समस्त समस्याओं का एक ही हल

February 1963

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राष्ट्र को समृद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिए आदर्शवाद, नैतिकता, मानवता, परमार्थ, देशभक्ति एवं समाजनिष्ठा की भावनाओं की जागृति नितान्त आवश्यक है। इसके अभाव में अन्य साधन सामग्री चाहे कितने ही विपुल परिमाण में उपलब्ध क्यों न हो हमारी आन्तरिक दुर्बलता को दूर न कर सकेगी। आदर्शहीन, कपटी, दुष्ट, दुराचारी, कायर और स्वार्थी, लोगों के हाथ में साधन, सामग्री लग जाय तो इसके आधार पर उनकी बुराई ही अधिक बढ़ती है और उससे अहित ही अधिक होता है। इसलिए सुरक्षा और प्रगति के साधन जुटाते हुए इस बात का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि अन्तःकरण में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की भी अभिवृद्धि निरंतर होती रहे।

धैर्य और साहस का मूल्य तोप और तलवार से बढ़कर है। देशभक्ति और बलिदान की भावना से ओत-प्रोत नागरिक टैंकों और जहाजों से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं! इसके विपरीत कंजूस, मुनाफाखोर, जखीरेबाज, कायर , डरपोक, देशद्रोही, उत्पाती, अपराधी वृत्ति के लोग राष्ट्रीय संकट के समय शत्रु के बमों से अधिक हानिकारक और भयावह सिद्ध होते हैं। आस्तीन में छिपा बैठा हुआ छोटा-सा संपोला, जंगल में रहने वाले भयंकर विषधर से अधिक घातक होता है। जनता की मानसिक कमजोरी हथियारों की कमजोरी की अपेक्षा अधिक दुष्परिणाम प्रस्तुत करती है।

शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय क्षेत्रों में अनेक प्रकार की समस्याएँ और उलझनें आज अपने चारों ओर बिखरी हुई हमें दीखती हैं। इन सब का हल एक ही है, आन्तरिक संकीर्णता और दुर्बलता को मिटाना। बौद्धिक क्रान्ति ही समस्त क्रान्तियों की जननी है। विचार बदलते ही सारी परिस्थितियाँ बदल जाती हैं।

शारीरिक कमजोरी और बीमारी को दूर करने के लिए तात्कालिक रूप से कोई दवा-दारु, इलाज, उपचार कारगर हो सकता है, पर यदि स्थिर स्वास्थ्य पर चाहते हैं तो आहार विहार पर कठोर नियंत्रण रखे बिना काम नहीं चलेगा। मन की लिप्सा ही इन्द्रियों को ढीला छोड़ती है। यदि स्वभाव में संयम और नियमितता का समुचित समावेश हो जाय तो रोग मुक्त रहते हुए दीर्घजीवन का आनन्द लाभ किया जा सकता है। स्वास्थ्य के लिए किए जाने वाले बाहरी सारे प्रयत्न एक ओर रखे जायँ और मन का संयम एक ओर रहे तो संयम का ही पलड़ा भारी रहेगा।

बौद्धिक दृष्टि से अपने पिछड़ेपन का कारण, ज्ञान के महत्व को ठीक तरह न समझ पाना ही होता है। लोग स्वास्थ्य को बेकार समझते हैं, विद्याध्ययन का उद्देश्य नौकरी प्राप्त करना या प्रमाणपत्र लेना मात्र मानते हैं। यदि ज्ञान, संयम को आत्मा की भूख बुझाने वाला आवश्यक आहार मान लिया जाय तो मनुष्य अन्य आवश्यक कार्यों की तरह अध्ययन के लिए भी नित्य समय निकलता रहे। यह बात यदि आदत में सम्मिलित हो जाय तो विषम परिस्थितियों में रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन की सुविधा मिलती रहती है और हर कोई अपनी मनोभूमि को उच्च भूमिका में विकसित कर सकता है। ज्ञान संसार का सर्वश्रेष्ठ धन है। जितनी दिलचस्पी धन उपार्जन में रहती है यदि उतनी ही अभिरुचि ज्ञान संचय में उत्पन्न हो जाय तो हमें सुसंस्कृत एवं प्रबुद्ध कहलाने की स्थिति प्राप्त होने में कोई कठिनाई न रहेगी।

