इतना तो करना ही होगा

February 1963

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सुरक्षा का सशस्त्र मोर्चा सेना सम्भालती है और प्रगति का दूसरा मोर्चा प्रबुद्ध लोक सेवकों को सँभालना पड़ता है। प्रगति की सुरक्षा ही सबसे बड़ी गारंटी है। यदि जनता का मनोबल जागृत है और वह अपनी त्रुटियों का समाधान करती हुई प्रगति की दिशा में अग्रसर हो रही है तो यह विश्वास किया जा सकता है कि इसकी सुरक्षा सुस्थिर रहेगी, प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आने पावेगी और सुख शान्ति की परिस्थितियाँ बढ़ेंगी। किन्तु यदि जन मानस का ढलाव पतनोन्मुख है, चरित्र मनोबल और प्रयत्न यदि शिथिल हो रहे हैं तो यही समझना चाहिये कि बाहर का शत्रु भले ही कोई न हो या कुछ बिगाड़ न सके या उसे शस्त्र बल से मार भगा दिया जाय पर भीतरी दुर्बलताएँ यदि बनी हुई हैं तो वे ही नाश का कारण बन जावेंगी।

अशान्ति और विनाश का कारण—

दुष्प्रवृत्तियाँ जहाँ कहीं भी रहती हैं वहीं अशाँति और विनाश का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। श्रीकृष्ण जी का विशाल यदुकुल परस्पर ईर्ष्या-द्वेष में ही लड़ कट कर नष्ट हो गया था। मध्यकालीन सामन्तों और राजा रईसों की विलासिता ही उन्हें ले बैठी। आपसी फूट और सामाजिक कुरीतियों का दुष्परिणाम हम पिछले एक हजार वर्ष से बुरी तरह भुगतते आ रहे हैं। दूसरे को दोष देना व्यर्थ है, वास्तविक दोष तो हमारी दुर्बुद्धि और दुर्बलता का ही है। इतिहास से यदि हम कुछ सीख सकते हैं तो इतना सीख ही लेना चाहिये कि संगठित जागृत सच्चरित्र और प्रगतिशील जनता ही अपनी और अपने समाज की सुख शान्ति को सुरक्षित रख सकती है। हमें इस तथ्य पर हजार बार विचार करना चाहिये और जन मानस का स्तर ऊँचा उठाने के लिए शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए। कंधे पर इस अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य के संदर्भ में कुछ विशेष उत्तरदायित्व आया है। युग निर्माण योजना के अंतर्गत हम सब इस प्रतिज्ञा में आबद्ध हैं कि जीवन का उपयोग केवल कमाने खाने तक ही सीमित न रखेंगे वरन् आत्म निर्माण और समाज-निर्माण की ओर भी समुचित ध्यान देंगे। यह भावना कागजी नहीं रहनी चाहिए। अपनी स्थिति, शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ प्रयत्न हर किसी के लिये संभव हो सकता है।

युग और कर्तव्य की पुकार—

अग्नि परीक्षा की इस महत्वपूर्ण वेला में भारत माता के सपूत अपने प्राण हथेली पर रखे देश की रक्षा के लिये खड़े हैं। कितने ही अपने प्राण विसर्जित कर चुके, कितने को ही करने हैं। कितने विकलांग और घायल पड़े हैं। यह राष्ट्र के प्रहरी हमें पूछते हैं कि “हम इतना कर रहे हैं, अपने हिस्से का कर्तव्य आप भी पूरा करते हैं या नहीं?” नीची आँखें करके लज्जा से सिर झुका कर भीरुता और हीनता की भाषा में नहीं, हमें उसका उत्तर प्रखर तेजस्विता के साथ देना चाहिये—आय सैन्य मोर्चे पर लड़ रहे हैं, आवश्यकता होने पर हम भी वहीं होंगे। जब तक वह अवसर नहीं आता तब तक राष्ट्र को सबल बनाने के लिये, दूसरी रक्षा पंक्ति मजबूत बनाने के लिए घर झोपड़ों में रहते हुए जो कुछ संभव है उसे हम भी कर रहे हैं।” यही उत्तर हमारे लिये उपयुक्त हो सकता है।

