भवन्तिनम्रास्तरवः फलागमै
र्नवाम्बुभिर्दूर विलम्बिनो घनः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥
वृक्ष फल आने पर झुक जाते हैं। जल भरे बादल भी नीचे हो जाते हैं। समृद्धि प्राप्त होने पर सत्पुरुष अभिमान नहीं करते, यही परोपकारियों का स्वभाव है।
ज्ञान की परिपक्वता कर्म द्वारा ही सम्भव है केवल विचार करते रहा जाय और कर्म में उन विचारों की परिणति न हो तो उससे मन बहलाव मात्र होगा। जस्ते और ताँबे के दो तारों में होकर गुजरती हुई विद्युत-धारा जब एकत्रित होती है, तो उसका चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। ज्ञान और कर्म अलग-अलग रहें तो वे भार मात्र हैं। पर जब सद्विचार के साथ सत्कर्मों की प्रतिक्रिया बनती है तो वह कर्म-योग एक उत्तम योग साधना का रूप धारण करके आत्मकल्याण के लक्ष्य को पूर्ण करने में समर्थ हो जाता है।
हम सुसंस्कृत बनें। संस्कृति को अपनावें। जीवन लक्ष की ओर राजमार्ग में चलें। ज्ञान और कर्म की उपासना करें। आन्तरिक स्तर सुधारे और सत्प्रवृत्तियों को बढ़ावें तो ही हमारा कल्याण होगा तो ही जीवन-लक्ष की पूर्ति सम्भव बनेगी।