अनासक्त कर्मयोग की आवश्यकता

February 1963

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मानव जीवन उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, हानि लाभ, अनुकूल-प्रतिकूल का चित्रपट है। एक समय जीवन में वह आता है जब मनुष्य हँसता है, खुशी के मारे बासों उछलता है। और एक समय वह भी आता है जीवन में जब मनुष्य रोता है निराश, चिन्तित और खिन्न रहता है, मानों हँसी खुशी कोई स्वप्न की बात थी। राजमहलों में खेलने, कूदने वाले राम और सीता को नंगे पैरों, वल्कल वस्त्र पहने चौदह वर्ष वन-वन भटकना पड़ा। श्रीकृष्ण, जिन्हें अवतार मानते हैं, उन्हें भी अपने वंश का पतन अपनी आँखों से देखना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का इतिहास इन दोनों ही पहलुओं से भरा पड़ा है।

जीवन क्या है—

क्या मानव जीवन इन दोनों पहलुओं की निरी क्रीड़ा मात्र है? क्या यह एक उस निर्जीव गेंद की तरह है जिसे दो खिलाड़ी इधर से उधर फेंकते हैं और इसमें ही उसका अस्तित्व है। अयोग्य हो जाने पर वह फेंक दी जाती है।

नहीं? ऐसी बात नहीं है। जीवन का अस्तित्व उस अनन्त काल, नित्य निरन्तर सत्य, अजर अमर तत्व की तरह है जिसके संदर्भ में रात दिन, सर्दी, गर्मी, रचना विनाश आदि के क्रम चलते रहते हैं, किन्तु उसकी आदि से चली आ रही यात्रा नहीं रुकती। अनन्त की यात्रा का लक्ष्य अनन्त ही हो सकता है। पूर्ण, पूर्ण की ओर ही जा सकता है। हमारा जीवन भी व्यक्त, अव्यक्त रूप से उस पूर्णता की राह का यात्री है। जीवन मरण, सुख दुख, हानि लाभ, प्रतिकूल अनुकूल तो मार्ग के टेढ़े सीधे, ऊँचे-नीचे पत्थर मात्र हैं।

जीवन पथ की इन विभिन्नताओं में आगे बढ़ने का एक सरल उपाय है, इनके प्रति अनासक्त होना, निस्पृह होना। एक निरपेक्ष की तरह रहकर अपने कर्तव्य पर आगे बढ़ते रहना। गीता में इसीलिए निष्काम कर्मयोग अनासक्ति का उपदेश दिया है।

मोह और आसक्ति की व्यर्थता—

संसार और इसके पदार्थों के प्रति जितनी आसक्ति होती है, लगाव होता है उतना ही मनुष्य का अभिमान बढ़ता जाता है। धन के प्रति, कुटुम्ब के प्रति अनावश्यक मोह रखने वाले अभिमान से ग्रसित होते देखे गये हैं। विद्या का अभिमान करने वाले अपने आपको असाधारण व्यक्ति समझने लगते हैं। उच्च पद पर काम करने वाले अपने आपको भाग्यशाली, शालीन समझते हैं। वे भूल जाते है कि हम भी दूसरे मनुष्यों की तरह ही साधारण मनुष्य हैं।

संसार और इसके आकर्षणों को सत्य मानने वाले पर अभिमान पूरी तरह अपनी सवारी करता है। किन्तु मिट्टी के घरौंदे की तरह टूटने-फूटने वाले पदार्थों की क्षणभंगुरता, नश्वरता, अनित्यता समझ में आ जाय तो इनके प्रति आसक्ति नष्ट हो जाती है। और आसक्ति नष्ट हो जाने पर अभिमान भी नहीं रहता। जब मनुष्य यह सोचता है अथवा परिस्थितियों द्वारा सोचने को मजबूर किया जाता है कि उसका यह यश वैभव का महल किसी भी क्षण तहस-नहस हो सकता है, उसकी यह बौद्धिक क्षमता कभी भी नष्ट होकर वह विक्षिप्त बन सकता है, अपनी धन सम्पत्ति को वह अपनी ही आँखों के सामने नष्ट-भ्रष्ट होते देख सकता है, अपने शक्तिशाली पहलवान शरीर को स्नायु रोगों से पीड़ित, धड़कन, गठिया से दुःखी देख सकता है, तो सहज ही मनुष्य का अभिमान काफूर हो जाता है।