राम वनवास गये थे तो भरत ने अपना रहन-सहन वैसा ही बना लिया था और तपसी की भाँति राज-काज चलाते थे। हमें घर रहते हुए युद्ध सैनिकों की तरह ही सोचना और करना चाहिए। देश को सशक्त बनाने के लिए कुछ न कुछ करते रहने के लिए हमें कटिबद्ध हो ही जाना चाहिए।

एक कार्य जो हमें अब करना ही चाहिए वह है—रोजी-रोटी कमाने में चौबीसों घन्टे लगाने का विचार छोड़ देना चाहिए और सोचना चाहिए कि “जो केवल अपने लिए ही कमाता और आप ही खाता है वह शास्त्रों के अनुसार चोर है। हमें चोर नहीं बनना चाहिए।” जो लोकहित की बात सोचने के लिए-उस दिशा में कुछ करने के लिए-समय का सर्वथा अभाव बताता है उसे किन शब्दों में धिक्कारा जाय, यह समझ में नहीं आता। हम में से कोई इतना स्वार्थी और कंजूस नहीं जो यह कहे कि राष्ट्रीय निर्माण के लिए—युग निर्माण के लिए—मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं है।

देश को सशक्त और प्रबुद्ध बनाने के लिए धन की नहीं—समय और मनोयोग की आवश्यकता है। भगवान ने 24 घन्टे का समय धन कमाने, और मौज-शौक करने और —संकीर्ण स्वार्थों में लगे रहने के लिए ही नहीं दिया है, उसमें से एक अंश परमार्थ कार्यों के लिए भी रहना चाहिए। आध्यात्मवाद की सुनिश्चित मान्यता यह है कि—”भजन की भाँति ही लोकहित के कार्यों में सेवा, प्रवृत्तियों में समय लगाया जाना आवश्यक है।” इसलिए परमार्थ कार्यों के लिए भजन के समान ही हमें श्रद्धान्वित होना चाहिए। उसके लिए हमारे दैनिक जीवन में कोई नियत स्थान होना ही चाहिए। समय-दान का कार्यक्रम हम उदारतापूर्वक चलाते रहें और उससे जीवन का एक आवश्यक धर्म-कर्तव्य मान कर कुछ न कुछ समय इसके लिए निर्धारित कर लें। निर्माण-श्रम, समय और मनोयोग लगाये बिना संभव नहीं होते। युग-निर्माण के लिए भी इन्हीं वस्तुओं की आवश्यकता है।

जन जागरण के लिए—

राष्ट्र को सशक्त बनाने के लिए अनेक माध्यम, साधनों और उपकरणों की आवश्यकता है, उसके प्रकार और कार्यक्रम भी कितने ही हैं। पर वह सब कुछ जिस आधार पर निर्भर है वह है—भावना। भावना के अभाव में प्रगति की सारी प्रक्रियाएँ निर्जीव और प्रदर्शन मात्र बनी रहती हैं। हमें जन मानस में कर्तव्य पालन की, नीति, धर्म और सदाचार की, आस्तिकता और परमार्थ की प्रचंड भावनाएँ उत्पन्न करनी चाहिएं। ज्ञान से कर्म और कर्म से समृद्धि की उपलब्धि होती है। जैसे विचार मन में उठेंगे शरीर से वैसे ही कर्म बन पड़ेंगे, और जैसे कर्म होंगे वैसा ही प्रतिफल सम्मुख उपस्थित होगा। इसलिए हमें ज्ञान का, भावना का, महत्व समझना चाहिए और उसके विकास का समुचित प्रयत्न करना चाहिए।

ज्ञानदान को सबसे बड़ा दान माना जाता है,उसे ही ब्रह्मदान कहते हैं। ब्राह्मण को इसीलिए ‘भूसुर’ पृथ्वी का देवता मानते हैं, कि उनके द्वारा जनसाधारण को सद्ज्ञान की प्राप्ति होती है। विचारों की शक्ति प्रचंड है। यदि उत्तम विचारों को मनः क्षेत्र में समुचित स्थान मिल जाय तो साधारण स्थिति का मनुष्य महापुरुष, ऋषि, देवता और अवतार बन सकता है। संसार में जब कभी भले या बुरे परिवर्तन हुए हैं उनके मूल में विचार परिवर्तन की प्रक्रिया का ही प्रधान श्रेय रहा है। कार्लमार्क्स की साम्यवादी विचार धारा ने आज लगभग आधी दुनिया को उस विचार धारा से प्रभावित कर दिया है। ‘टाम काका की कुटिया’ पुस्तक की लेखिका ने अमेरिका में दास प्रथा के प्रश्न को लेकर गृहयुद्ध करा दिया और अन्त में उस घृणित प्रथा का अन्त ही होकर रहा। बुद्ध, महावीर, ईसा, मुहम्मद, गाँधी, दयानंद, की प्रखर विचार धाराओं का जब विस्तार हुआ तो उससे कितने लोग प्रभावित हुए? विचारधाराएँ तूफान की तरह होती हैं, मनुष्य उनके प्रवाह में सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर उड़ते रहते हैं। हमें मनुष्य को मनुष्य बनाने की विचारधारा को जनमानस में गहराई तक प्रवेश करने का कार्य अपने हाथ में लेकर युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया को सफल बनाना चाहिए।

