गायत्री साधना में वाक्य सिद्धि

July 1953

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(श्री गोविन्द रामहिंगवासिया हटा)

मैं सरकारी अंग्रेजी मिडिल स्कूल हटा (जिला सागर मध्य प्रदेश) में एक साधारण कर्मचारी हूँ। मुझे मेरे प्रिय मित्र गंगा प्रसाद जी स्वर्णकार वैद्य के चिरंजीव भगवान दास जी वैद्य गायत्री मन्त्र लेखन के लिये प्रेरणा दिया करते थे, उनके उत्साहित करने से मैंने निश्चय किया कि क्वार की नवदुर्गा में उपवास के साथ यह गायत्री मन्त्र लेखन कार्य प्रारम्भ करूंगा। इसी निश्चय के अनुसार सम्वत् 2008 में मैंने फलाहार पर उपवास व गायत्री जप के साथ गायत्री लेखन का भी एक नियम बना लिया। मैं 108 गायत्री मन्त्र प्रति दिन लिखने लगा।

उन दिनों मेरी पाठशाला में एक शिक्षक थे श्री घनश्याम प्रसाद जी मिश्र, बी.ए.। वे मन्डला से स्थानाँतरित होकर हटा आये हुए थे तथा वे पुनः मन्डला जाना चाहते थे। उन्होंने एक प्रार्थना पत्र इस आशय का उच्च अधिकारी के पास भेजा था। उसे भेजे एक मास हो गया था।

मेरे उपवास के चौथे दिन, जब मैं शाला में अपने स्थान पर बैठकर गायत्री लेखन का कार्य कर रहा था, वे मेरे पास आये और उन्होंने मुझसे प्रश्न किया कि “पण्डित जी क्या मेरा स्थानाँतर होगा? यदि होगा तो कब तक?”

मैं बड़े असमंजस में पड़ गया। मैंने उनसे पाँच मिनट के बाद उत्तर देने के लिए कहा। इस समय के भीतर मैंने हृदय में महारानी गायत्री का स्मरण कर पण्डितजी के सम्बन्ध में क्या होने वाला है इसका उत्तर जानना चाहता हूँ। आत्मा पवित्र होने पर ऐसे उत्तरों का मिलना कुछ कठिन भी नहीं होता। भीतर से आत्मा ने उत्तर दिया- “हाँ, स्थानाँतर शीघ्र होगा, तरक्की होगी व इच्छित स्थान प्राप्त होगा और इसका आज्ञा पत्र गुरुवार तक आ जायगा।”

मैंने उपरोक्त बात उनको कह दी। यह सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए। परन्तु मेरे मन में विचार आया कि तुम यह क्या कर गए? न तुम सिद्ध हो, न ज्योतिषी। पर आत्मा ने पुनः आदेश दिया कि तुम चिन्ता मत करो तुमने जो कहा वैसा ही होगा।

सात दिन निकल गये गुरुवार का दिन भी आ गया किन्तु उनका आर्डर नहीं आया। वे बोले पण्डितजी गुरुवार तो निकल गया। यह सुनकर मैं कुछ लज्जित सा हुआ। सोचा अपनी आत्मिक पवित्रता में कमी रही है इससे आत्मा की आवाज उतनी स्पष्ट नहीं हो सकी। अन्यथा गायत्री उपासकों की आत्मा जब पवित्र हो जाती है तो उनके आन्तरिक सन्देश गलत नहीं होते।

परन्तु मुझे हृदय में इस बात की अशान्ति थी कि मैंने इस गुरुवार के पहले-गुरुवार के लिये कहा था। जब श्रीमान् हैडमास्टर साहब ने आर्डर पढ़कर सुनाया तब मेरा ध्यान ‘दिनाँक’ की ओर गया। मैंने उनसे कहा कि आर्डर के आने में 10 दिन कैसे लगे। इस पर लिफाफा उठाकर देखा उसमें हटा जिला बालाघाट की मुहर लगी थी। वह लिफाफा गलती से हटा जिला बालाघाट पहुँच गया था व घूमकर 10 दिन में हटा (जिला सागर) आया। यदि वह जबलपुर से सीधा आता तो पहले गुरुवार को ही मिल जाता।

गतवर्ष क्वार के महीने में हटा में हैजा फैला था। गुरुवार के सवेरे आठ बजे में श्रीमान् हैड मा. साहब के घर गया था। वहाँ मुझे पाठशाला के चौकीदार गोरेलाल से विदित हुआ कि आज रात से बसन्ती की माँ बीमार है। बसन्ती शाला के एक नौकर का नाम था। वह भी दो दिन पहले से बीमार था।

गोरेलाल की बात सुनते ही अचानक मेरे मुख से निकल पड़ा कि बसन्ती तो अच्छी हो जायगी किन्तु उसकी माँ मर जायगी। कहने को तो में कह गया पर बाद में मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ। संध्या के पाँच बजे मुझे सूचना मिली कि बसन्ती की माँ मर गई है पर उसकी तबियत अच्छी है।

यह दो घटनाएं संक्षिप्त में ही लिखी हैं। इनके अतिरिक्त अनेक बार और भी ऐसे ही अनुभव हो चुके हैं और यह विश्वास बढ़ रहा है कि यदि आत्मिक पवित्रता अधिक हो जाय तो संसार की अज्ञात बातों को जानना और वाक्य सिद्धि प्राप्त करना कुछ कठिन नहीं है।


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