उपवास : स्वस्थ रहने का श्रेष्ठ साधन

February 1963

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उपवास मनुष्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन। हमारे आचार्यों ने एकादशी व्रत की पन्द्रहवें दिन व्यवस्था की थी और उसे धार्मिक रूप देकर दिनचर्या में सम्मिलित कर दिया था। परन्तु, आज उस एकादशी व्रत का जो रूप देखने में आता है, उससे लाभ की अपेक्षा हानि की ही अधिक संभावना रहती है, क्योंकि उपवास के स्थान पर फलाहार किया जाता है और वह कथित फलाहार भी पकौड़ियाँ, खोए की मिठाई आदि विभिन्न पकवानों के रूप में होता है।

आयुर्वेद के विद्वानों ने उपवास को मानसिक रोगों में अत्यंत लाभकारी बताया है। जब औषधि उपचार से लाभ नहीं होता तब उपवास का सहारा लेकर ही लाभ उठाया जा सकता है। आज के युग में भौतिक चमक-दमक से ऊबा हुआ व्यक्ति जैसे मदिरा-पान द्वारा अपने दुःखों को विस्मृत करने का यत्न करता है, वैसे ही हमारे पूर्वज अपनी मानसिक चिन्ताओं से उत्पन्न वेदनाओं को दूर करने के लिए उपवास का आश्रय लिया करते थे और यह बात ठीक थी कि उपवास से सच्ची शान्ति प्राप्त होती थी। परन्तु मदिरा पान से शान्ति तो क्या प्राप्ति होगी, शरीर का ढाँचा ही बिगड़ जाता है।

हमारी चिकित्सा-पद्धति में विभिन्न रोगियों को उपवास कराया जाता रहा है। ज्वर, मंथर ज्वर, शीतला, ग्रन्थीक्षत, अर्बुद, पक्षाघात आदि विभिन्न रोगों में वैद्य लोग उपवास कराते थे और उस चिकित्सा से स्थायी लाभ होता था। आज क्षणिक लाभ की चाह बढ़ने से रोग का विष दूर नहीं हो पाता। शरीर में जितने प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं, उन सभी का उपचार उपवास द्वारा किया जा सकता है।

औषधियों द्वारा उपचार से यह मान लिया जाय कि रोग के कीटाणु नष्ट हो गए, परन्तु औषधि की प्रतिक्रिया रूप जो नवीन विषाक्त पदार्थ शरीर को प्राप्त हुए, वे उपवास द्वारा ही शमन किये जा सकते हैं। अन्यथा कीटाणु मर तो गए परन्तु उनके मृत शरीर आपके शरीर में रहकर नवीन भोजन में मिलते जाएंगे और पेट में एकत्रित कचरा कभी भी साफ न हो सकेगा और शरीर का यन्त्र पुनः अवरुद्ध होकर रोगोत्पत्ति की आशंका रहेगी।

आप कहेंगे कि कचरा साफ करने के लिए पेट शोधन विरेचन लिये जा सकते हैं, परन्तु ध्यान रखिये कि शरीर के विभिन्न स्थानों में सूक्ष्म मल एकत्र होता रहता है और वह इन विरेचनों द्वारा निकल नहीं पाता। इनसे तो साधारण कचरा ही निकल पाता है। उस सूक्ष्म मल को उपवास ही निकाल सकता है। इससे बढ़कर कोई दवा कारगर नहीं होगी।

कुछ लोग कहते हैं कि जब हम अपने दैनिक भोजन में इस प्रकार के अनेक पदार्थ ग्रहण करते हैं, जिनसे शरीर की प्राकृतिक क्रिया में कोई गड़बड़ी पैदा हो और आवश्यकतानुसार सफाई होती रहे तब भी रोग उत्पन्न हो जाते हैं तो उपवास ही उन्हें कैसे रोक पायेगा? उन लोगों को विचार करना चाहिए कि दैनिक जीवन में शरीर को स्वच्छ करने वाले पदार्थों को हम अपने स्वाद के लिए कम-अधिक करते रहते हैं, जिससे उनकी मल-निस्सारक शक्ति में भी अन्तर पड़ता रहता है। इसके साथ हम कभी-कभी मिठाई आदि, पेट के लिए हानिकारक पदार्थों का भी अधिक सेवन कर बैठते हैं, इसी कारण हमें रोगों का शिकार होना पड़ता है। परन्तु, उपवास सभी स्थितियों में समान रूप से कार्य करता है, इसलिये उससे लाभ के बजाय हानि की कभी संभावना नहीं होती।

