प्रसन्नता की प्राप्ति का मार्ग

February 1963

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प्रसन्नता, आन्तरिक पवित्रता, शुद्धि का बाह्य परिणाम है—बाह्य चिन्ह है। जब चित्त शुद्ध हो कर सत्वगुण सम्पन्न हो जाता है तभी प्रसन्नता की सहज वृत्ति जागृत हो जाती है। जब इस तरह के सत्वगुण सम्पन्न महापुरुष, जिनका अन्तर निर्मल पवित्र और स्वच्छ हो जाता है, जिन्होंने अपने अन्तर का समाधान कर लिया है वे हँसते हैं तो वातावरण में हँसी के स्रोत फूट पड़ते हैं। उनके चारों ओर प्रसन्नता साकार हो उठती है। दुःखी क्लेश-युक्त व्यक्ति भी उस प्रसन्नता के वातावरण में उस समय के लिए अपने दुःख क्लेशों को भूल जाता है।

महापुरुषों के सान्निध्य में रहने वाले इस तथ्य को जानते हैं। सचमुच उनके निर्मल हृदय से प्रसन्नता की सुरसरी प्रवाहित होती रहती है जैसे पावन हिमालय से गंगा। यह तो रही उन महान् आत्माओं की बात जिनके जीवन में प्रसन्नता एक रूप हो गई है। जन साधारण जो प्रसन्नता के अभाव में जीवन में क्लेश दुःख परेशानी अनुभव कर रहे हैं उनको प्रसन्नता को जीवन में उतारने के लिये निम्न बातों का ध्यान रखकर अपने अन्तर बाह्य जीवन में निर्मलता, स्वच्छता, माधुर्य, आन्तरिक समाधान आदि के लिए सतत् प्रयत्न करना आवश्यक है।

मनुष्य एक दूसरे पर अवलम्बित है। समाज के विशाल भवन में मनुष्यों का गठन उसी तरह है जैसे किसी माला के विभिन्न मनकों का। किसी भवन निर्माण में ईंटों को एक दूसरे से मिला कर एक निश्चित स्तर से रखना पड़ता है। उस भवन के निर्माण में प्रत्येक ईंट का अपना विशेष स्थान है। इतना ही नहीं नींव में निम्न स्तर पर लगी हुई ईंट का और भी अधिक महत्व है क्योंकि उसके ऊपर समस्त भवन का बोझा उठा हुआ है। ठीक इसी तरह मानव मात्र एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। सेन्टपाल के शब्दों में “हम सब एक दूसरे के साथी हैं” परस्पर अन्योन्याश्रयी है। अतः किसी का भी भले ही निम्नस्तर क्यों न हो हमें घृणा की दृष्टि से देखने का अधिकार नहीं है।

मनुष्यों के इस निकट सम्बन्ध में एक ही बात निश्चित है और वह है सबसे प्रेम करना, सबके अस्तित्व को अपनी तरह ही मान कर उसका पूरा-पूरा आदर करना। पड़ौसी से लेकर सबको प्रेम करना आवश्यक है। इससे आन्तरिक क्षेत्र से घृणा, अनुदारता, स्वार्थपरता आदि दोष दूर होंगे और प्रसन्नता का प्रकाश प्रकट होने लगेगा।

प्रत्येक व्यक्ति मूल से अच्छा है बुरा नहीं अतः किसी के गुण दोषों से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होना चाहिए। गुण और दोषों का संबंध उसी तरह है जैसे दीपक के प्रकाश में उस स्वयं की भी छाया। और यह निश्चित है दीपक की छाया के अभाव में प्रकाश का भी अस्तित्व नहीं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति में कुछ न कुछ हठीलापन होना सम्भव है। कर्तव्य के साथ थोड़ा बहुत अहंकार होना स्वाभाविक है। इस तरह के दोष छाया दोष कहे जाते हैं, जिनका अस्तित्व भी स्वीकार करना आवश्यक है। गुण दोष विरहित मनुष्य मिलना दुर्लभ है। अव्यक्त के प्रकाश के लिए छाया-दोष, चेतन की अभिव्यक्ति के लिए जड़ तत्व का परिधान स्वाभाविक है। अतः गुण दोषों का ध्यान न रखकर सभी का आदर करना प्रसन्नता की अभिवृद्धि के लिए आवश्यक है।

