उपासना आवश्यक है और अनिवार्य भी

February 1963

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इस संसार में जो कुछ शुभ है, श्रेष्ठ है, मंगलमय है वह सब परमात्मा का ही वैभव है। गीता में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए बताया है कि जो कुछ इस संसार में श्रेष्ठ दिखाई पड़ता है उसे भगवान की ही विभूति जानना चाहिये।

परमात्मा की समीपता—

परमात्मा के जितने ही समीप हम पहुँचते हैं उतनी ही श्रेष्ठताएँ हमारे अन्तःकरण में उपजती तथा बढ़ती हैं। उसी अनुपात से आन्तरिक शान्ति की भी उपलब्धि होती चलती है।

हिमालय की ठण्डी हवाएँ उन लोगों को अधिक शीतलता प्रदान करती हैं जो उस क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार आग की भट्टियों के समीप काम करने वालों को गर्मी अधिक अनुभव होती है। जीव ज्यों-ज्यों परमात्मा के निकट पहुँचता जाता है, त्यों-त्यों उसे उन विभूतियों का अपने में अनुभव होने लगता है जो उस परम प्रभु में ओत प्रोत हैं।

उपासना का अर्थ है—पास बैठना। परमात्मा के पास बैठने से ही ईश्वर उपासना हो सकती है। साधारण वस्तुएँ तथा प्राणी अपनी विशेषताओं की छाप दूसरों पर छोड़ते हैं तो परमात्मा के समीप बैठने वालों पर उन दैवी विशेषताओं का प्रभाव क्यों न पड़ेगा?

पुष्प वाटिका में जाते ही फूलों की सुगन्ध से चित्त प्रसन्न होता है। चन्दन के वृक्ष अपने समीपवर्ती वृक्षों को सुगन्धित बनाते हैं। सज्जनों के सत्संग से साधारण व्यक्तियों की मनोभावनाएँ सुधरती हैं, फिर परमात्मा अपनी महत्ता की छाप उन लोगों पर क्यों न छोड़ेगा जो उसकी समीपता के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

मिलन का प्रतिफल—

आत्मा को परमात्मा के निकट पहुँचने पर वही बात बनती है जो गरम लोहे और ठण्डे लोहे के एक साथ बाँधने पर होती है। गरम लोहे की गर्मी ठण्डे में जाने लगती है और थोड़ी देर में दोनों का तापमान एक सरीखा हो जाता है। दो तालाब जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनके पानी का स्तर नीचा-ऊँचा बना रहता है पर जब बीच में नाली निकालकर उन दोनों को आपस में संबन्धित कर दिया जाता है तो अधिक भरे हुए तालाब का पानी दूसरे कम पानी वाले तालाब में चलने लगता है और यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि दोनों का जल स्तर समान नहीं हो जाता।

दो जलाशयों का मिलना या गरम-ठण्डे लोहे का परस्पर मिलना जिस प्रकार एकरूपता की स्थिति उत्पन्न करता है उसी प्रकार उपासना द्वारा आत्मा और परमात्मा का मिलन होने पर जीव में दैवी गुणों की तीव्रगति से अभिवृद्धि होने लगती है।

पूजा और उपासना—

किसी व्यक्ति की उपासना सच्ची है या झूठी है उसकी एक ही परीक्षा है कि साधक की अन्तरात्मा में सन्तोष, प्रफुल्लता, आशा, विश्वास और सद्भावना का कितनी मात्रा में अवतरण हुआ। यदि यह गुण नहीं आये हैं और हीन वृत्तियाँ उसे घेरे हुए हैं तो समझना चाहिए कि वह व्यक्ति पूजा पाठ कितना ही करता हो उपासना से अभी दूर ही है।

पूजा पाठ अलग बात है, उपासना अलग। उपासना के लिए पूजा पाठ से कर्मकाण्ड की चिन्हपूजा करते रहने मात्र से उपासना का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। जीव को जीवन धारण करने के लिये शरीर की आवश्यकता होती है पर शरीर ही जीवन

नहीं है। जीव विहीन शरीर देखा तो जा सकता है पर उसका कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार उपासना विहीन पूजा भी होती तो है पर उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

आत्मा जब परमात्मा की गोदी में बैठता है तो उसे प्रभु की सहज करुणा और अनुकम्पा का लाभ मिलता है। उसे तुरन्त ही निर्भयता और निश्चिन्तता की प्राप्ति होती है। हानि, घाटा, रोग, शोक, विछोह, चिन्ता, असफलता और विरोध की विपन्न स्थितियों में भी उसे विचलित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे इन प्रतिकूलताओं में भी अपने हित साधन का कोई विधान छिपा दिखाई पड़ता है। वस्तुतः विपन्नता हमारी त्रुटियों का शोधन करने और पुरुषार्थ को बढ़ाने के लिए ही आती है। आलस्य और प्रमाद को, अहंकार और मत्सर को मनोभूमि से हटाना ही प्रतिकूलताओं का उद्देश्य होता है। सच्चे आस्तिक को अपने प्रिय परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है और वह अनुकूलताओं की तरह प्रतिकूलताओं का भी खुले हृदय से स्वागत करता है।

