गायत्री महिमा के 24 सूत्र

July 1953

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(1) गायत्री के 24 अक्षर 24 अत्यन्त ही महत्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुण्य, स्मृति, उपनिषद् आदि में जो शिक्षाएं मनुष्य जाति को दी गई हैं उन सबका सार इन 24 शिक्षाओं में मौजूद है। इन्हें अपनाकर मनुष्य प्राणी व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख शान्ति को पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता है।

(2) गायत्री सबसे छोटा किन्तु सबसे सारगर्भित एक सार्वभौम धर्मशास्त्र है। इसके आधार पर मनुष्य जाति की शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, अंतर्राष्ट्रीय, समस्त समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं।

(3) गायत्री के 24 अक्षरों के उच्चारण से शरीर के विभिन्न स्थानों में स्थिति सूक्ष्म चक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं का जागरण होता है। जैसे टाइप राइटर के अक्षरों पर उंगली रखते ही कागज पर उसी अक्षर की चोट पड़ती है वैसे ही मुख और कण्ठ में अनेक गुप्त गुत्थियों की चाबी है। गायत्री के अक्षरों का गुन्थन ऐसा विज्ञान सम्मत है कि इसके अक्षरों के उच्चारण से शरीर में छुपे हुए गुप्त संस्थानों पर दबाव पड़ता है और वे जागृत होकर मनुष्य की अनेक सोई हुई शक्तियों को जागृत करते हैं।

(4) संसार में सबसे अधिक, सबसे सच्चा एवं सबसे निस्वार्थ प्रेम माता का होता है। ईश्वर से हम इच्छानुसार कोई भी रिश्ता कायम रख सकते हैं उसी के अनुसार ईश्वर की ओर से प्रत्युत्तर भी मिलता है। माता का रिश्ता सबसे महत्वपूर्ण होने से यदि यह सम्बन्ध स्थापित किया जाय तो प्रभु की ओर से भी अलौकिक मातृ प्रेम होता है। वे माता की तरह शीघ्र द्रवित होते हैं और भक्त के सब अपराधों को क्षमा कर देते हैं।

(5) नारी की पवित्रता एवं श्रेष्ठता संसार में सर्वोपरि है। आज उसे भोग सामग्री माना जाता है और उसे पराधीन, असहाय, निर्बल, अशिक्षित एवं दीन हीन बनाकर पशुवत् रखा जा रहा है। कन्या का दर्जा पुत्र से हेटा समझना उसे पराये घर का कूड़ा मानना, विवाह में दहेज माँगना बात बात में मार पीट एवं अपमान करना आदि कारणों से स्त्री जाति दिन दिन नीचे गिरती जाती है, फलस्वरूप हमारा पारिवारिक जीवन एवं सुसंतति का विकास अवरुद्ध हो रहा है। आधी आबादी को, नारी जाति को अविकसित रखकर कोई भी राष्ट्र एवं समाज उन्नति नहीं कर सकता। भगवान मनु पहले ही कह चुके हैं कि जहाँ नारी की पूजा होगी वहीं देवताओं का निवास होगा। भारत के घर घर में देवताओं का निवास हो इसके लिए नारी की श्रेष्ठता तथा सम्मान की भावना का विकास होना आवश्यक है। गायत्री उपासना से इस भावना को प्रोत्साहन मिलता है।

(6) सद्बुद्धि संसार का सबसे मूल्यवान धन है। ऋतम्भरा प्रज्ञा, सत् असत् का विवेक, निर्मलता, धैर्य साहस, सत्यनिष्ठा आदि गुणों वाली मनोभूमिका ही सद्बुद्धि है। इसको प्राप्त करने से मानव जीवन स्वर्गीय सुख शान्ति से परिपूर्ण हो जाता है। गायत्री में इस सद्बुद्धि के लिए ही प्रभु से प्रार्थना की गई है और यदि यह याचना सच्चे हृदय से की जाय तो वह प्राप्त होकर भी रहती है।

