लक्ष्य की प्राप्ति केवल इस प्रकार सम्भव है

February 1963

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सृष्टि संचालन का क्रीड़ा कौतुक रचने के लिए परमात्मा एक से बहुत बना। उसकी इच्छा हुई कि “मैं अकेला हूँ—एक से बहुत हो जाऊं” उसकी यह इच्छा ही मूर्तिमान होकर सृष्टि के रूप में प्रस्तुत हो गई। “एकोऽहं बहुस्यामि” का संकल्प साकार रूप धारण कर यह संसार बन गया। निर्माण होने के बाद उसका लक्ष और कार्यक्रम निर्धारित होना था सो इस प्रकार हुआ कि—बहुत भागों में विभक्त हुये ब्रह्म-विभाग पुनः एकता की ओर चले। अणु रूप में बिखरा हुआ जीवन पुनः विभु बना। बादल से छोड़ी हुई बूँदें अलग-अलग बरसें भले ही पर वे एकत्रित होकर पुनः समुद्र की रचना के लिए गतिशील भी बनी रहें। आत्माएँ अलग-अलग दीखते हुए भी उनकी गतिविधि पुनः इस अलगाव को मिटाकर एकता की ओर उन्मुख रहे। यही सृष्टि का लक्ष और कार्यक्रम बन गया। इस तथ्य के आधार पर जड़-चेतन सृष्टि की विविध विधि गति-विधियाँ चलती रहती हैं।

वियोग से संयोग की ओर—

बिछुड़ने की क्रिया के साथ इस सृष्टि की रचना तो हुई है पर आगे का कार्यक्रम मिलन और एकता पर आधारित है। समुद्र का पानी भाप बन कर अपने केन्द्र स्थल से बिछुड़ कर सुन्दर हिमि प्रदेशों में जाकर बर्फ बन जाता है। किन्तु वह बिछुड़ने की प्रक्रिया देर तक स्थिर नहीं रहती। जैसे ही अवसर मिलता है, थोड़ी गर्मी का सहारा पाकर बर्फ पिघलती है और वह पानी जैसे-तैसे अपना मार्ग खोजता हुआ नदी नालों में होता हुआ समुद्र की ओर दौड़ पड़ता है। बढ़ते हुए पानी की बेचैनी और दौड़ धूप तब तक समाप्त नहीं होती जब तक कि वह परिपूर्ण जलाशय समुद्र में मिलकर स्वयं भी उसी रूप में परिणत नहीं हो जाता। जल आरम्भ में भी पूर्ण था, भाप बन कर अपूर्णता उसे प्राप्त हुई तो उसे दूर करने का प्रयत्न अनेक हलचलों के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा। इसी हलचल का नाम सृष्टि क्रम है। इसे अशान्ति भी कह सकते हैं। मिलन ही इस अशान्ति का उद्देश्य है और जब अपूर्णता दूर होकर पूर्णता की उपलब्धि हो जाती है तो दौड़ धूप भी समाप्त हो जाती है और अशान्ति भी।

मानव जीवन का यही क्रम है। नियति की व्यवस्था ने उसे केन्द्रीय परिपूर्णता से बिछुड़ा दिया है। अब उसके सामने एक ही कार्यक्रम रह जाता है कि तेजी के साथ पुनः केन्द्र की ओर दौड़े और अपनी अपूर्णता को समाप्त कर पूर्णता में विलय हो जाय। इसी को जीवन लक्ष कहते हैं। मुक्ति, पूर्णता, ब्रह्म निर्वाण आदि भी इसे ही कहा गया है।

प्रेम और आनन्द का उद्गम—

बिछुड़ने की कष्टकर प्रक्रिया इसलिए चली कि जीव मिलन के आनन्द का आस्वादन कर सके। माता अपने शरीर का रक्त माँस एकत्रित करके पेट में एक नन्हें शिशु की रचना करती है। जब तक वह शिशु रक्त माँस के रूप में था या भ्रूण बन रहा था, तब तक उसमें कोई विशेष आकर्षण न था पर जब वह गर्भ परिपक्व होकर शरीर से बाहर निकल गया, बिछुड़ गया और माँ-माँ कह कर पुनः अपनी माँ की गोद में आने के लिए विलाप करने लगा तो प्रेम भावना की लहरें उठने लगीं। माता उस बच्चे को छाती से लगा लेती है और उसके साथ मिलन का असीम आनन्द और प्रेम अनुभव करती है। बच्चे को भी माँ के बिना चैन नहीं पड़ता। बिछुड़न ने मिलन की प्रेरणा दी और जैसे ही उसका प्रयत्न आरम्भ हुआ कि प्रेम बरसने लगा।