दूसरे से अनादर, अविश्वास, मतभेद, विचार भेद रखना, प्रसन्नता की जगह राग, द्वेष, क्लेश, अनादर, और अन्य बुराई के बीज बोना है। संसार में आज की गुटबन्दी, दलबन्दी, भिन्न-भिन्न वाद प्रान्तीयता, और विभिन्न एकाँगी निर्णय आदि जिन से लोगों में परस्पर विनाश की तैयारी होने लगती है और हिंसा की भावना बढ़ती है वे सब प्रसन्नता को दूर करके मानवता को नष्ट-भ्रष्ट करने वाले हैं। यह सब एक दूसरे के लिए प्रेम, आदर के अभाव के कारण ही होता है।

विभिन्न विचारों, दृष्टि कोणों, स्वभावों के कारण भेद हो सकते हैं और यह उसी तरह स्वाभाविक है जैसे संसार और इसके पदार्थों की विभिन्नता विचित्रता। किन्तु इनके साथ द्वेष, कटुता के भाव न हों वरन् प्रेम, एक दूसरे को आदर की भावनायें हो, जिससे विचार का, बातचीत का, हृदयों की एकता का रास्ता खुला रहे और मनुष्य इन सबसे सत्य को पा सके। प्रसन्नता के लिए परस्पर बुनियादी प्रेम, आदर भावनायें होना आवश्यक है।

स्नेह में भी आसक्ति होती है। किन्तु निस्वार्थ प्रेम और आदर अन्तस्तल को शुद्ध कर उसे बल प्रदान करता है, समर्थ बनाता है।

सृष्टि प्रत्येक अणु अपने स्थान पर पूर्ण है। ‘जो ब्रह्माण्ड में वही पिण्ड में’ऐसा श्रुतियाँ एक स्वर से कहती हैं। पूर्णता का भाव प्रत्येक व्यक्ति में है। एक पिता भोजन करने बैठा उसके साथी ही उसका पुत्र भी। पिता की थाली में पूरा लड्डू परसा गया और उस बच्चे की थाली में चौथाई हिस्सा इस पर बच्चा जिद करने लगा और बोला मैं पूरा लड्डू ही लूँगा। पिता ने बहुत समझाया किन्तु उसने अपनी जिद नहीं छोड़ी। इतने में ही माँ आई और उसके चौथाई लड्डू को अन्दर उठाकर ले गई। उसे गोल बना कर फिर थाली में परस दिया। अब बच्चा प्रसन्नता से भोजन करने लगा।

बच्चे की जिद्द पूर्णता के भाव की द्योतक है। पिता की तुलना में वह बाह्य आकार में छोटा हो सकता है जैसे कि छोटे लड्डू से प्रसन्न होने से मालूम होता है किन्तु पूर्ण-पूरा-लड्डू उसे चाहिए। अपूर्णता अधूरापन, उसकी स्वाभाविक स्थिति के, पूर्णता के विरुद्ध है।

प्रत्येक चेतन में, प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण भाव रखकर उसका उतना ही आदर सम्मान करना, छोटे बड़े की दृष्टि से भेद भाव न रखना प्रसन्नता के साधक के लिए आवश्यक है।

प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये उदार बनिये। संकीर्णता, मनहूसपन से युक्त हृदय में प्रसन्नता प्रकट नहीं होती, सबके लिए हृदय खोलकर रखें। हृदय खोलकर मिलें। मनहूस वही होता है जो दूसरों के प्रति संकीर्णता घृणा के विरोधी भाव रखता है। व्यवहार में बातचीत में रहन सहन में प्रत्येक बात में उदारता बरतें।

संसार में सभी का स्वागत मुस्कान के साथ करें। मुस्कान आपकी आन्तरिक प्रसन्नता, सद्भावना, आत्मीयता का सिगनल है। दुश्मन के साथ मुस्करा कर बातचीत करने से दुश्मनी के भाव नष्ट हो जाते हैं। मुस्कान के द्वारा दूषित भाव ग्रन्थियाँ सहज ही नष्ट हो जाती हैं।


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