(7) गायत्री मन्त्रों में अनेक ज्ञान विज्ञान छिपे हुए हैं। अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र, सोना आदि बहुमूल्य धातुओं का बनाना, अमूल्य औषधियाँ रसायनों, वायुयान, अनेकों ऋषि सिद्धियाँ, शाप वरदान के प्रयोग, नाना प्रयोजनों के नाना प्रकार के उपचार, परीक्षा विद्या, अंतर्दृष्टि, प्राण विद्या, वेधक, प्रक्रिया, शूल शाल्य, वाम मार्गी तंत्र विद्या, कुण्डलिनी चक्र, दशा महाविद्या, महामातृ का जीव निर्मोक्ष, रूपांतरण, अज्ञातसेवन, अदृश्य दर्शन, शब्द परव्यूह, सूक्ष्म सम्भाषण आदि अनेक लुप्त प्रायः महान विद्याओं के रहस्य बीज और संकेत गायत्री में मौजूद हैं। इन विद्याओं के कारण एक समय हम जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक और स्वर्ण सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे, आज इन विद्याओं को भूलकर हम सब प्रकार दीन हीन बने हुए हैं। गायत्री में सन्निहित उन विद्याओं का यदि फिर प्रकटीकरण हो जाय तो हम अपना प्राचीन गौरव फिर प्राप्त कर सकते हैं।

(8) गायत्री सनातन एवं अनादि मन्त्र है। पुराणों में कहा है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्म को आकाशवाणी द्वारा गायत्री प्राप्त हुआ था, इसी की साधना का तप करके उन्हें सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त हुई। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप ही ब्रह्माजी ने चार मुखों में चार वेदों का वर्णन किया। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। वेद विद्या, गायत्री की व्याख्या मात्र है। गायत्री को जानने वाला वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

(9) गायत्री एक आवश्यक नित्य कर्तव्य है। इस धर्म कर्तव्य की उपेक्षा करने वाले को शास्त्रकारों ने शूद्र कहा है। मनुष्य का हाड़ माँस का शरीर माता के गर्भ से प्रसव होता है किन्तु आध्यात्मिक जीवन गायत्री माता के द्वारा ही मिलता है। यह दूसरा जन्म होने पर कोई व्यक्ति द्विज कहलाता है। जहाँ गायत्री की नियमित साधना होती है वहाँ कल्याण की वर्षा होती रहती है।

(10) गायत्री सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम मन्त्र है। जो कार्य संसार में किसी अन्य मन्त्र से हो सकता है गायत्री से भी अवश्य हो सकता है। इस साधना में कोई भूल रहने में भी किसी का अनिष्ट नहीं होता, इससे सरल, स्वल्प श्रमसाध्य और शीघ्र फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है।

(11) गायत्री, गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधारशिला है उन सबमें गायत्री का स्थान सर्व प्रथम है। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया उसके लिए और कुछ जानना शेष नहीं रहता।

(12) स्वाध्याय, सत्संग, कथा, तीर्थ यात्रा, कीर्तन, दान पुण्य, पूजा अर्चा आदि के अपने अपने महत्व है। पर तप का महत्व सर्वोपरि है क्योंकि तप की अग्नि में पड़कर ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप ताप जलते रहते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में वह प्रचण्ड बल प्राप्त होता है जिसके द्वारा साँसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएं हल होती हैं। सभी तपों की जननी गायत्री है। 84 प्रकार के योगों की साधना गायत्री से ही होती है।

(13) गृह विरक्त स्त्री-स्त्री पुरुष, बाल, वृद्ध सभी अपनी स्थिति और सुविधा के अनुसार गायत्री माता का आश्रय लेकर अपने भीतर और बाहर फैले हुए अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकते हैं। अविश्वासी व्यक्ति परीक्षा की दृष्टि से भी कुछ समय गायत्री उपासना करके देखे, तो उनका अविश्वास विश्वास में परिणित होकर रहता है।

(14) समस्त धर्म ग्रन्थों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। समस्त ऋषि मुनि मुक्त कण्ठ से गायत्री का गुणगान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा बताने वाला इतना साहित्य भरा पड़ा है कि उसका संग्रह किया जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ ही बन सकता है। गीता में भगवान ने स्वयं श्री मुख से कहा है- ‘गायत्री छन्दसामहम्’ अर्थात् ‘गायत्री मन्त्र मैं स्वयं ही हूँ।’

