कर्तव्य धर्म की मर्यादा तोड़िये मत

February 1963

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परमात्मा ने मनुष्य को अन्य प्राणियों की अपेक्षा विशेष बुद्धि शक्ति दी है। इस संसार में जितनी भी महत्वपूर्ण शक्तियाँ हैं उनमें बुद्धि, शक्ति, ही सर्वोपरि है। मानव जाति की अब तक की इतनी उन्नति के पीछे उसकी बौद्धिक विशेषता का चमत्कार ही सन्निहित है।

इतनी बड़ी शक्ति देकर मनुष्य को परमात्मा ने कुछ उत्तरदायित्वों में भी बाँधा है ताकि दी हुई शक्ति का दुरुपयोग न हो। इन उत्तरदायित्वों का नाम है—कर्तव्य-धर्म।

नियंत्रण की आवश्यकता—

रेलगाड़ी के एंजिन में विशेष शक्ति होती है, यह अपने मार्ग से भटक पड़े तो अनर्थ उत्पन्न कर सकता है। इसलिये जमीन पर दो पटरी बिछा दी गई हैं और ऐंजिन को उसी पर चलते रहने की व्यवस्था बनाई गई है। बिजली में बहुत शक्ति रहती है वह शक्ति इधर-उधर न बिखर पड़े इसलिये उसका नियंत्रण रखना आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह प्रबन्ध किया गया है कि बिजली तार में ही होकर प्रवाहित हो और वह तार भी ऊपर से ढका रहे। नहर में पानी की तेज धारा बहती है। उस पानी को नियंत्रण में न रखा जाए तो उससे गाँव के गाँव डूब सकते हैं। इस खतरे की सुरक्षा के लिए नहर की दोनों पटरियाँ काफी चौड़ी और काफी मजबूत बनाई जाती हैं। हर शक्तिशाली तत्व पर नियन्त्रण आवश्यक होता है। अनियन्त्रित रहने देने पर तो शक्तिशाली वस्तुएँ अनर्थ ही पैदा कर सकती हैं। मनुष्य को यदि परमात्मा ने नियन्त्रित न रखा होता, उस पर धर्म कर्तव्यों का उत्तरदायित्व न रखा होता तो निश्चय ही मानव प्राणी इस सृष्टि का सबसे भयंकर, सबसे अनर्थकारी प्राणी सिद्ध हुआ होता।

अशक्त या स्वल्प शक्ति वाले पदार्थ या जीव अनियन्त्रित रह सकते हैं। क्योंकि उनके द्वारा बहुत थोड़ी हानि की सम्भावना रहती है। फिर जिनकी वे हानि कर सकते हैं उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक शक्ति मिली होती है। इसलिए उस स्वच्छन्दता में नियन्त्रण और सन्तुलन का एक नियम काम करता रहता है। कीड़े, मकोड़े, मक्खी, मच्छर, कुत्ता, बिल्ली-प्रभृति छोटे जीवों पर कोई बन्धन नहीं रहते पर बैल, घोड़ा, ऊँट, हाथी, आदि बड़े जानवरों को नाक की रस्सी [नाथ], लगाम, नकेल, अंकुश आदि के आधार पर नियन्त्रण रखा जाता है, यदि यह प्रतिबन्ध न हो तो वह शक्तिशाली जानवर लाभकारक सिद्ध होने की अपेक्षा हानि ही उत्पन्न करेंगे।

उच्छृंखलता के दुष्परिणाम—

अनियन्त्रित मनुष्य कितना घातक हो सकता है इसकी कल्पना मात्र से सिहरन होती है। जिन असुरों, दानवों, दस्युओं, दुरात्माओं के कुकृत्यों से मानव सभ्यता कलंकित होती रही है वे शक्ल सूरत से तो मनुष्य ही थे पर उन्होंने स्वेच्छाचार अपनाया, मर्यादाओं को तोड़ा, न धर्म का विचार किया, न कर्तव्य का। शक्तियों के मद में जो कुछ उन्हें सूझा, जिसमें लाभ दीखा वही करते रहे फलस्वरूप उनका जीवन सब प्रकार घृणित और निकृष्ट बना। उनके द्वारा असंख्यों का उत्पीड़न हुआ और समाज की शाँति व्यवस्था से भारी व्यवधान उत्पन्न होता रहा। असुरता का अर्थ ही उच्छृंखलता है।