आत्मीय जन जब कभी बिछुड़ने के बाद पुनः मिलते हैं तो उस मिलन बेला में अत्यधिक आनन्द अनुभव होता है। पति-पत्नी दूर-दूर रहते हों और बहुत दिन बाद वे मिलते हैं तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रहती है। कोई भी प्रेम संबंधी हो परस्पर मिलते हुए सभी को प्रसन्नता होती है। कई बार तो यह आनन्द इतना बढ़ा-चढ़ा होता है कि इसके लिए लोग आवश्यक कार्यों को भी छोड़ कर उस सहचर-आनन्द में निमग्न बने रहते हैं। कई छात्र पढ़ाई छोड़ कर यार, दोस्तों के साथ मटरगश्ती में बहुत सारा समय लगा देते हैं। कारण एक ही है कि जहाँ कहीं भी प्रेम, एकता और आत्मीयता का दर्शन होगा वहीं मनुष्य शान्ति और सन्तोष प्राप्त करेगा।

ईश्वर प्राप्ति और ईश्वर भक्ति के लिए सच्चे मन से प्रयत्न करने वालों को असीम आनन्द की अनुभूति होती है। क्योंकि परमात्मा ही आत्मा का उद्गम केन्द्र, सजातीय और सच्चा स्नेही सम्बन्धी है। साँसारिक प्रियजनों के साथ उठने-बैठने में जीव को इतना आनन्द आता है तो आत्मिक और वास्तविक प्रिय-प्रेमी परमात्मा के सान्निध्य में आनन्द क्यों नहीं आना चाहिए? जिनका मन उपासना में लगता नहीं, या जिन्हें आनन्द नहीं आता समझना चाहिए कि इन्होंने उपासना के तत्वज्ञान, आदर्श और विधान को अभी समझा ही नहीं है। पूजा का कर्मकाण्ड तो कई व्यक्ति पूरा करते रहते हैं पर उपासना में आनन्द की अनुभूति उन भावनाओं पर निर्भर रहती है जो दो बिछुड़े हुओं को जोड़ने के लिए आवश्यक है।

लघु से महान बनने के लिए—

इस लेख माला के अंतर्गत आगे किसी अंक में यह बतावेंगे कि उपासना के समय अलौकिक आनन्द की अनुभूति का लाभ किस प्रकार मिल सकता है। अभी इन पंक्तियों में तो इतना ही बताना है कि इस संसार के जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ का कार्यक्रम वियोग दूर करके संयोग का आनन्दमय मिलन प्राप्त करना है। धातुओं की खानों का पता लगाने वाले अन्वेषक मिट्टी में मिले हुए धातु कणों की चाल और दिशा का हिसाब लगा कर यह निर्धारित करते हैं कि यहाँ से कितनी दूरी पर, किस दिशा में, किस धातु की कितनी बड़ी खान होनी चाहिए। बात यह है कि मिट्टी में हर धातु के कण मिले होते हैं। वे कण किसी सूक्ष्म आकर्षण शक्ति से खिंचते हुए धीरे-धीरे अपने आप किसी दिशा में सरकते रहते हैं। धातु की बड़ी खान जहाँ होती है वहाँ से अपने सजातीय कणों को खींचने की एक चुम्बकीय विद्युत धारा काम करती रहती है। उसी के खिंचाव से धातुओं के कण अपनी-अपनी जाति की धातुओं की ओर सरकते चले जाते हैं और उनके इकट्ठे होते रहने से खानों में धातुओं की मात्रा निरन्तर बढ़ती रहती है।

उन्नति और प्रगति के आधार—

आत्मा को मिट्टी में मिला हुआ धातु कण कहा जाय तो परमात्मा को एक विशाल खान कहा जायगा। छोटा अणु जब तक रेत में मिला रहता है, तब तक उसका कोई मूल्य और महत्व नहीं रहता, पर जब वह घिसटते-घिसटते खान में सम्मिलित हो जाता है तो उसका अस्तित्व सभी की दृष्टि में आता है और उस एकत्रित पदार्थ का उपयोग भी बहुत भारी होता है। आत्मा जब परमात्मा के समीप पहुँचती है, तो उसमें ईश्वरीय तत्वों की इतनी मात्रा बढ़ जाती है कि मनुष्य भी ईश्वर जैसा दीखता है। ऋषियों और महापुरुषों में इसी प्रकार की ईश्वरीय विशेषता रहती है। यह समीपता बढ़ते बढ़ते जीव अन्ततः जीवनमुक्ति का ही अधिकारी बन जाता है।