कटु और मधु अनुभूतियाँ—

माता मधुर मिष्ठान्न भी खिलाती है और आवश्यकता पड़ने पर कड़ुई दवा भी खिलाती है। दुलार से गोदी में भी उठाये फिरती है और जब आवश्यकता समझती है डॉक्टर के पास सुई लगाने या आपरेशन कराने के लिए भी ले जाती है। माता की प्रत्येक क्रिया बालक के कल्याण के लिये ही होती है, परमात्मा की ममता जीवन के प्रति माता से भी अधिक है। प्रतिकूलताएं प्रस्तुत करने में उसकी उपेक्षा या निष्ठुरता नहीं, हितकामना ही छिपी रहती है।

अपनी कठिनाइयों को हल करने मात्र के लिए, अपनी सुविधाएँ बढ़ाने की लालसा मात्र से जो प्रार्थना पूजा करते हैं वे उपासना के तत्वज्ञान से अभी बहुत पीछे हैं। उन्हें उन बालकों में गिना जाना चाहिये जो प्रसाद के लालच से मन्दिर में जाया करते हैं। ऐसे बच्चे वह आनन्द कहाँ पाते हैं जो भक्तिरस में निमग्न एक भावनाशील आस्तिक को प्रभु के सम्मुख अपना हृदय खोलने और मस्तक झुकाने में आता है। प्रभु के चरणों पर अपनी अन्तरात्मा की अर्पण करने वाले भावविभोर भक्त और प्रसाद को मिठाई लेने के उद्देश्य में खड़े हुए भिखमंगे में जो अन्तर होता है वही सच्चे और झूठे उपासकों में होता है। एक का उद्देश्य परमार्थ है दूसरे का स्वार्थ। स्वार्थी को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। परमात्मा की दृष्टि में भी ऐसे लोगों का क्या कुछ मूल्य होगा?

हित-साधना के दो प्रयाग—

लुहार अपनी दुकान पर लोहे के टुकड़ों से तरह तरह की चीजें बनाता रहता है। उन टुकड़ों को वह कभी गरम करने के लिए भट्टी में तपाता है कभी पानी में डालकर ठण्डा कर लेता है। इन विसंगतियों को देखकर कोई भोला मनुष्य असमंजस में पड़ सकता है कि लुहार ने इस दुमुँही प्रक्रिया को क्यों अपना रखा है। पर वह कारीगर जानता है कि किसी लोहे के टुकड़े को बढ़िया उपकरण की शक्ल में परिणत करने के लिये दोनों ही प्रकार की ठण्डी-गरम प्रणालियों का प्रयुक्त होना आवश्यक है। मनुष्य के जीवन में भी सुख-दुख का, धूप-छाँह का अपना महत्व है। रात-दिन की अँधेरी, उजेली, विसंगतियाँ ही तो कालक्षेप का एक सर्वांगपूर्ण विधान प्रस्तुत करती हैं। यदि मनुष्य सदा सुखी और सम्पन्न ही रहे तो निश्चय ही उसकी आन्तरिक प्रगति रूप जाएगी। जो झटके प्रगति के लिए आवश्यक हैं उन्हें ही हम कष्ट कहते हैं। इन्हें सच्चा भक्त कड़ुई औषधि की तरह ही शिरोधार्य करता है। सन्निपात का मरीज जैसे डॉक्टर को गाली देता है वैसी भूल समझदार आस्तिक ईश्वर के प्रति नहीं कर सकता।

आशा और धैर्य का प्रकाश—

विपन्नताओं की स्थिति में धैर्य न छोड़ना, मानसिक सन्तुलन नष्ट न होने देना, आशा और पुरुषार्थ को न छोड़ना आस्तिकता का प्रथम चिन्ह है जिसे हम महात्मा जैसी अनन्त सामर्थ्यवान सत्ता के साथ बैठ का सौभाग्य प्राप्त है वह किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति से क्यों डरेगा? क्यों अधीर होगा? क्यों निराशा और कातरता प्रकट करेगा? धैर्य और साहस की अजस्र धारा उसके मनः क्षेत्र में से उठती ही रहनी चाहिए।