स्वभाव और विचार सुधरें—

आर्थिक कठिनाइयों के बाहरी अनेक कारण भी होते हैं। कई बार मजबूरियाँ भी परेशानी का कारण होती हैं। पर आम तौर से आलस, पूरा मनोयोग न लगाना समय की बर्बादी और अपनी स्थिति से अधिक खर्च करने लगना ही अर्थ संकट का प्रधान हेतु पाया जाता है। जो लोग उपार्जन के लिए तत्परतापूर्वक श्रम करते हैं वे कम आमदनी होते हुए भी आनन्द से गुजारा करते हैं। इसके विपरीत जिन्हें फिजूलखर्ची की आदत है, और जो आवश्यक सतर्कता नहीं बरतते वे अधिक कमाने पर भी ऋणी और चिन्ताग्रस्त बने रहते हैं। आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए बाह्य साधनों की जितनी आवश्यकता है उससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि अपना मन काबू में रहे। वे दुर्गुण और व्यसन आदत में शामिल न होने पायें जो अर्थ-संकट उत्पन्न होने के प्रमुख कारण होते हैं।

सामाजिक क्षेत्र में लोगों के साथ अच्छे सम्बंध न होने, द्वेष, मनोमालिन्य और असहयोग रहने का केवल यही कारण नहीं है कि लोग बुरे हैं, जमाना खराब है। ऐसा होता तो सभी के साथ सभी का दुर्व्यवहार ही रहता। पर देखा यह भी जाता है कि अनेकों को अगणित मित्र, सहयोगी और प्रशंसक घेरे रहते हैं। परस्पर सहायता भी करते हैं और सहयोग पूर्वक आनन्द एवं उत्कर्ष से लाभान्वित होते हैं। यदि जमाना ही बुरा है तो वह सबके लिए बुरा होना चाहिए था। वस्तु स्थिति यह है कि हमारे अपने खोट और दोष ही मनोमालिन्य पैदा करते हैं।

अपने स्वभाव की खराबियाँ साधारणतः समझ में नहीं आतीं पर यदि अधिक ध्यानपूर्वक उन्हें ढूंढ़ा, खोजा जाय तो वे त्रुटियाँ पकड़ में आ सकती हैं जिनके कारण द्वेष, उपेक्षा और असहयोग का वातावरण उत्पन्न होता है। अपने स्वभाव को मधुर, आकर्षक, शिष्ट और उदार बना कर अपने सहयोगियों, प्रशंसकों और मित्रों की संख्या में आशातीत वृद्धि हो सकती है। भविष्य को उज्ज्वल बनाने में, प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने में, सन्मित्रों का भारी हाथ होता है और वे उन्हें ही मिलते हैं जिनने अपने स्वभाव में आवश्यक सुधार कर लिया है। क्रोधी, चिड़चिड़े, ईर्ष्यालु, निन्दक, स्वार्थी, छिद्रान्वेषी, एकाकी, डरपोक प्रकृति के लोगों को तो मित्रों से वंचित ही रहना पड़ता है।

कुरीतियों का उन्मूलन—

हमारी सामाजिक कुरीतियाँ आजकल आर्थिक कमर तोड़ डालने वाली और भारी परेशानी, उत्पन्न करने का माध्यम बनी हुई हैं। इन मूर्खताओं की जड़ हमारी मानसिक कमजोरी में गड़ी रहती है। विवाह शादियों में होली की तरह गाढ़ी कमाई के पैसे स्वाहा किये जाते हैं। इसमें केवल एक अन्धपरम्परा और मरणोन्मुख रिवाज ही कारण बनी हुई है।

समाज सुधार की अगणित समस्याओं का हल, भावना की जागृति पर ही संभव है। बाल विवाह के विरुद्ध कानून मौजूद है पर भारी संख्या में बाल-विवाह हर साल खुले आम होते हैं। दहेज के विरुद्ध कानून मौजूद है पर इतना लम्बा समय बीत जाने पर भी न तो दहेज विरोधी कोई मुकदमा सफल हुआ और न वह कुकर्म रुका। अस्पृश्यता विरोधी कानून के अनुसार छूतछात को दंडनीय अपराध मान गया पर वह बुराई अभी भी चिन्ताजनक रूप में विद्यमान है। जब हत्या, चोरी, डकैती या बलात्कार सरीखे कड़ी सजा वाले अपराधों को पूर्ण रूपेण कानून नहीं रोक पा रहा है तो फिर सामाजिक कुरीतियों को मिटाने वाले कमजोर कानून किस हद तक सफल होंगे यह विचारणीय है। वस्तुतः इस प्रकार के सुधार जन भावना की जागृति पर ही निर्भर हैं। कुरीतियों के विरुद्ध यदि मानस प्रखर हो उठे तो उनका दस दिन ठहर सकना भी संभव न रहे।

