माता को आत्म समर्पण

July 1953

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(महात्मा श्री “गायत्री पुत्र जी” वरहज)

माता पिता की मृत्यु के बाद लम्बे समय तक सरकारी नौकरी करता रहा। पाठ पूजा में मेरा मन आरम्भ से ही बहुत था। अक्टूबर सन् 31 को तीर्थ यात्रा के लिए घर से निकला। अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए जगन्नाथ जी पहुँचा। सुना था कि जगन्नाथ जी के सामने जो प्रार्थना सच्चे हृदय से की जाय उसे वे पूरी करते हैं। मैंने जगदीश जी प्रार्थना की कि आप मुझे गायत्री वाला सच्चा ज्ञान दे दीजिए। मुझे तत्काल ऐसा भास हुआ मानों मेरी प्रार्थना सुन ली गई हो और एवमस्तु का वरदान दिया गया हो।

तीर्थ यात्रा से वापिस लौट रहा था तो रास्ते भर अन्तरात्मा में बैठी हुई कोई शक्ति यह कह रही थी कि दो काम एक साथ नहीं हो सकते या तो ईश्वर को ही प्राप्त किया जाय या संसार की ही गुलामी की जाय, मैंने निश्चय किया कि मुझे प्रभु को प्राप्त करना है। निश्चय के फलस्वरूप इस्तीफा दे दिया, नौकरी छोड़ दी।

मेरी साधना में राम नाम का जप और गीता का पाठ दो ही प्रधान थे। गीता में मैंने देखा कि गायत्री मन्त्र स्वयं भगवान का स्वरूप है। अन्य सन्त महात्माओं से भी यही सुना था और मेरी अन्तरात्मा ने भी यही कहा। तब से मैंने गायत्री माता की शरण पकड़ी और उन्हें ही अपना आत्म समर्पण कर दिया।

त्रिकाल सन्ध्या, जप और काले तिल तथा घी का हवन यह मेरा नित्य कर्म रहा, अधिकाँश समय उसी कार्यक्रम में लग जाता, एक ही लगन और एक ही रट दिन रात रहती। इस प्रकार दो वर्ष बीत गये। 21 फरवरी सन् 33 की रात को करीब दस बजे जबकि मैं सोया हुआ था- हवन कुण्ड के पास एक दिव्य तेज युक्त देवी का दर्शन हुआ। मैं चौक पड़ा और पूछा- आप कौन हैं? उनने मन्द मुस्कान के साथ उत्तर दिया- गायत्री। मेरा रोमाँच हो गया। प्रेम विह्वल होकर माता के चरणों पर गिर पड़ा। उस स्वर्गीय सुख का वर्णन करते नहीं बनता, मैं कृतकृत्य हो गया।

माता ने अन्तर्ध्यान होते हुए कहा तुम मेरे धर्म पुत्र हो। मेरा मन्त्र ब्रह्म रूप है। इसका उपयोग आत्म कल्याण के लिए ही होना चाहियें जो लोग इससे साँसारिक कामनाएं प्राप्त करते हैं वे अधोगामी होते हैं। तुम ब्रह्म शक्ति के लिए ही हमारा उपयोग करना। मैंने उनके चरणों में सिर झुका दिया। मेरी स्त्री को मेरा अनुगमन करने का आदेश देकर अदृश्य हो गईं।

दूसरे दिन से हम दोनों ने घर छोड़ दिया। माता ने मुझे धर्म पुत्र कहा था मैंने अपना पुराना नाम पाँडे सुख मंगल लाल छोड़कर गायत्री पुत्र रख लिया। मेरी धर्म पत्नी ने उसी दिन से सब साँसारिक कामनाएं त्याग दी और निशिदिन मेरा अनुगमन करने लगीं। कुछ समय कतिपय स्थानों पर परिभ्रमण करने के बाद हम दोनों बरहज आये। यह स्थान मनोनुकूल दिखाई पड़ा। सरयूतरी पर श्मशान भूमि में पहले कपड़ा तानकर हम लोग रहे फिर एक छप्पर डाल लिया। 27 अप्रैल सन् 35 से हम लोग यहीं हैं। रीति नीति यह है कि-मांगने का सवाल नहीं, लेने से इनकार नहीं। किसी के बुलाने का सवाल नहीं, किसी के आने की मुमानियत नहीं, किसी की खुशी नाखुशी की परवा नहीं। पाँच बीघे के घेरे से बाहर जाता नहीं, बरहज कस्बा बहुत बड़ा है, उसके बिलकुल निकट रहता हूँ, पर आज तक उसे आंखों से नहीं देखा। अपनी कोई निश्चित आमदनी नहीं है पर धर्मार्थ कार्यों के लिए यहाँ सदैव कुछ न कुछ होता ही रहता है। हर पूर्णिमा को इस कुटी पर चने बंटते है जिसे लेने के लिए भारी भीड़ जमा होते देखकर सभी को हर्ष और आश्चर्य होता है। नित्य का जप और नियमित रूप से दोनों समय हवन यह अपना निश्चय कार्यक्रम है। यहाँ आने वाले व्यक्ति गायत्री उपासना की सलाह प्राप्त करके जाते हैं जिससे बहुधा उनका कल्याण ही होता है। साँसारिक नौकरी छूट गई अब हम दोनों माता की नौकरी में लगे हुए हैं। रोटी कपड़ा लेकर परम सन्तोषपूर्वक जीवन यापन करते हैं।


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