जो आस्तिक है उसकी आशा कभी क्षीण नहीं हो सकती। वह केवल उज्ज्वल भविष्य पर ही विश्वास रख सकता है। अन्धकार अनात्म तत्व है। आत्मपरायण व्यक्ति के चारों ओर प्रकाश-केवल प्रकाश रहना चाहिए। उसे झुँझलाने और खिन्न होने की आवश्यकता क्यों पड़ेगी? आस्तिकता माने—आत्म विश्वास। परमात्मा पर विश्वास करने वाले को अपना भविष्य सदा उज्ज्वल एवं प्रकाशवान ही दिखाई देगा।

श्रेष्ठता की अभिवृद्धि—

उपासना का दूसरा प्रतिफल है श्रेष्ठताओं की वृद्धि। चूँकि परमात्म का समस्त श्रेष्ठताओं का केन्द्र है, उसका सान्निध्य आत्मा को दिन दिन उत्कृष्ट बनाता चलता है। भक्त को अपना भगवान् सब में दिखाई पड़ता है इसलिए वह हर किसी की अच्छाइयाँ देखता है और उनकी चर्चा एवं विचारणा करते हुए अपने आनन्द और दूसरों का सद्भाव को बढ़ाता है। निन्दा और ईर्ष्या असुरता के दो प्रधान अस्त्र हैं। इनका प्रयोग उसी पर किया जा सकता है जिसके प्रति परायेपन का, शत्रुता का भाव रहे। जब सब अपने हैं तो अपनों की निन्दा कैसी? अपनों से ईर्ष्या कैसे?

बुराई को तोड़ने के लिए नहीं, अच्छाई को बढ़ाने के लिए उसके प्रयत्न होते हैं। अच्छाई को बढ़ाना ही वस्तुतः बुराई को तोड़ना है। बुराई तोड़ दी जाय और उसके स्थान पर अच्छाई की स्थापना न हो तो टूटी हुई बुराई फिर उपज आती है। आस्तिकता का दृष्टिकोण अच्छाई को बढ़ाना होता है ताकि बुराई के लिए कोई गुंजाइश ही न रहे। वह सदा अच्छाई की चर्चा करेगा। प्रेम से दुष्टता को परास्त करेगा। दुष्टता करके प्रेम के अँकुरों को जला देना असज्जनों का काम है। आस्तित्व असज्जन नहीं हो सकता।

उपासक का दृष्टिकोण—

प्रेम, करुणा, आत्मीयता और सौजन्य की अजर धारायें परमात्मा से प्रवाहित होती रहती है। प्राणिमात्र का पोषण संरक्षण एवं अभिवर्धन इन्हीं विशेषताओं के द्वारा तो वह करता है। ऐसे प्रभु के समीप बैठने वाले में—उपासना करने वाले में—यही विशेषताएँ अवतरित होती है। अपने भाई बहिनों में प्रति-प्राणिमात्र के प्रति अनन्त करुणा और आत्मीयता की भावनायें उपासक के अंतःकरण में उद्भूत होती हैं। उनको चरितार्थ करके वह अपने जीवन को यशस्वी बनाता है और मनः क्षेत्र में धारण किये रहकर अनन्त शान्ति का अनुभव करता है।

परमात्मा की उपासना का प्रतिफल पाने के लिये प्रतीक्षा उन्हें करनी पड़ती है जो पुरुषार्थ और प्रतिभा के मूल्य पर मिलने वाली भौतिक सम्पदाओं को परमात्मा से मुक्त में ही पाने की आशा लगाये हुए दीन-हीन भिक्षुक की तरह बैठे रहते हैं। जिन्हें प्रेम और उत्सर्ग की उच्च भावनाओं से प्रेरित होकर प्रभु के चरणों में बैइने की आकाँक्षा है उन्हें अपने प्रियतम का प्रेम प्रतिपादित, प्राप्त करने के लिए क्षणभर भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। उपासना वासना की आग को बुझाती है, तृष्णा की जलन को शान्त करती है। चिन्ता, भीति और घृणा की उन व्यथाओं को हटाती है, जो मानव-जीवन को निरन्तर अशान्त बनाये रहती हैं। उपासना और आत्मशांति एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। आत्मा अपनी उद्गम सत्ता परमात्मा की ओर उन्मुख होगी तो निश्चय ही उसे प्रकाश मिलेगा। परमात्मा का प्रकाश पड़ने पर आत्मा भी अपने सत्-चित आनन्दमय स्वरूप के साथ प्रकाशवान दीखता है। ऐसे प्रकाशवान जीवन में नर से नारायण की, पुरुष से पुरुषोत्तम की, आत्मा से परमात्मा की प्रत्यक्ष परिणति दृष्टिगोचर होती है। इसलिये उपासना को मानव-जीवन की सर्वोपरि बुद्धिमत्ता माना गया है।


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