महात्मा गायत्री स्वरूप जी

July 1953

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(श्री राम दयाल शर्मा पारासर, तिलहर)

हिमालय की पर्वतीय तपोभूमि में प्रवेश करते ही मन को स्वाभाविक शान्ति प्राप्त होती है। इस वर्ष मैं कुछ समय के लिये हरिद्वार ऋषिकेश गया। चित्त में बड़ी शान्ति प्राप्त हुई। मेरी इस यात्रा में आचार्य श्री का एक आदेश भी जुड़ा हुआ था। वह यह कि “मैं पूर्णाहुति यज्ञ की सफलता के लिए उत्तराखंड के सन्त महात्माओं से आशीर्वाद माँगू।”

उपरोक्त उद्देश्य के लिए तथा तपस्वी महात्माओं के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त करने की अपनी आन्तरिक उत्कण्ठा को तृप्त करने के लिए मैं अनेक सत्पुरुषों से मिला। अनेकों का दर्शन और सत्संग प्राप्त करके बड़ी प्रसन्नता तथा शान्ति प्राप्त हुई। इन्हीं महात्माओं में एक असाधारण निष्ठावान् महात्मा भी ऋषिकेश में मिले मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। पाठकों में से भी कभी कोई हरिद्वार पधारे तो मेरी ही भाँति उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त वे भी कर सकें इसके लिए उनका कुछ परिचय नीचे लिख रहा हूँ।

यह महात्मा आज कल-परमार्थ निकेतन ऋषिकेश में रहते हैं। नाम है उनका “गायत्री स्वरूप”। जैसा इनका नाम है वस्तुतः वे हैं भी वैसे ही। यह विगत छः वर्षों से मौन धारण किये हुए गायत्री साधना में संलग्न हैं। इनकी आत्मा का तेज इतना प्रखर है कि न बोलते हुए भी उनकी शिक्षा तथा प्रेरणा सामने उपस्थित व्यक्ति को भली प्रकार प्राप्त होती है।

निकट रहकर इनके व्यक्तित्व की महानता देखते ही बनती है। सादगी, प्रेम, उदारता, सेवा इनके जन्मजात गुण हैं। त्याग, तप और संयम इनके रोम रोम में समाये हुए हैं। छः साल का मौन साधारण काम नहीं है। इनका आहार विहार तथा दिनचर्या ऐसी है जिसे देख कर प्राचीन काल के ऋषियों की याद सहज ही आ जाती है।

यह महात्मा जोधपुर प्राँत के गायत्री नामक कस्बे के मूल निवासी हैं। कुछ समय पूर्व बीकानेर में जसूसर गेट के सामने रहते थे। उच्च ब्राह्मण कुल में आपका जन्म है जन्म से ही इनकी गायत्री निष्ठा थी। माता की कृपा के अनेकों चमत्कार इनने देखे, जिससे प्रभावित होकर उनने जीवन का अंतिम भाग गायत्री माता के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया। उनकी इच्छा पूर्ण होकर रही। घर का कारबार अपने पुत्रों को सौंपकर अब वे तपस्या के लिये चले गये हैं।

उनके जीवन में गायत्री उपासना के फलस्वरूप कितनी ही आश्चर्यजनक घटनाएं घटित हुई हैं। एक बार सम्वत् 70 में वे अपनी माता के साथ पुष्कर से जयपुर जा रहे थे। रास्ते में अचानक भारी वर्षा हुई और पहाड़ों का पानी एकत्रित होकर तालाब में जाने लगा। जिस रास्ते वे चल रहे थे उसमें इतना पानी आ गया कि माताजी समेत वे डूबने लगे। ऐसे समय में गायत्री स्मरण के अतिरिक्त और कोई उपाय उनसे न बन पड़ा वे कहते हैं कि हमें ऐसा अनुभव हुआ मानों किसी ने पकड़कर उठा लिया हो और पार लेगा दिया हो। डूबने और मरने से बचने को वे माता की महान कृपा मानते हैं।

दूसरी घटना यह हुई कि वे एक बारात में गए हुए थे तो एक दो फुट मोटा भारी पत्थर ऊपर से गिरा। पहले से किसी को इसकी सम्भावना न थी। पत्थर उस स्थान पर गिरा जहाँ वे बैठे थे। आधा सैकिंड पूर्व ही किसी अज्ञात शक्ति ने उनका हाथ पकड़कर बलपूर्वक खींचा और वे जैसे ही वहाँ से हटे वैसे ही क्षण भर में वह वज्र शिला गिरी और स्थान पर रखी हुई अन्य वस्तुएं चकनाचूर हो गईं।

महात्मा गायत्री स्वरूप ने देखा कि माता उनके जीवन की बार बार ऐसी कृपा करती है तो उनका भी यह कर्तव्य है कि अपने जीवन को उनकी गोदी में समर्पण करके मानव जन्म को सफल बनावें। अपनी इसी मान्यता को कार्यरूप में परिणत करते हुए यह महाभाग आज ऋषियों जैसी तपस्या में संलग्न हैं।


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