(15) गायत्री को भूलोक की कामधेनु कहा गया है क्योंकि यह आत्मा की समस्त क्षुधा पिपासा शान्त करती है। गायत्री को सुधा कहा गया है क्योंकि जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाकर सच्चा अमृत प्रदान करने की शक्ति से वह परिपूर्ण है। गायत्री को पारसमणि कहा गया है क्योंकि उसके स्पर्श से लोहे के समान कलुषित अन्तःकरण का शुद्ध स्वर्ण जैसा महत्वपूर्ण परिवर्तन हो जाता है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा गया है- क्योंकि इसकी छाया में बैठकर मनुष्य उन सब कामनाओं को पूर्ण कर सकता है जो उसके लिये उचित एवं आवश्यक हैं।

(16) श्रद्धापूर्वक गायत्री माता का अंचल पकड़ने का परिणाम सदा कल्याणकारक ही होता है। गायत्री को ब्रह्मास्त्र कहा गया है कि क्योंकि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। इसका प्रयोग कभी भी व्यर्थ नहीं जाता।

(17) गायत्री साधना द्वारा आत्मा पर जमे हुए मल विक्षेप हट जाते हैं तो आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है और अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ परिलक्षित होने लगती है। दर्पण माँज देने पर उसका मैल छूट जाता है और वह निर्मल एवं प्रकाशवान होकर ईश्वरीय शक्तियों, गुणों सामर्थ्यों एवं सिद्धियों से परिपूर्ण बन जाता है।

(18) प्राचीन काल में ऋषियों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएं और योग साधनाएं करके अणिमा, महिमा आदि चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनके शाप और वरदान सफल होते थे तथा वे कितनी ही अद्भुत एवं चमत्कारी सामर्थ्यों से भरे पूरे थे इसका वर्णन इतिहास पुराणों में भरा पड़ा है। वह तपस्याएं और योग साधनाएं गायत्री के आधार पर ही होती थीं। गायत्री महाविद्या से ही 84 प्रकार की योग साधनाओं का उद्भव हुआ है।

(19) गायत्री उपासना से मनुष्य की अनेक कठिनाइयाँ हल होती हैं। ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं कि जो लोग आरम्भ में दरिद्रता का अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते थे, अपने मामूली गुजारे की भी व्यवस्था जिनके पास न थी, कर्ज के बोझ से दबे हुए थे, व्यापार में घाटा जा रहा था, उन्होंने गायत्री की उपासना की और अर्थ संकट को पार करके ऐसी स्थिति पर पहुँच गये कि जिनको अनेकों के लिए ईर्ष्या होती है। कम पढ़े और छोटी नौकरियों पर काम करने वालों को ऊंचे पद पर पहुँचने के उदाहरण मौजूद हैं। जिनकी बुद्धि बड़ी ही भौंड़ी और मंद थी वे चतुर, तीक्ष्णबुद्धि और विद्वान बने हैं। जिनकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की कोई आशा नहीं करता था, ऐसे विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास हुए हैं। झगड़ालू, चिड़चिड़े, क्रोधी, व्यसनी, बुरी आदतों में फंसे हुए, आलसी एवं मूढ मति लोगों के स्वभाव में ऐसे परिवर्तन हुए हैं कि लोग दाँतों तले उंगली दबाते रह गये।

(20) गायत्री साधना के चमत्कारी लाभ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रकट होते रहते हैं। जिनके दाम्पत्ति जीवन बड़े कर्कश थे, पति-पत्नी में कुत्ता बिल्ली का सा बैर रहता था, वहाँ प्रेम के निर्झरणी बहती देखी गईं। भाई भाई जो एक दूसरे के जानी दुश्मन बने हुए थे उनमें भरत मिलाप हुआ। जो कुटुम्ब, परिवार, क्लेश और कलह की अग्नि में झुलस रहे थे वहाँ शान्ति की वर्षा हुई। फौजदारी, मुकदमाबाजी, कत्ल, चोरी, डकैती, की आशंका से हर घड़ी भय रहता था वहाँ निर्भयता का एकछत्र राज हुआ। शत्रुओं के आक्रमण में जो लोग घिरे हुए थे, वे इन आपत्तियों से बाल बाल बच गये।

