निराशा में आशा का प्रकाश

July 1953

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(श्री सीताराम गुप्ता, हजारीबाग)

मैट्रिक में मैं दो वर्षों से फेल हो रहा था। बार बार फेल होने से मन भी अच्छी तरह न लगता था। दिल उदास रहता था। किसी काम में मन नहीं लगता था। घर से और बाहर से मुझ पर निन्दा की बौछार होती थी। पिता जी की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि मैं बार बार फैल होऊँ, और वह मुझे पढ़ाते जायं। दूसरी बात यह थी कि समय की बर्बादी होती थी। एक ही कोर्स को बार बार पढ़ने में मन नहीं लगता था। घर के लोग मुझको ताने देते थे। मुझे ऐसा लगता था मानो इस अपमान के जीवन से मृत्यु कहीं अच्छी है। कभी-2 मुझे ऐसा मालूम होता था कि मैं आत्म हत्या करलूँ, लेकिन मैंने अपने को सम्भाला और सोचा कि शास्त्र में कहा गया है कि ‘आत्म हत्या करना महापाप है।’ मैं शहर से दूर एकान्त में जाकर एक घंटा प्रतिदिन रोता था। मैं प्रतिदिन सोचता था कि कौन मेरे दुःख का अन्त कर सकता है? क्या कोई भी ऐसा उपाय नहीं है कि मेरा दुख दूर हो? क्या कोई भी ऐसी देवी या देवता नहीं है जो मेरे दुःख को दूर कर सकता है? इसी उधेड़ बुन में मैं दिन रात लगा रहता था। चारों तरफ मुझे अन्धकार ही अन्धकार मालूम होता था। प्रकाश की मुझे कहीं झलक ही नहीं दिखाई पड़ती थी। अन्त में मैं एक दिन ब्रजमोहन प्रसाद गुप्ता की दुकान पर गया। उन्होंने मुझे “गायत्री के अनुभव” और अखण्ड ज्योति की पुस्तक दिखलाई। उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि ‘गायत्री साधना से तुम अवश्य परीक्षोत्तीर्ण होंगे। प्रथम तो मुझे विश्वास नहीं हुआ परन्तु उनके बहुत आग्रह करने पर मैंने दूसरे दिन से गायत्री साधना आरम्भ कर दी। हाँलाकि हमारी साधना में बहुत कुछ त्रुटियाँ रह गई थीं और मैंने अच्छी तरह गायत्री साधना को विधि विधान से नहीं अपनाया था। सिर्फ मैं एक माला प्रातःकाल जप लिया करता था।

धीरे-धीरे परीक्षा के दिन समीप आये। तीसरी वर्ष मैंने भाग्य आजमाने के लिए परीक्षा का फार्म भर दिया। सिर्फ कुछ आशा थी तो माता पर। दो वर्ष फेल होने की बदनामी, समय और धन का बर्बाद जाना साथियों से पीछे रहने की लज्जा यह बातें मेरे मन में रह रह कर निराशा और दुःख उत्पन्न करती थीं। जैसे-2 परीक्षा के दिन निकट आते जाते थे, दिल घबराता था। ईश्वर से प्रार्थना करता था कि उन दिनों बीमार पड़ जाऊँ। कभी कभी ऐसा लगता कि जूते को पानी में भिगोकर और उसी भीगे जूते को पहनकर घूमा करूं जिससे सर्दी और ज्वर आ जाय, जिससे कि मैं बदनाम होने से बच जाऊँ। परीक्षा समाप्त हुई। आशा और निराशा के बीच मेरा मन डोल रहा था। मुझे विश्वास नहीं था कि मैं पास करूंगा क्योंकि इंग्लिश का पर्चा खराब हुआ था।

कोई पूछता कि कैसा कि यों ही? तो मैं उत्तर देता सप्लीमेन्ट्री में फिर अपने भाग्य को अजमाऊँगा।

परीक्षा फल निकला। मेरा नाम उत्तीर्ण छात्रों में आया। उमँग और उत्साह का ठिकाना न रहा। खुशी से मैं नाच उठा। तभी से मैं गायत्री माता की आँचल को पकड़ा हूँ। उसी दिन से गायत्री माता के प्रति मेरी असीम श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न हुई और मैं आशा करता हूँ कि माता की कृपा से भविष्य में इस भवसागर रूपी समुद्र से हमारी जीवन नैया पार लगेगी।

इसके पश्चात् कुछ दिनों के लिए मुझे नौकरी करने कि इच्छा हुई क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति खराब थी। ऐंपलायमेंट एक्सचेंज ऑफिस की सूचना मेरे घर पर नहीं आई अन्त में मैं ऑफिस गया। अन्त में मैं लाचार और निराश होकर लौट रहा था। मन ही मन गायत्री माता का ध्यान लगा रहा था और गायत्री मन्त्र भी जप रहा था कि इतने में एक मनुष्य आया और मुझे नौकरी मिलने का सूचना पत्र दे दिया। यह गायत्री माता का प्रताप था कि मुझे नौकरी मिल गई।

मैट्रिक पास करने के बाद मुझे कालेज में भर्ती होने की इच्छा प्रकट हुई मगर पिताजी आगे पढ़ाने को तैयार न थे। गायत्री माता की कृपा से मुझे 42 रु. 8 आना किसी के द्वारा प्राप्त हुआ और मैं कालेज में नाम लिखा आया। आश्चर्य की बात यह है कि पहले पिताजी कालेज की फीस देने में भी अस्वीकार किए थे पर अब वे न जाने क्यों कालेज की फीस देने को तैयार हैं।

यह सब गायत्री माता की ही कृपा है। इसलिए पाठकों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे गायत्री साधना अपनावें जिससे वे दैविक, भौतिक और शारीरिक दुःखों से बचें और पारलौकिक जीवन को उन्नत बना सकें।


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