गायत्री साधना निष्फल नहीं होती।

July 1953

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(पं. वैजनाथ जी तिवारी जबलपुर)

मेरी उम्र इस वक्त 46 वर्ष की है, मैं केवल छठवीं तक अंग्रेजी पढ़ सका हूँ, मेरी पिताजी जमींदार थे जब में कुछ समझने योग्य हुआ तब जमींदारी जाती रही। बड़े भाई का देवलोक हो गया और थोड़ा सा कर्ज अदा करने के लिए मकान का एक हिस्सा बेचना पड़ा। भविष्य बहुत भयानक दिखने लगा यहाँ तक कि परिवार का खर्च सम्हालना कठिन हो गया। सन् 1940 में मुझे अपनी ससुराल मौजा उत्तरी फरुक्खाबाद लाइन, जिला, कानपुर जाने का मौका पड़ा। वहाँ मुझे मेरे एक रिश्तेदार मौजा, बरुआ, पास चौबेपुर जिला कानपुर लिवा ले गये। मौजा बरुआ में, श्री गंगा जी तट, श्रीमान् परिव्राजकाचार्य श्री 108 स्वामी ज्ञानाश्रम जी महाराज के मैंने दर्शन किये और उनसे मैंने गुरु दीक्षा देने की प्रार्थना की। श्री स्वामी जी ने मुझे गुरु दीक्षा इस इकरार पर देना मंजूरी की कि मैं स्वयं पहले सवा लाख गायत्री जप करूं और संख्या पूर्ण होने पर अपनी रिपोर्ट उनके पास भेजूँ! मेरे सामने हर तरह की कठिनाइयाँ थी इन सब मुसीबतों से बचने के ख्याल से मैंने श्री स्वामी जी की आज्ञा का पालन किया और उनसे गुरु दीक्षा मन्त्र उपदेश ग्रहण किया। श्री गुरुजी ने मुझे यह उपदेश दिया कि प्रतिदिन प्रातः व सायंकाल श्री गायत्री तथा गुरु मन्त्रजप निश्चित संख्या में करता रहूँ। उसकी आज्ञानुसार आज 12 वर्ष से मैं नित्य जप करता आ रहा हूँ।

सन् 1944 में मुझे अपनी भतीजी की शादी करनी पड़ी उस समय मेरी आर्थिक दशा बहुत कमजोर थी और मुझे किसी भी नजदीकी और अन्य रिश्तेदारों से भरोसा नहीं था कि वे मेरे खर्च में मदद देंगे। मेरी भी हार्दिक इच्छा थी कि मुझे ऐसा मौका न आवे कि इस कार्य के लिए कर्ज लेना पड़े या किसी रिश्तेदार से रकम की मदद लेना पड़े। श्री गायत्री माता तथा इष्ट देव का स्मरण कर और उन्हीं की आज्ञा समझ मैंने कार्य शुरू किया और कार्य निर्विघ्न बड़े सुन्दर रूप से समाप्त हुआ जिसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस कार्य को सुन्दर रूप से समाप्त होता देख मेरे शुभचिन्तक पड़ौसी तथा रिश्तेदार मुझे बहुत लायक (हैसियतदार) व सपूत समझते लगे और तब से मुझसे कर्ज माँगने की आशा रखने लगे समय फिर बदला और सब वास्तव में श्री गायत्री माता तथा इष्टदेव की दया और आशीर्वाद का फल है। शुरू में जो मेरी योग्यता के अनुसार मुझे मजदूरी मिलती थी आज उसी काम में मुझे मेरी जरूरत के मुताबिक अच्छी मजदूरी मिल जाती है और अब वस्त्र, अन्न संकट से पूर्ण युक्त हूँ।

गत वर्ष कुँवार में सन् 1951 मेरे दाहिने पैर में घुटना के ऊपर और कमर के नीचे मरण संकट दर्द हो गया। अनेक उपचार किये पर आराम नहीं मिला। एक रात्रि को जब दर्द से इतना व्याकुल हो गया कि लेटने बैठने से असमर्थ हो गया माता को इस रूप में स्मरण कर ध्यान किया कि माता ये दण्ड मुझे किस खोटे कर्म के लिए मिल रहे हैं, आपका स्मरण तो में कुछ काल से नित्य कर रहा हूँ कैसे समझूँ कि आप दयालु हैं दर्द से तो प्राण निकल रहे हैं। मेरी कराहना सुन मेरी स्वयं माता मेरे पास आई और वे मेरी बुआ की लड़की मेरी बहिन को बुलाकर ले आई जो अपने साथ एक शीशी में कुछ 10-20 बूँद दवा लेकर आईं। उन्होंने वह दवा लगाकर थोड़ी देर अपना हाथ फेरा बस पाँच मिनट में मेरा दर्द जाता रहा पर क्षणिक दर्द रह गया। मैंने बहिन जी से दवा का नाम पूछा तो उन्होंने बताया कि वह दवा ‘दिल आराम तेल’ है जो दिल आराम फार्मेसी मौलवीगंज लखनऊ से प्राप्त हो सकता है। दर्द में जब ऐसा तत्काल आराम मिला तो मैंने पाव भर तेल वी. पी. से 13 रु. 8 आना का मंगाया और उसे इस्तेमाल किया पर पहले दिन जो क्षणिक दर्द रह गया था वह दर्द उस दवा से नहीं गया। तब मेरा और भी पक्का विश्वास हुआ कि मरण संकट दर्द में तत्काल आराम मिलना, श्री गायत्री माता से प्रार्थना करने का ही फल था। यह सब चमत्कार देख मेरी अटूट श्रद्धा बढ़ गई है।

अब मैंने जीवन में यह निश्चय कर लिया है कि अपने स्वल्प साधन के साथ ही साथ अधिक से अधिक में श्री गायत्री जप का प्रचार करूं। इसी उद्देश्य को लेकर मैंने अपने मित्रों के सहयोग से श्री गायत्री प्रचार मण्डल की शहर में स्थापना सन् 1951 में की और हर पंद्रहवें दिन रविवार को श्री गायत्री प्रचार हेतु बैठक करता आ रहा हूँ। इसी तरह श्री गायत्री प्रचार का कार्य ग्वारीघाट में श्री नर्मदा नदी तट पर भी इसी साल से चालू कराया है। मेरा विश्वास है कि श्री गायत्री जप नित्य बिना नागा, समय पर, श्रद्धा और सत्कारपूर्वक, दीर्घकाल तक संसारी धन्धों से लगे रहने पर भी जप करते रहने से महान भय से रक्षा होती है और जीवन सफल हो जाता है और साधक अन्न वस्त्र संकट से पूर्ण मुक्त रहता है।

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