(25) बीमारी से तो कितने ही गायत्री साधकों का पिण्ड छूटा है। कई तो तपैदिक की मृत्यु शैया पर पड़े पड़े यमराज से लड़े हैं और उनकी डाढ़ो में से वापिस लौटे हैं। भूतोन्माद, दुःस्वप्न, मूर्छा, हृदय की निर्बलता, गर्भाशय का विषैला होना आदि रोगों से कितनों ने ही मुक्ति पाई है। कोढ़ी शुद्ध हुये हैं। असंयत जीवन क्रम और कुविचारों से उत्पन्न होने वाले स्वप्नदोष, प्रमेह आदि रोगों में मनः शुद्धि के साथ साथ तुरन्त कम होना आरम्भ हो जाता है। दुर्बल, जीर्ण रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों को वेद माता की गोद में पहुँचकर बड़ी शान्ति मिलती देखी गई है। सन्निपात, शीतला, हैजा, प्लेग, मोतीझरा, निमोनिया आदि कठिन रोगों में गायत्री ने चक्र सुदर्शन की तरह रक्षा की है।

(22) चिन्ताओं के दबाव से जो मस्तिष्क फटते रहते थे, उन्हें निश्चिन्तता और सन्तोष की साँस लेते हुए देखा गया है। मृत्यु शोक, सम्पत्ति नाश, ऋण ग्रस्तता, बात बिगड़ जाने का भय, कन्या विवाह का खर्च, प्रियजनों का विछोह, जीविका का आश्रय टूट जाना, अपमान, असाध्य रोग, दरिद्रता, शत्रुओं का प्रकोप, बुरे भविष्य की आशंका आदि कारणों से जिन्हें हर घड़ी चिंता घेरे रहती थी उन्हें माता की कृपा से निश्चिन्तता प्राप्त हुई है। या तो उन्हें कोई आकस्मिक सहायता मिली है या भीतरी प्रेरणा से उद्धार का कोई उपाय सूझ पड़ा है या अन्तःकरण में ऐसा विवेक और आत्मबल प्रकट हुआ है जिससे उस अवश्यम्भावी अटल प्रारब्ध को हंसते हंसते वीरतापूर्वक सहन कर लिया गया।

(23) पुरुषों की ही भाँति स्त्रियाँ भी प्रसन्नतापूर्वक गायत्री उपासना कर सकती हैं। विधवाएं आत्मसंयम इन्द्रिय निरोध, मनोनिग्रह एवं सात्विकता की वृद्धि करने में गायत्री की सहायता से सफल होती हैं। वे घर में रह कर इस तपस्या द्वारा आत्म-कल्याण एवं प्रभु प्राप्ति एवं जीवन मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। कुमारी कन्याओं की गायत्री साधना उनको अच्छे घर पर तथा अत्यन्त सौभाग्य प्रदान करने में सहायक होती है। सधवाएं गायत्री साधना द्वारा दाम्पत्ति जीवन में प्रेम, घर में सुख शान्ति एवं समृद्धि, बालकों का कुशल क्षेम प्राप्त करती हैं। गर्भवती स्त्रियाँ वेदमाता की उपासना करके स्वस्थ, तेजस्वी, बुद्धिमान दीर्घजीवी एवं भाग्यवान बालक प्राप्त करती हैं।

(24) सबसे उत्तम यह है कि निष्काम होकर अटूट श्रद्धा और भक्ति भाव से गायत्री की उपासना की जाय कोई कामना पूर्ति की शर्त न लगाई जाय। क्योंकि मनुष्य अपने वास्तविक लाभ या हानि और आवश्यकता को स्वयं उतना नहीं समझता है। वह हमारी वास्तविक आवश्यकता को स्वयं पूरा करता है। प्रारब्ध वश कोई अटल दुर्भाग्य न भी टल सके तो भी साधना निष्फल नहीं जाती। वह किसी न किसी अन्य मार्ग से साधक को उसके श्रम की अपेक्षा अनेक गुना लाभ अवश्य पहुँचा देती है। सबसे बड़ा लाभ आत्म कल्याण है जो यदि संसार के समस्त दुःखों को अपने ऊपर लेने से प्राप्त होता हो, तो भी प्राप्त करने ही योग्य है।


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