आर्य समाज और गायत्री

July 1953

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(श्री गुरुचरण जी आर्य विहिया)

प्राचीन काल में प्रायः सभी ऋषि गायत्री की उपासना करते थे और इसी महामन्त्र का उपदेश अपने अनुयायियों को करते थे। यह परम्परा अनादि काल से लेकर अब तक चली आ रही है। आधुनिक काल के भी सन्त महात्मा इसी मार्ग पर चल रहे हैं।

लोगों की कल्पना है कि आर्यसमाज मूर्ति पूजा की भाँति जप तप पर भी विश्वास नहीं करता। यह मान्यता सर्वथा गलत है। श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती गायत्री के परम श्रद्धालु उपासक थे। उनके गुरु प्रज्ञाचक्षु श्री॰ विरजानन्द सरस्वती ने तो गंगा के शीतल जल में खड़े होकर दीर्घकाल तक गायत्री उपासना की थी। श्री. स्वामी दयानन्द ने जीवन भर स्वयं गायत्री उपासना की तथा अनेकों अपने अनुयायियों को इसके लिए प्रेरणा देते रहे। तथा श्री वासीराम जी कृत महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र पुस्तकों से नीचे श्री महायानन्द प्रकाश नामक स्वामी जी के जीवन चरित्र ग्रन्थ से कुछ उदाहरण उपस्थिति कर रहे हैं जिससे पाठक श्री स्वामी दयानन्द की गायत्री निष्ठा का अनुमान लगा सकें।

पृष्ठ 445- “मेरठ में जपाराधन का वर्णन करते हुए महाराज ने कहा- बद्रीनारायण में रहकर मैंने भगवती गायत्री का जपानुष्ठान किया था।”

पृष्ठ 112- ठाकुर गोपालसिंह की 90 वर्ष की एक वृद्धा ताई थी, जिसका नाम हंस ठकुरानी था, और वह 65 ग्रामों की स्वामिनी थी, परन्तु उसका जीवन बड़े संयम का था, वह आई और उपदेश ग्रहण की इच्छा प्रकट की। महाराजा ने उसे ओऽम् गायत्री का जाप बताया और मूर्ति पूजा छोड़ देने का आदेश किया।

पृष्ठ 130- इस बार स्वामी जी कायम गन्ज में लगभग 30 दिन रहे, लोगों के पूछने पर उन्होंने त्रिकाल संध्या का निषेध किया और दो काल संध्या का उपदेश किया। संध्या, गायत्री और वलिवैश्य देव का उपदेश करते थे।

पृष्ठ 105- पण्डित गंगा प्रसाद महाराज के एक और भक्त थे वे स्वामी जी के उपदेश से लोगों को यज्ञोपवीत धारण करने की प्रेरणा करते थे और गायत्री जपने को कहते थे।

पृष्ठ 110- वैलून जिला बुलन्दशहर भक्त जन ने तख्त पर एक सिरकी बिछा दी और गद्दा डाल दिया था, जिस पर महाराज जी बैठा करते थे लोगों को संदेश गायत्री का उपदेश करते थे जो कोई उसके पास आता उससे पूछते गायत्री जानते हो, वह कहते नहीं तो उसे गायत्री सिखाने और लिखकर देते थे। पंडित इन्द्र मुनि ने गायत्री की बहुत सी प्रतियाँ लिखकर उसके पास रखदी थी। वह किसी को कोई प्रति देते तो उसके नीचे एक हजार का अंक लिख देते कि एक हजार बार जाप करो। इस प्रकार उन्होंने लगभग पचास मनुष्यों को गायत्री की प्रतियाँ बाँटी।

पृष्ठ 131- कर्णवास में यज्ञोपवीत के लिए बड़ी आयु वालों को प्रायश्चित करना निश्चित हुआ। अनूप शहर, दानपुरा अहमदगढ़, राम घाट, जहांगीराबाद और कर्णवास के पण्डित गायत्री जप के लिए निमंत्रित होकर अनुष्ठान करने लगे। यह गायत्री पुरश्चरण आधे शुक्ल पक्ष में समाप्त हो गया और स्वामी जी की कुटिया पर एक वृहद् हवन हुआ।

पृष्ठ 164- भगवान दयानन्द जी ने गंगा समीप निवासी सहस्रों जनों को जनेऊ देकर द्विज बनाया। संध्या सिखाई, गायत्री का जप बताया और लाख जनों को सदुपदेश से सन्मार्ग दिखाया।

पृष्ठ 225- छलसर में सैकड़ों राजपूतों ने उनसे गायत्री गुरु मन्त्र ग्रहण किया और सहस्रों मनुष्य आपके अनुयायी हो गये।

पृष्ठ 226- यहाँ ठाकुरों के कई लड़के यज्ञोपवीत लेने को समुद्यत थे। इसलिए स्वामी जी की आज्ञा से बाहर पंडित जप करने बैठाये गये और सात दिन तक वृहद हवन होता रहा।

पृष्ठ 352-एक व्याख्यान में महाराज ने अन्य पर्व यथाई मन्त्रों का खण्ड करके गायत्री मन्त्र की प्रधानता बतलाई और कहा था कि इसका प्रतिदिन जाप करना चाहिए।

पृष्ठ 358- पण्डित पोलो राम जी का महाराज से बड़ा प्रेम था। महाराज ने अपार दया से उनको उपदेश किया कि-गायत्री का जप प्रतिदिन किया करो। यह कल्याणकारी मन्त्र है। मेरे पास यही एक वस्तु है जो मैंने आपको दे दी है।

पृष्ठ 373- स्वामी जी यज्ञों में और यज्ञोपवीत आदि संस्कारों में गायत्री पुरश्चरण कराया करते थे। बहुत से विद्वान मिलकर बारह चौदह दिन तक गायत्री जाप करते। यजमान से भी यह पवित्र जप कराया जाता। जमपुर के ठाकुर रणजीत सिंह ने एक बड़ा भारी यज्ञ करने का संकल्प किया था। इस पर महाराज ने उन्हें कह रखा था कि हमारे कथनानुसार गायत्री का अनुष्ठान कराइये। ठाकुर महाशय ने उस यज्ञ को करने के लिए स्वामी जी को ही आमंत्रित किया। इस प्रकार के अनेक प्रमाण उपरोक्त पुस्तकों में मौजूद हैं।

श्री स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास के पृष्ठ 22 पर लिखा है- पिता, माता व अध्यापक अपने लड़के लड़कियों को अर्थ सहित गायत्री का ज्ञान करावें। इस प्रकार गायत्री मन्त्र का उपदेश करके सन्ध्योपासना आदि सिखलावें।

बार बार जप करने में अन्तः करण की शुद्धि, बुद्धि तीव्र और सर्व प्रकार की शुभ कामनाओं की उसके अनुकूल आचरण करने से सिद्धि होती।

उपरोक्त प्रमाणों में यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री स्वामी दयानन्द भी अन्य ऋषियों की भाँति गायत्री माता के प्रति अनन्य निष्ठावान थे। आर्य समाज को गायत्री जप का विरोधी मानना एक भ्रान्त कल्पना है।


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