अधः पतन का मार्ग—

आत्मिक और चारित्रिक क्षेत्र में आज चोरी, बेईमानी, ठगी और दंभ की जो प्रवृत्तियाँ चल रही हैं वे न व्यक्ति के लिए लाभदायक हैं न समाज के लिए। इनसे अपराध बढ़ते हैं, अशान्ति और अव्यवस्था फैलती है। सरकार का काम और खर्च बढ़ता है जो जनता से ही टैक्स के रूप में वसूल होता है। अपराधी को भी इसमें स्थायी लाभ नहीं। धोखा देकर थोड़े दिन थोड़ा लाभ कमाया जाता है, उसके बदले में सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती है और वह अविश्वासी आदमी उपेक्षित एवं घृणास्पद बन कर दरिद्रता, असफलता और परेशानी में फँसा रहता है। इसके विपरीत यदि ईमानदारी और सचाई की नीति पर दृढ़ता से अड़ा रहा जाय तो आरंभ में थोड़े दिन कठिनाई भले ही रहे पर जब लोग उसे परख लेते हैं तो जी−जान निछावर करने को तैयार हो जाते हैं। सज्जन व्यक्ति प्रतिष्ठा भी प्राप्त करता है, घाटे में भी नहीं रहता और शक्ति भी प्राप्त करता है। लोक और परलोक दोनों ही उज्ज्वल बनते हैं।

बेईमान इंजीनियर चाहे कितना ही सुयोग्य क्यों न हो रिश्वत लेने पर उतारू रहे तो उसके द्वारा बनवाये हुए काम, नासमझ लोगों द्वारा ईमानदारी के साथ बनाये हुए कामों से भी खराब सिद्ध होगा बेईमान व्यापारी निकम्मी मिलावटी, नाप तोल में कम, महंगी वस्तुएँ बेच कर जनता का अहित करेगा। रिश्वतखोर राज कर्मचारी शासन को नष्ट करते हैं और जनता में असंतोष फैलाते हैं। कोई कितना ही सुशिक्षित समुन्नत या समृद्ध, न हो यदि ईमानदार नहीं है तो उसके द्वारा सबका अहित ही होगा। दुराचारी पुरोहितों द्वारा धर्म की हानि ही होती है। कायर सैनिक शत्रु का ही मनोरथ पूर्ण करते हैं। कामचोर मजदूर उत्पादन और अच्छाई का स्तर घटा कर राष्ट्रीय समृद्धि को क्षति ही पहुँचाते हैं। किसी भी क्षेत्र में लीजिए यदि उसके कार्यकर्ता बेईमानी और अनीति को अपनाये होंगे तो उनकी बाहरी दौड़−धूप व्यर्थ सिद्ध होगी, उनके कार्यों का परिणाम अन्ततः दुखद और घातक ही होगा। बेईमान नेता अपने नेतृत्व की रक्षा के लिए देश को रसातल पहुँचा देने वाली करतूतें करते हुए संकोच नहीं करते।

इस बाधा को हटाया जाय—

प्रगति पथ की सब से बड़ी बाधा, बेईमानी, अनैतिकता स्वार्थपरता एवं संकीर्णता ही है। शारीरिक दुर्बलता, आन्तरिक अशान्ति, सामाजिक विद्वेष, आर्थिक कठिनाई की जड़ अनैतिकता है। अपराध, पतन, पाप, संघर्ष एवं संकट की बाढ़ का कारण केवल दुष्प्रवृत्तियाँ ही हैं। अगणित समस्याएं केवल इस एक ही विकृति के कारण उत्पन्न होती हैं और उनका समाधान भी इस एक समाधान के द्वारा ही हो जाता है। उत्कर्ष के लिए क्रान्तियाँ आवश्यक मानी जाती हैं। सबसे बड़ी-सब क्रान्तियों की जननी बौद्धिक एवं नैतिक क्रान्ति ही है। भावनाओं में परिवर्तन होते ही सब कुछ बदल जाता है।

हमारे सामने राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न खड़ा हुआ है। उसे हल करने के लिए प्रगति और शक्ति चाहिए। इन दोनों का आधार है—भावनाओं का जागरण। साधन सामग्री भी बढ़नी चाहिए पर इसका सदुपयोग तो भावनाओं पर ही निर्भर है। सबल राष्ट्र की रचना के लिए उसके नागरिकों का सबल होना आवश्यक है। स्वास्थ्य, धन, विद्या, संगठन, शस्त्र आदि के माध्यम से राष्ट्र बलवान बनते हैं पर इनकी उपलब्धि के लिए प्रखर मनोबल अनिवार्य है। हम इस मूलभूत तथ्य की उपेक्षा न करें। जन-मानस की प्रसुप्त, उत्कृष्ट भावनाओं को जगाने का प्रयत्न करें तो उसके आधार पर जागृत हुई शक्ति हमारी ही नहीं सारी मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल कर सकती है। सुरक्षा समस्या को हल करना तो उस जन-जागृति के लिए नितान्त सरल और सहज है।


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