संसार और इसके पदार्थों का अस्तित्व अनित्य है क्षणभंगुर है। ये कभी भी नष्ट हो सकते हैं। इनके प्रति अभिमान करना, इनमें लिप्त रह कर जीवन के आवश्यक कर्तव्यों को तिलाञ्जलि दे देना बड़ी भारी भूल है। इनकी अनित्यता, क्षणभंगुरता का अभ्यास करते रहने पर अभिमान और इन आकर्षणों से उत्पन्न विकारों का शमन हो जाता है। मानसिक ग्रन्थियों का निराकरण होता है।

अज्ञान और अभिमान—

मनुष्य, संसार और इसके पदार्थों के बारे में अनित्यता का अभ्यास करता है किन्तु सफलताओं का आकर्षण फिर उसे भुलावे में डाल देता है और उससे अभिमान की वृद्धि होने लगती है। उसे अपने सामर्थ्य क्षमताओं पर अभिमान होने लगता है। किन्तु जीवन की बाह्य सफलता तो आन्तरिक जीवन के विकास व उच्चता की सफलता परिणाम है, जो सहज और स्वाभाविक है। विकास के साथ सफलता, समृद्धि तो उस तरह है जैसे सिर पर बाल। यदि बालों को ही महत्व दिया जाय, उनकी सेवा की जाय, शरीर को भुला दिया जाय तो यह एक बड़ा भारी अज्ञान ही कहा जायगा। बाह्य सफलताओं का चिन्तन न करके अपने कर्तव्य में दत्तचित्त लगे रहना चाहिए इससे अभिमान की वृद्धि नहीं होगी। व्यक्ति, जीवन में अनासक्त और निरपेक्ष होकर अपनी जीवन यात्रा पूरी करेगा।

जब हथौड़ा पत्थर पर मारा जाता है तो पत्थर उसका प्रतिवाद करता है और इसलिए वह टूट जाता है। शीशे के जमीन पर पड़ते ही टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, किन्तु गेंद को जोर से मारने पर भी वह ऊपर ही उछल जाती है। इसका कारण यह कि अपने टकराने वाले भाग को वह शिथिल कर देती है। इसी तरह जब विभिन्न कुसंस्कार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर मानसिक क्षेत्र में उथल-पुथल मचायें तो संसार की अनित्यता, पदार्थों की क्षणभंगुरता और परिस्थितियों की चञ्चलता का तत्वज्ञान समझना आरम्भ कर देना चाहिए। क्षण-क्षण में जलाशय में तरंगें उठती रहती हैं, एक जाती और दूसरी आती रहती है। इस संसार का भी यह क्रम है। आज लाभ तो कल हानि, आज सुख तो कल दुख। रात और दिन की तरह, धूप और छाँह की तरह प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों का ताना-बाना भी जीवन भर बुनना पड़ता है। इससे किसी जीवधारी को आज तक छुटकारा नहीं मिला। कोई भी पूर्ण सुखी इस धरती पर नहीं हुआ। कुछ न कुछ चिन्ता हर किसी को भी लगी रहती है। फिर अपने लिए यदि हम यह अभिलाषा करें कि हमें पूर्ण सुख शान्ति निरन्तर बनी रहे तो यह कैसे सम्भव हो सकता है? इस परिवर्तनशील जगत में नित्य नया दृश्य दिखाई पड़ना स्वाभाविक है। यह बदलाव सदा सुखद ही नहीं हो सकता और प्रिय अप्रिय दोनों ही परिस्थिति के लिये हम को सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।


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