कठिन प्रारब्ध से सहज छुटकारा

July 1953

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( श्री मगन लाल गाँधी, नवसारी )

कठिन प्रारब्ध भोगों का कुचक्र ऐसा है जिसे भोगे बिना मनुष्य को छुटकारा नहीं मिलता। दशरथ जी भगवान राम के पिता थे, उनकी मृत्यु पुत्र शोक में अर्त बिलख बिलख कर हुई। इस प्रकार की मृत्यु संसार में सबसे अधिक कष्टदायक होती है। रामचन्द्र जी भगवान होते हुए भी अपने पिता जी को ऐसी करुणा जनक मृत्यु से न बचा सके। इसी प्रकार पाण्डवों का वृत्ताँत है। द्रौपदी का अपमान, अभिमन्यु का वध, अज्ञात वनवास, दास्यवृत्ति, नाना प्रकार के त्रास और अन्त में बर्फ में गलकर मरने की पीड़ा इतने दुख पाण्डवों को निरन्तर सहने पड़े, बेचारे जीवन भर परेशान रहे। भगवान कृष्ण उनके परम सखा, सहायक एवं सम्बन्धी थे फिर भी वे उनके प्रारब्ध भोगों को मिटाने में सफल न हो सके।

कई बार सत्पुरुषों को भी पूर्व संचित प्रारब्ध भोगों के कारण दुख उठाने पड़ते हैं। राजा विक्रमादित्य, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, नल आदि को जो कष्ट उठाने पड़े वे किसी से छिपे नहीं हैं। अहिल्या, द्रौपदी, शैव्या, आदि देवियों को जो कष्ट सहने पड़े उसमें उनके तात्कालिक कर्म कारण नहीं थे। उनके तत्कालीन जीवन तो परम पवित्र थे उसमें कोई कारण त्रास मिलने का न था फिर भी उन्हें किन्हीं भोगों को भोगने के लिए विवश होना पड़ा। ऐसी घटनाएं इस संसार में अनेकों घटित होती रहती हैं।

मुझे भी एक ऐसी ही घटना का सामना गत वर्ष-2 अप्रैल सन् 52 को करना पड़ा। मेरी दुकान में अचानक आग लग गई और देखते देखते हजारों रुपयों का सामान जलकर भस्म हो गया। अग्निकाण्ड की भयंकरता को देखते हुए पड़ौसी दुकानदारों का प्राण सूख रहा था, उनकी दुकान में भी आग फैल जाती तो अनेकों का भयंकर अनिष्ट होता। आग बुझाने के प्रयत्नों के साथ साथ हम लोग मन ही मन भगवान को पुकार रहे थे कि अब इस अनिष्ट को आगे बढ़ने से रोकिये। मेरी श्रद्धा गायत्री माता पर है माता का ध्यान रखने और उनसे अपनी आर्त पुकार करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग न सूझ पड़ता था। दुकान जल जाने के बाद फिर क्या होगा मेरा कैसे गुजारा होगा यह चिंता सभी दर्शकों एवं हितैषियों के चित्त को दुखी बना रही थी। किसी प्रकार आग काबू में आई और उद्विग्नता कम हुई।

दुकान की आग बुझ गई पर चिन्ता और निराशा की आग जल उठी। हरि का हरनाम सहायक होता है। गायत्री माता से बेड़ा पार करने की पुकार करने लगा। और करता भी क्या ?

सच्ची प्रार्थना निष्फल नहीं जाती। मेरी भी निष्फल नहीं गई। कुछ समय पूर्व अनायास और अनिष्ठा पूर्वक दुकान का बीमा करा लिया था वह इस आड़े समय में काम आया जितनी हानि हुई थी उसके अधिकाँश की पूर्ति हो गई। एक और से मेरा भोग भुगत गया दूसरी और विगत कई वर्षों की लगातार गायत्री उपासना के फलस्वरूप उस हानि की पूर्ति भी हो गई।

काल पुरुष अपना काम करता है, प्रारब्ध भोग छूटते नहीं, पर माता की कृपा भी अपना काम करती है। डॉक्टर का तेज चाकू आपरेशन करता है पर दयामयी नर्स शीतल मरहम लगाने को तैयार रहती हैं। माता का अंचल पकड़कर हम अपने कठिन कर्मों के भवसागर को आसानी और सुविधापूर्वक पार कर सकते हैं।


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