(श्री रामचन्द्र प्रसाद जी, दानापुर केन्ट)
सावरि तन्त्र संग्रह ग्रन्थ के लेखक श्री गोविन्द दास विनीत के गायत्री द्वारा प्रेतबाधा निवारण का एक व्यक्तिगत अनुभव छपाया है। उसे अविकल रूप से उद्धृत करके पाठकों के लाभार्थ उपस्थित करते हैं। श्री. गोविन्द दास जी लिखते हैं-
“मेरी मौसेरी बहिन नत्थीखेडा से तालवेहट (झाँसी) आयी। मेरे बहनोई श्री जुगलकिशोर जी वहाँ के पोस्टमैन थे। घर आते आते न जाने क्या हो गया? वह अंट संट बकने लगे और कभी कभी अपना सिर भी पीटने लगी। लगातार 6 महीने तक सारा कुटुम्ब परेशान रहा पर दर्द बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की। श्री देशपति जी एक नामी झाड़ा देने वाले थे। वह भी बुलाये गये। यहाँ मेरी बहन उसी दशा में बोली- “तुम लोग ठीक नहीं कर रहे हो, अभी मैं सिर्फ इसी के प्राण लेने की कोशिश कर रहा हूँ, मगर अब सारे कुटुम्ब का नाश कर दूँगा।” मेरे पिता जी ने पूछा- “कुटुम्ब ने क्या बिगाड़ा है।” बहिन के मुँह से निकला- “तुमने ‘पूरा’ से ठाकुर देशपति को बुलाया है। वह मुझे कष्ट देगा और मैं तुम सब को।” यद्यपि न तब तक देशपति आये थे, और न उनकी कोई चर्चा ही वहाँ चल रही थी। फिर भी माना जा सकता है कि मेरी बहन को किसी तरह खबर पड़ गई हो। जो हो, ठाकुर साहब आये, एक एक को देखकर हंसा, बहन के मुँह से निकला, “तुम चले जाओ तो अच्छा हो।” ठाकुर साहब- “हम तुम्हें अपने साथ लेकर जायेंगे।” बहन- मुझे मालूम है कि तुम मुझे वश में कर सकती हो, परन्तु भाई बन्दी में यह व्यवहार अच्छा नहीं।” “ठाकुर साहब- जब तुम्हें भाई बन्दी का इतना ख्याल है तो तुम्हीं मेरा कहना मानकर चले जाओ। बेचारे ब्राह्मणों को क्यों 6 महीने से दुःख दे रहे हो।”
“बहन-तुम बेजा दबाव न डालो। हम इसे छोड़ नहीं सकते। इसने हमारा हद से ज्यादा नुकसान किया है।”
यह ठीक चीज थी कि बहिन जिस मकान में रहती थी, उसमें एक छोटी सी चबूतरी थी और उसे उसने खोद डाला था। “ठाकुर साहब- जो हुआ सो हुआ अब तुम्हें मेरा कहना मानकर इसे छोड़ देना चाहिए। “बहन- मैं यह मान नहीं सकता।”
“ठाकुर साहब- तो तुझे यत्न करना पड़ेगा।” ठाकुर साहब ठीक हो गयी। उसने अपने पति और ससुर आदि को देखकर घूँघट डाल लिया। सब समझे भूत डर कर भाग गया।
परन्तु दस मिनट के भीतर की वही हालत हो गयी। वह हंसने लगी और बोली- “रोगी का इलाज पीछे करना, पहले घर जाकर लड़के की हालत देख आओ।”
बात कुछ समझ में न आयी और ठाकुर साहब उसे टालकर अपने यन्त्र मन्त्र का सामान बतलाने में लग गये।
कुछ देर बाद भोजन करने बैठे, कि उसी वक्त ‘पूरा’ से आकर एक आदमी ने खबर दी कि उनका लड़का कुँए में गिरकर मर गया है। शोकातुर होते हुए ठाकुर साहब अपने गाँव को चल दिये। उसके दो महीने पीछे तक मेरी बहिन को इतना कष्ट रहा कि उसका अस्थि पंजर मात्र रह गया। ठाकुर साहब फिर आ पहुँचे और बोले- “तूने मेरा जवान लड़का तो खा ही लिया है, पर अब मैं तुझे भी न छोड़ूंगा।
कहना न होगा कि उन्होंने उसी दिन बहिन को ठीक कर दिया, और वह एक ढक्कनदार घड़े में कुछ सामान रखकर विदा हो गये। अपने गाँव के पास पहुँच कर उन्होंने घड़े को एक चबूतरे पर रखा और पेशाब करने बैठ गये। इसी बीच में न जाने क्या हुआ? घड़ा फूट गया और ठाकुर साहब का दूसरा लड़का अपने दरवाजे पर खेलते खेलते ही चक्कर खाकर मर गया। बहिन की हालत फिर वैसे ही हो गयी।
अब तो सभी ताँत्रिकों का साहस टूट गया और एक विनय करने के सिवा दूसरा चारा शेष न रहा। एक दिन बहिन ने आप ही कहा-सवा लाख गायत्री पाठ कराओ, और मुझे गयाजी भेज दो, तो मैं इसे छोड़ सकता हूँ। वही योजना की गयी। कुछ दिन पीछे बहिन बिल्कुल अच्छी हो गयी।
गायत्रयुपासनाकरणादात्मशक्तिर्विवर्धते। प्राष्यते क्रमशोऽजस्य सामीपयं परमात्मनः।11।
-गायत्री की उपासना करने से आत्म-बल बढ़ता है। धीरे-धीरे जन्म बन्धन रहित परमात्मा की समीपता प्राप्त होती है।