आत्मा और परमात्मा की एकता के साथ-साथ जिस परमानन्द एवं ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है, उसे पाकर जीवन धन्य बन जाता है। इस एकता के लिए जहाँ उपासना साधना और भावना का अवलम्बन करना आवश्यक होता है। वहाँ यह भी अनिवार्य है कि जीवन की गतिविधियाँ पृथकतावादी नहीं वरन् एकतावादी हों। आध्यात्म और अनात्मा, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, उचित और अनुचित का निर्णय इसी आधार पर होता है कि उसके मूल में एकता की ओर बढ़ने न बढ़ने की कितनी भावना सन्निहित है। नीति, धर्म और आचार शास्त्र का समस्त विधि विधान इस एक तथ्य को ध्यान में रखकर ही रचा गया है।

विराट ब्रह्म का साक्षात्कार—

समाज को विराट ब्रह्म का स्वरूप माना गया है। गीता में अर्जुन को, रामायण में काकभुसुंडि और कौशल्या को, भागवत में यशोदा को भगवान ने अपना विराट् रूप दिखाया है। वह समस्त विश्व ब्रह्माण्ड ही तो है। यह सारा संसार भगवान का ही रूप है, इस मान्यता को अन्तरात्मा में स्थिर कर लेने पर हर घड़ी परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं और साथ ही वह आनन्द उल्लास भी अनुभव हो सकता है जो परमात्मा का दर्शन करते हुए होना चाहिए। इस भावना के अनुसार व्यक्ति का यही कर्तव्य निर्धारित होता है कि वह हर पदार्थ और हर प्राणी के प्रति सद्भावना रखे और हरेक से सद्व्यवहार बरते। विचारणा और क्रिया का यह स्तर धर्म और सदाचार, पुण्य और परमार्थ ही कहलाता है।

संगठन और एकता से प्राप्त होने वाले लौकिक लाभों से सभी परिचित हैं। मिल-जुल कर काम करने से, प्रेम और आत्मीयता की भावना रखने से, संगठित और समूहबद्ध रहने से अगणित प्रकार के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक लाभ प्राप्त होते हैं इसकी जानकारी हम सब को है ही। इसलिए हर मंच से, विचार-शील व्यक्ति यही कहते रहते हैं कि हमें संगठित होना चाहिए, एकता रखनी चाहिए। कलियुग में तो संघशक्ति को ही प्रधान माना गया है। “संघशक्ति कलौयुगे” का मंत्र सभी की विचारणा में मौजूद है। तिनके मिल कर मजबूत रस्सी और कमजोर सींकें मिलकर बुहारी बनने का उदाहरण देकर हम लोग एक दूसरे को समझाते रहते हैं कि फूट और पृथकता से हानि एवं संगठन और एकता से लाभ है। इस उद्देश्य के लिए अनेकों संस्थाएं भी काम करती हैं। प्राचीन काल में धर्म सम्प्रदायों का भी यही उद्देश्य था।

संगठन और एकता का आदर्श—

मानव जीवन को लौकिक सुविधा और सुरक्षा के लिए एकता की भावना जितनी आवश्यक है आत्मिक लक्ष को प्राप्त करने के लिए उसकी और भी आवश्यकता है। व्यक्ति जितना ही पृथकतावादी, संकीर्ण, स्वार्थी, होगा, उतनी ही पाप वृत्ति उसे घेरे रहेगी। जिसे अपना ही मतलब है, जो अपने ही लाभ और स्वार्थ की बात सोचता रहता है, उसे दूसरों के प्रति प्रेम और दर्द क्यों होगा? ऐसा व्यक्ति अपने लाभ के लिए दूसरों का कुछ भी अहित कर सकता है। माँसाहार, चोरी, ठगी, हत्या, बेईमानी, धोखेबाजी आदि पापकर्मों के पीछे कर्ता की स्वार्थपरता और संकीर्णता ही प्रधान रहती है। यदि दूसरे लोग भी अपने ही आत्मीय, स्वजन सम्बन्धी एवं भगवान के प्रतिनिधि दीखने लगें, सब में अपनी ही आत्मा दिखाई पड़े तो यह संभव नहीं कि मनुष्य कोई दुष्कर्म कर सके। संकीर्णता एवं स्वार्थपरता ही समस्त प्रकार के कुकर्म कराती है। लोभी और कंजूसों में एक ही दुर्गुण होता है कि वे केवल अपनी ही बात सोचते रहते हैं। कई आध्यात्मवादी कहलाने वाले सज्जन भी इसी श्रेणी में जा बैठते हैं, उनकी भावना भी संसार को भाड़ में जाने देकर अपनी मुक्ति प्राप्त करने की रहती है। ऐसे लोग मुक्ति तो दूर अपना लौकिक जीवन भी सफल बनाने में समर्थ नहीं हो सकते।

