लिए कुछ करने की बात जो नहीं सोचता उसे जीवित-मुर्दा एवं भावना हीन पाषाण ही कहा जायगा। ऐसे धरती के ऊपर माता के कपूत होंगे तो सही, पर संभवतः उनकी संख्या देश में कम ही होगी। जिनमें देशभक्ति की भावना मौजूद है उनमें से प्रत्येक का कर्तव्य है कि राष्ट्रीय अग्नि परीक्षा की घड़ी में कुछ सोचें, और कुछ करें।

हम भी कुछ न कुछ तो करें ही—

हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार इस धर्म युद्ध में, इस जन युद्ध में कुछ न कुछ आहुति दे सकते हैं। अंधे, कोढ़ी, अपंग, निर्धन तक उत्साहपूर्ण त्याग कर रहे हैं तो जिनके पास कुछ साधन हैं। वे तो बहुत कुछ कर सकते हैं। गत दिसम्बर और जनवरी के अंकों में हम इस संबंध में बहुत कुछ कह चुके हैं। धन, स्वर्ण, रक्त देने, सेना से भर्ती होने, नागरिक सुरक्षा सेना में भाग लेने, खेतों और कारखानों में अधिक काम करके उत्पादन बढ़ाने जैसे अनेकों कार्य सामने उपस्थित हैं, जिनमें हर कोई अपनी शक्ति, सामर्थ्य और स्थिति के अनुसार कुछ न कुछ कर ही सकता है।

अखंडज्योति परिवार के सब लोग हर 20 तारीख को रक्षा दिवस मनाया करें, सामूहिक प्रार्थना किया करें, रक्षा प्रयत्नों में सहयोग के लिए एक महीने का कार्यक्रम उस दिन बनाया करें, यह कहा जा चुका है। सप्ताह में एक समय उपवास रख कर अन्न बचाने और इस प्रकार प्रति सप्ताह चार आने, महीने में एक रुपया बचा कर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कोश’, ‘नई दिल्ली’ के पते पर भेजने के लिए जोरदार अपील की गई है। प्रसन्नता की बात है कि प्राप्त सूचनाओं के अनुसार अधिकाँश परिजन इस प्रक्रिया को उत्साह पूर्वक अपनाने लगे हैं। उपासना में प्रति दिन एक माता गायत्री मंत्र को सुरक्षा के लिए अतिरिक्त रूप से बढ़ा देने वाली बात तो प्रायः सभी पाठकों ने कार्यान्वित करनी और कर दी है, यह हर्ष और संतोष की बात है। पर यह याद रखना चाहिए कि यह सामयिक और बाह्य प्रयत्न मात्र स्थिर शक्ति का संचय करने के लिए हमें अन्य महत्वपूर्ण कार्यक्रम भी अपनाने होंगे। राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए हमें और भी बहुत कुछ करना होगा।

सामयिक और स्थिर प्रयत्न—

सुरक्षा का प्रश्न आवश्यक है, सामयिक आवश्यकता की दृष्टि से तो वही सबसे महत्वपूर्ण है। उन्हें तत्काल पूरा करने में संलग्न रहते हुए भी हमें यह न भूल जाना चाहिए कि ठोस शक्ति ही सुरक्षा की स्थिर गारन्टी है। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक कर्म से शक्तिशाली नागरिकों के द्वारा ही कोई राष्ट्र शक्तिशाली बनता है। देश और कुछ नहीं उसके निवासियों का समूह ही तो समाज या राष्ट्र कहलाता है। नागरिक जिस स्तर के होंगे उसी स्तर की राष्ट्रीय शक्ति रहेगी। शक्ति का स्रोत जनता ही तो है। जन मानस में जितनी दुर्बलता या सशक्तता रहेगी उसी के अनुसार उसकी प्रगति होगी, वैसी ही सुख शान्ति रहेगी और उसी के अनुसार सुरक्षा सम्भव होगी। हमें जन मानस में रहने वाली शक्ति को समझना होगा, उसे जगाना और उठाना होगा। तभी हम शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में खड़े हो सकेंगे और तभी हमारे शत्रुओं को अपने कुचक्र छोड़ने के लिए विवश होना पड़ेगा।


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