नियमित समय दान—

शिक्षा और विद्या की उन्नति के लिए हम में से प्रत्येक को कुछ न कुछ समय नियमित रूप से देना ही चाहिए। अपने परिवार के कितने ही सदस्य अशिक्षित और अल्प शिक्षित होते हैं। उनकी साक्षरता बढ़ाने के लिए एक घण्टा घरेलू प्रौढ़ पाठशाला चलाई जा सकती है। पड़ौस में कितने ही निरक्षर लोग रहते हैं उन्हें भी पढ़ने की प्रेरणा देकर अपनी प्रौढ़ पाठशाला में सम्मिलित किया जा सकता है। इस प्रकार एक वर्ष में यदि पाँच निरक्षर व्यक्तियों को साक्षर बनाने की प्रतिज्ञा ली जा सके और यह उत्साह दूसरों में भी पैदा किया जा सके तो कुछ ही वर्षों में सारा देश साक्षर बन सकता है। जो कार्य सरकार करोड़ों रुपया खर्च करके भी नहीं कर सकती वह लोक सेवा की प्रवृत्ति को जागृत करके सहज ही पूरा हो सकता है।

गरीबी की तरह ही अशिक्षा भी दुर्बलता की निशानी है। अशिक्षा और गरीबी में अशिक्षा अधिक भयानक है क्योंकि इसी के कारण गरीबी, बीमारी, संकीर्णता आदि का जन्म होता है। यह कुछ भी मुश्किल काम नहीं, कि हम अपनी पत्नी, बहिन, माता, भाभी, चाची आदि को पढ़ाना शुरू करें, उन्हें साक्षर बनावें और इस पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें जीवन विद्या के, युग परिवर्तन विचार धारा के आवश्यक तथ्यों से भी परिचित कराते चलें। केवल इच्छा शक्ति की ही प्रधान कठिनाई है। यदि इसे दूर किया जा सके तो एक छोटी घरेलू पाठशाला चला सकना हम में से किसी के लिए संभव हो सकता है।

इसी प्रकार एक घरेलू पुस्तकालय, ज्ञान-मन्दिर भी आसानी से हर कोई चला सकता है। इसका आरम्भ अखण्ड ज्योति पत्रिका मात्र से ही हो सकता है। अपने घर का कोई भी साक्षर व्यक्ति ऐसा न बचे जो उसे आदि से अन्त तक न पढ़ता हो। इसी प्रकार पड़ौसी, मित्रों और समीपवर्ती विचारशील व्यक्तियों को अपने अंक पढ़ा देने और वापिस लेने का क्रम बनाना चाहिए। इस बहाने उनके घरों पर आने जाने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। इस बहाने संपर्क बढ़ाते हुए और प्रस्तुत अंक में छपे किन्हीं महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करते हुए सत्प्रवृत्तियों का, सद्भावनाओं का, प्रसार करना चाहिए।