‘मैं’ नहीं ‘हम सब’—

समाजवाद और साम्यवाद के सिद्धान्तों में

इस बात पर जोर दिया गया है कि व्यक्ति की योग्यता एवं कमाई का लाभ सारा समाज उठावे। व्यक्तिगत प्रतिभा एवं क्षमता अधिक होने पर भी उससे उत्पन्न लाभों से वह व्यक्ति ही लाभान्वित न हो वरन् सारा समाज एक है इसलिए दूसरों को भी उसका लाभ मिले। अन्य बातों में इन वादों से मतभेद हो सकता है पर इतना अंश तो आध्यात्मिक आदर्शों की ही पुष्टि करता है कि व्यक्ति की सीमा उसके निज के छोटे दायरे में नहीं वरन् विश्व हित के व्यापक तथ्य से जुड़ी हुई है। व्यक्ति अपनी योग्यता चाहे जितनी बढ़ावे, उत्पादन चाहे जितना करे पर यह न सोचे कि इसका लाभ मुझे ही मिलना चाहिए। विचारणा और क्रिया आरम्भ करने से पूर्व यह सोचा जाना चाहिए कि इसका प्रभाव दूसरों पर क्या पड़ेगा? विश्व हित की दृष्टि से मेरे विचार और कार्यों की क्या प्रतिक्रिया होगी?

दुष्कर्मों का आधार व्यक्तिगत संकीर्णता और स्वार्थपरता ही है। जब तक यह दुष्प्रवृत्तियाँ मनोभूमि में जड़ जमाये रहेंगी तब तक मनुष्य प्रकट न सही तो गुप्त रूप से, एक प्रकार से न सही तो दूसरे प्रकार से दुष्कर्म करता रहेगा और उसकी गतिविधियाँ संसार में विक्षोभ एवं सन्ताप उत्पन्न करती रहेंगी।

शाँति और समृद्धि का राजमार्ग—

जीवन का लक्ष पृथकता, बिछुड़न से पीछा छुड़ा कर प्रेम और एकता की ओर अग्रसर होना है ताकि बिछुड़ा हुआ आत्मा अपने उद्गम परमात्मा के समीप पहुँच कर मिलन का आनन्द लाभ कर सके। इसके लिए वे उपासना उपयोगी होती हैं जो जीव और ईश्वर की एकता अनुभव कराने में समर्थ होती हैं। साथ ही यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति का जीवनक्रम एकता के आदर्शों के अनुकूल रहे। हम सब ईश्वर के अमर पुत्र आपस में भाई बहिन हैं। परस्पर प्रेम और एकता की भावना से ओत-प्रोत सामूहिक हित के सत्कार्य करने और सद्भाव रखने से ही तो वह स्वार्थपरता-हृदयों की वह दूरी समाप्त हो सकती है जो इस संसार में विभिन्न प्रकार के उपद्रव आये दिन खड़े करती रहती है।

शान्ति और सृष्टि के लिए, सद्गति और जीवन मुक्ति के लिए एक ही मार्ग है, ईश्वरीय सृष्टि विधान के अनुसार भगवत् इच्छा के अनुसार आचरण करना। भगवान ने अपने से जीवों को पृथक करके उन्हें तेजी से अपनी ओर दौड़ कर आने का खेल रचा है। इसी खेल को हम समझें। उसकी इच्छा पूर्ण करें। अपनी संकीर्णता छोड़ें। जो कुछ चारों ओर दिखाई पड़ता है उसके साथ एकता और आत्मीयता अनुभव करें और विश्व विराट के लिए अपनी अहंता और संकीर्णता का आध्यात्मिक उत्सर्ग करते चलें। यह उत्सर्ग ही जीवन लक्ष की प्राप्ति का मूल्य है। जो उसे चुकाने को तैयार है उसके लिए अभीष्ट वस्तु का प्राप्त कर सकना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता है।


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