मर्यादाओं का उल्लंघन करने की घटनायें-दुर्घटना कहलाती है और उनके फल स्वरूप सर्वत्र विक्षोभ ही उत्पन्न होता हैं। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी सभी अपनी नियत कक्षा और धुरी पर घूमते हैं, एक दूसरे के साथ आकर्षण शक्ति में बँधे रहते हैं। और एक नियत व्यवस्था के अनुरूप अपना कार्यक्रम जारी रखते हैं। यदि वे नियत नियन्त्रण को तोड़कर स्वेच्छाचार बरतने की चेष्टा करें तो उसका परिणाम प्रलय हो सकता है। यह ग्रह मार्ग में भटक जायेंगे और एक दूसरे से टकराकर विनाश की प्रक्रिया उत्पन्न कर देंगे। मनुष्य भी जब अपने कर्तव्य मार्ग से भटकता है तो अपना ही नहीं दूसरे अनेकों का भी नाश करता है।

मार्गदर्शक अंतः चेतना—

परमात्मा ने हर मनुष्य की अन्तरात्मा में एक मार्गदर्शक चेतना की प्रतिष्ठा की है जो उसे उचित कर्म करने की प्रेरणा एवं अनुचित करने पर भर्त्सना करती रहती है। कर्तव्य पालन के कार्य धर्म या पुण्य कहलाते हैं, उनके करते ही तत्क्षण करने वाले को प्रसन्नता एवं शान्ति का अनुभव होता है। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बरता गया है, धर्म मर्यादाओं को तोड़ा गया है, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया है, तो अन्तरात्मा में लज्जा, संकोच, पश्चाताप, भय और ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा। भीतर ही भीतर अशान्ति रहेगी और ऐसा लगेगा मानो अपना अन्तरात्मा ही अपने को धिक्कार रहा है। इस आत्मप्रताड़ना की पीड़ा को भुलाने के लिये अपराधी प्रवृत्ति के लोग नशेबाजी का सहारा लेते हैं। फिर भी चैन कहाँ, पाप वृत्तियाँ जलती हुई अग्नि की तरह हैं। जो पहले वहीं जलन पैदा करती है जहाँ उसे स्थान मिलता है।

शरीर में क्षय, उपदंश, दमा, गठिया, कुष्ठ लकवा आदि रोग हो जाने पर स्वास्थ्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। अशान्ति और बेचैनी बनी रहती है। रुग्ण शरीर को लेकर मनुष्य कुछ कर नहीं पाता घर वाले परेशान होते हैं, आर्थिक स्थिति बिगड़ती है और यदि रोग की स्थिति सुधरे नहीं तो जीवन भार रूप हो जाता है। शरीर की तरह ही मन में भी कई रोग उत्पन्न होते हैं और वे सारे मानसिक संस्थान की स्वस्थता को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं। आत्म प्रताड़ना सबसे बड़ी मानसिक व्याधि है। जिसका मन अपने दुष्कर्मों के लिये अपने आपको धिक्कारता रहेगा वह कभी भी आन्तरिक दृष्टि से सशक्त न रह सकेगा। उसे अनेक मानसिक दोष दुर्गुण घेरेंगे और धीरे-धीरे अनेक मनोविकारों से ग्रस्त होता जायगा।

अनिद्रा, दुःस्वप्न, चिड़चिड़ापन, आवेश, उत्तेजना, क्रोध, चिन्ता, भय, ईर्ष्या, आशंका, संशय अविश्वास, आलस, निराशा आदि कितने ही मानसिक रोग आत्म प्रताड़ना की व्यथा से पीड़ित मनुष्य को लग जाते हैं। पाप कर्मों के लिए अपना अन्तरात्मा जिसे धिक्कारता और प्रताड़ित करता रहता है वह मनुष्य सोते जागते कभी चैन नहीं पा सकता। दमा और दर्द के रोगों की भाँति पापी को भी न रात में न दिन में कभी चैन मिलता है। भीतर ही भीतर अपने आप ही अपनी शान्ति को कुतरता रहता है।