विचार-विस्तार के माध्यम—

घरेलू प्रौढ़ पाठशाला और पुस्तकालय का कार्यक्रम अखण्डज्योति के प्रत्येक पाठक के लिए नितान्त सरल और सर्वथा संभव कार्य है। छुट्टी के दिन गोष्ठियाँ बुलाई जा सकती हैं। यदि लोग इकट्ठे न होते हों तो प्रति दिन एक-दो व्यक्तियों के घरों पर सद्विचार-प्रसार के उद्देश्य से जाकर धर्म फेरी की जा सकती है। इस प्रकार अपने संपर्क में आने वाले लोगों का एक छोटा विचार-परिवार बन सकता है। जैसे रानी मधुमक्खी छत्ता बनाती है और उस छत्ते में अनेकों अन्य मधु मक्खियाँ प्रश्रय पाती हैं उसी प्रकार ‘अखण्डज्योति’ का प्रत्येक सदस्य रानी मक्खी की तरह एक विचार-परिवार बनावे। उस परिवार में—पाठशाला और पुस्तकालय में कम से कम दस सदस्य तो होने ही चाहिएं। इस पद्धति को अपना कर हम लोग कुछ ही दिन में लाखों, करोड़ों, व्यक्तियों का प्रशिक्षण आरम्भ कर सकते हैं, और यह शिक्षा शृंखला यदि विधिवत् अग्रसर होती रहे तो साक्षरता और शिक्षा के साथ-साथ विचार परिवर्तन की, भावना जागरण की-युग- निर्माण की-समस्या सरलता पूर्वक हल हो सकती है।

देशव्यापी अगणित बुराइयों, दुर्बलताओं और कुरीतियों का उन्मूलन करने के लिए, मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए आगे चल कर हमें अनेकों विशाल कार्यक्रम बनाने पड़ेंगे और जहाँ आवश्यक होगा वहाँ संघर्ष की भूमिका में भी उतरना पड़ेगा। पर सबसे पहला कार्य यह है कि लोग इस परिवर्तन की आवश्यकता समझें और उसके लिए आवश्यक त्याग करने की उद्यत हों। यह बौद्धिक पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए हमें आज ही प्रवृत्त हो जाना चाहिए। यह कार्य जितना सरल है उतना ही महत्वपूर्ण भी है। छोटे कार्य को आज आरम्भ करें, बड़े काम कल करने के लिए अपने आप ही सामने प्रस्तुत होंगे।

हमारा योगदान स्वल्प न रहे—

सुरक्षा और प्रगति के लिए हमें बहुत कुछ करना है। लोगों ने बहुत कुछ किया है और कर रहे हैं। हमें भी कुछ करने के लिए अग्रसर होना ही होगा। राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए हमारा योगदान कुछ भी नहीं रहा यह कहलाने का कलंक हम में से किसी को भी अपने सिर पर नहीं लेना चाहिए। सीमा का युद्ध मोर्चा जितना महत्वपूर्ण है उससे कम राष्ट्र की सफलता के प्रश्न को नहीं समझा जाना चाहिए। अखण्डज्योति परिवार इस दूसरे मोर्चे पर बलिदानी युद्ध सैनिकों की भाँति ही कटिबद्ध रहने की प्रतिज्ञा कर चुका है। आवश्यकता के समय रक्षा मंत्री द्वारा सौंपे गये किसी भी कार्य लिए कभी भी कहीं भी जाने की प्रतिज्ञा हम कर चुके हैं। ऐसे अवसर पर हमारे और भी अनेकों हमारे साथ रहेंगे ऐसा विश्वास है। जब तक समय नहीं आता तब तक हमें दूसरे मोर्चे पर राष्ट्र के विनम्र प्रहरी की तरह काम करना होगा। जन-भावनाओं के जागरण का कार्य नैतिकता, मानवता, कर्तव्य परायणता और देशभक्ति की प्रवृत्तियों, को अग्रगामी बनाने का कार्य हम तन्मयता पूर्वक कर रहे हैं। इस कार्य में प्रत्येक परिजन से सहयोग की हमें आशा है। पाठशाला, पुस्तकालय, गोष्ठी, और धर्म फेरी के माध्यम से सद्ज्ञान का प्रसार कर सकना प्रत्येक पाठक के लिये संभव है। अखण्डज्योति को पढ़ाने और सुनाने का कार्यक्रम अपना कर भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है।

नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का कार्य सम्पन्न होने पर ही स्वतन्त्रता की सर्वांग पूर्ण झाँकी दृष्टिगोचर होगी। रामराज्य की—धर्मराज्य की स्थापना के लिए सरकारी प्रयत्नों में ही नहीं जन भावनाओं में भी परिवर्तन आवश्यक है। इस परिवर्तन के लिए ही अपना ‘युग परिवर्तन आन्दोलन’—युग निर्माण कार्यक्रम चल रहा है। इस ज्ञानयज्ञ में हम सबको श्रम रूपी घृत और समय रूपी साकल्य समर्पित करना ही चाहिए।


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