भोजन की गड़बड़ी और पाचन क्रिया के ठीक प्रकार न होने के कारण पेट भारी हो जाता है और दूषित वायु एकत्रित हो जाती है। उसी से पेट दर्द, कब्ज, भारीपन, सिरदर्द, घबराहट, जी मिचलाना आदि विकार प्रकट हो जाते हैं उनका शमन करने के लिए सब से अच्छा उपाय उपवास ही है। यदि इन बीमारियों को आरम्भ होते ही दबाया नहीं जाता तो विकार बढ़ कर यकृत में खराबी उत्पन्न होकर विभिन्न रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

रुग्णावस्था में मनुष्य की भूख कम हो जाती है और मुख का स्वाद बिगड़ जाता है। प्रकृति का नियम है कि वह इस प्रकार भोजन-ग्रहण करने भार से रोगी को बचाती है जिससे कि भार के कारण व्यय होने वाली शक्ति का ह्रास न होने पावे। क्योंकि भोजन को पचाना, उसमें से उपादेय सार को लेकर रक्त के रूप में परिवर्तित करना और व्यर्थ मल को बाहर निकालना आदि कार्यों में बड़ी शक्ति व्यय होती है और यदि रोगी की यह शक्ति व्यय होती रहे तो क्षीणता भी अधिक बढ़ती चली जायगी।

इसी लिए उपवास के महत्व को स्वीकार करना आवश्यक है। उपवास ही एक ऐसी क्रिया है जो शरीर के पाचन यन्त्रों को विश्वास देने वाला है। यदि विश्राम नहीं मिलेगा तो यन्त्रों में शक्ति नहीं रहेगी और मनुष्य अपने उल्लास ताजगी और स्फूर्ति को खो बैठेगा।

उपवास जहाँ विभिन्न रोगों के लिए अमृत तुल्य उपचार है वहाँ दुर्घटना के कारण लगी चोट, मोच, फोड़ा अथवा आपरेशन से साध्य होने वाले मामलों में उससे हानि होना भी संभव है। ऐसी स्थिति में तो पौष्टिक और रक्त वर्द्धक पदार्थों का सेवन कराया जाना आवश्यक होता है।

यदि नियमित रूप से उपवास किया जाता रहे, जैसे एकादशी के दिन या और किसी दिन; तो यह मास में दो बार किये जाने वाला उपवास भी बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकता है। उससे बदहजमी, कब्ज, पेट दर्द, हर्निया, अर्बुद आदि बीमारियाँ होंगी ही नहीं। परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि उपवास के नाम पर पकवान न उड़ाये जाएं।

साधारणतः उपवास एक से तीन दिन तक किया जा सकता है और ऐसा उपवास कठिन नहीं होता। इसके लिए किसी चिकित्सक के परामर्श या निगरानी की भी आवश्यकता नहीं है। स्वाभाविक रूप से अन्न का परित्याग कर देना होता है। इसमें जल और फलों का रस आदि सेवन करना वर्जित नहीं है।

रोगों के उपचारार्थ किया जाने वाला उपवास लम्बे दिनों तक चलता है और उसके लिए किस योग्य चिकित्सक की देख-रेख भी अत्यन्त आवश्यक होती है। क्योंकि मनुष्य की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान साधारण व्यक्तियों को नहीं होता, और चिकित्सकों का अपना अनुभव होने के कारण वे जब परामर्श दें, उसे मानना ही हितकारक है।

उपवास रखने से अधिक सावधानी उसके तोड़ने में रखनी होती है, उस समय जो भी खुराक दी जाय, वह भली प्रकार सोच-समझ कर देनी चाहिए। कभी-कभी चिकित्सक के अनुभव न होने के कारण रोगी के प्राणों पर बन आती है।

प्रायः यह समझा जाता है कि लम्बा उपवास बहुत कठिन कार्य है। मनुष्य एक दिन भी भूखा रहने में बड़ी कठिनाई अनुभव करता है, तो लम्बे समय तक उपवास कैसे किया जा सकेगा? ऐसे व्यक्तियों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि उपवास करने वाले को भूख 3-4 दिन ही परेशान करती है इसके बाद उसकी भूख शान्त हो जाती है, और उसे किसी परेशानी का अनुभव नहीं होता। हाँ, यदि शरीर कमजोर है तो उपवास से अधिक कमजोरी उत्पन्न हो जाना संभव है। इसी लिये उपवास प्रारंभ करने से पूर्व किसी चिकित्सक से परामर्श लिया जाना आवश्यक समझा जाता है।

हमारे भैषज्य ग्रन्थों में विभिन्न कल्पों का विधान है, जिनके द्वारा बुढ़ापा भी दूर किया सकता है। यह कल्प भी अन्न-त्याग करने पर विशिष्ट फलों के प्रयोग द्वारा ही साध्य होते हैं, जो कि लम्बे उपवासों के ही रूप समझे जाने चाहिएं।


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