आत्म प्रताड़ना और अशाँति—

मर्यादाओं का उल्लंघन करके लोग तात्कालिक थोड़ा लाभ उठाते देखे जाते हैं। दूरगामी परिणाम को न सोचकर लोग तुरन्त के लाभ को देखते हैं। बेईमानी से धन कमाने, दम्भ से अहंकार बढ़ाने और अनुपयुक्त भोगों के भोगने से जो क्षणिक सुख मिलता है वह परिणाम में भारी विपत्ति बनकर सामने आता है। मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट कर डालने और आध्यात्मिक महत्ता एवं विशेषताओं को समाप्त करने में सबसे बड़ा कारण आत्म प्रताड़ना है। ओले पड़ने से जिस प्रकार खेती की फसल नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आत्म प्रताड़ना की चोटें पड़ते रहने से मन और अन्तःकरण के सभी श्रेष्ठ तत्व नष्ट हो जाते हैं और ऐसा मनुष्य प्रेत पिशाचों जैसी श्मशान मनो भूमि लेकर निरन्तर विक्षुब्ध विचरता रहता है।

धर्म कर्तव्यों की मर्यादा को तोड़ने वाले उच्छृंखल, कुमार्गगामी मनुष्य की गतिविधियों को रोकने के लिए उन्हें दण्ड देने के लिए समाज और शासन की ओर से जो प्रतिरोधात्मक व्यवस्था हुई है, उससे सर्वथा बचे रहना सम्भव नहीं। धूर्तता के बल पर आज कितने ही अपराधी प्रवृत्ति के लोग सामाजिक भर्त्सना से और कानूनी दण्ड से बच निकलने में सफल होते रहते हैं पर यही चाल सदा सफल होती रहेगी ऐसी बात नहीं है। असत्य का आवरण अनन्तः फटता ही है और अनीति अपनाने वाले के सामने न सही पीछे उसकी निन्दा होती ही है। जन-मानस में व्याप्त घृणा का सूक्ष्म प्रभाव उस मनुष्य पर अदृश्य रूप से पड़ता है जिससे अहितकर परिणाम ही सामने आते हैं। राजदण्ड से बचे रहने के लिये ऐसे लोग रिश्वत में बहुत खर्च करते हैं, निरन्तर डरे और दबे रहते हैं, उनका कोई सच्चा मित्र नहीं रहता। जो लोग उनसे लाभ उठाते हैं वे भी भीतर-ही-भीतर घृणा करते हैं और समय आने पर शत्रु बन जाते हैं। जिनकी आत्मा धिक्कारेगी उसके लिए देर सवेर में सभी कोई धिक्कारने वाले बन जायेंगे। ऐसी धिक्कार एकत्रित करके यदि मनुष्य जीवित रहा तो उसका जीवन न जीने की बराबर है।

कर्तव्य समझे, उत्तरदायित्व, निबाहें—

नियंत्रण में रहना आवश्यक है। मनुष्य के लिये यही उचित है कि वह ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करे। अपने उत्तरदायित्वों को समझे और कर्तव्यों को निबाहे। नीति, सदाचार और धर्म का पालन करते हुए सीमित लाभ में सन्तोष करना पड़ सकता है, गरीबी और सादगी का जीवन बिताना पड़ सकता है, पर उसमें चैन अधिक है। अनीति अपना कर अधिक धन एकत्रित कर लेना सम्भव है पर ऐसा धन अपने साथ इतने उपद्रव लेकर आता है कि उनसे निपटना भारी त्रासदायक सिद्ध होता है। दम्भ और अहंकार का प्रदर्शन करके लोगों के ऊपर जो रौब जमाया जाता है उससे आतंक और कौतूहल हो सकता है पर श्रद्धा और प्रतिष्ठा का दर्शन भी दुर्लभ रहेगा। विलासिता और वासना का अनुपयुक्त भोग भोगने वाला अपना शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सन्तुलन नष्ट करके खोखला ही बनता जाता है। परलोक और पुनर्जन्म को अन्धकारमय बनाकर आत्मा को असन्तुष्ट और परमात्मा को अप्रसन्न रखकर क्षणिक सुखों के लिये अनीति का मार्ग अपनाना किसी भी दृष्टि से दूरदर्शिता नहीं कहा जा सकता।

बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम धर्म का, कर्तव्य पालन का महत्व समझें, सदाचार की मर्यादाओं का उल्लंघन न करें। स्वयं शान्तिपूर्वक जिएं और दूसरों को सुख पूर्वक जीने दें। यह सब नियंत्रण की नीति को अपनाने से ही सम्भव हो सकता है। कर्तव्य और धर्म का अंकुश परमात्मा ने हमारे ऊपर इसी लिए रखा है कि सन्मार्ग के भटके नहीं। इन नियंत्रणों को तोड़ने की चेष्टा करना अपने और दूसरे के लिये महती विपत्तियों को आमन्त्रित करने की मूर्खता करना ही गिना जायगा।


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